असम में नागरिकता को ले कर चल रहे विवादों में सैकड़ों परिवारों को अधर में लटका दिया गया है. गृहमंत्री अमित शाह चाहे चिल्लाते रहें कि वे एक भी विदेशी को भारत की भूमि पर नहीं रहने देंगे, सरकार कहती रहे कि भारत शरणार्थियों का देश नहीं बनेगा, पर यह पक्का है कि आदमियों, औरतों और बच्चों को जानवरों की तरह न हांका जा सकता है, न हिटलर के तानाशाही कारनामों की तरह गैस चैंबरों में ठूंसा जा सकता है.
इस विवाद के चलते और कट्टरपंथियों की बढ़ती हिम्मत के कारण अब गोलाबारी, बलात्कार, अपहरण, छीनाझपटी आम हो गई है और इन के शिकार लोगों के अपने गुस्से को इजहार करने पर भी आपत्ति की जाने लगी है.
असम पुलिस ने एक कवि को गोली, भाला, त्रिशूल चलाने पर नहीं, एक साधारण सी कविता लिखने पर अरैस्ट वारंट जारी कर दिया. पोइट्री लिखने के आरोप में डाक्टर हाफिज अहमद सहित 8 अन्य रेहाना सुलताना, अब्दुर रहीम, अशरफुल हुसैन, अब्दुल कलाम आजाद, काजी सरोवर हुसैन, बनमल्लिका चौधरी, सलीम एम. हुसैन, करिश्मा हजारिका व फरहाद भुईयां के खिलाफ मुकदमे दर्ज कर लिए.
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इतने नाम इसलिए लिखे जा रहे हैं कि एक कविता पर पुलिस ने इतनों के खिलाफ कैसे प्राथमिकी दर्ज की.
मामला भारतीय दंड विधि की धाराओं 153ए, 295ए पर दर्ज किया गया. कविता में कवि या पढ़ने वालों के खिलाफ एक हिंदू ने मामला दर्ज किया और पुलिस आननफानन में गिरफ्तारी करने पहुंच गई. उच्च न्यायालय ने गिरफ्तारी पर रोक तो लगा दी पर थानों और अदालतों के चक्करों से अभी मुक्ति नहीं दी. शिकायतकर्ता घर पर बैठ कर बांसुरी बजाएगा, क्योंकि उसे अब न थाने में जाने की जरूरत है न अदालत में. वह गवाह न भी बने तो भी मामला वर्षों चलता रहेगा.
धर्म के नाम पर इस तरह का अत्याचार व अनाचार सदियों से हो रहा है और आज भी बंद नहीं हुआ है. धर्म के दुकानदारों को हर समय लगता है कि उन की पोल न खुल जाए इसलिए वे ईशनिंदा के खिलाफ बने कानूनों का इस्तेमाल करते रहते हैं. इस कविता में धर्म को तो नहीं लपेटा पर धर्म के आधार पर बने नैशनल सिटिजनशिप रजिस्टर के प्रति रोष जताया गया है. इस बात को कहना भी कट्टरवादियों को नहीं सुहाया और वे पुलिस की धमकियों का इस्तेमाल करने लगे हैं. वे नहीं चाहते हैं कि नागरिकता के एकतरफा कानून की कोई बात भी करे.
यही औरतों के हकों पर करा जाता है. जहां कोई औरतों पर धार्मिक अत्याचारों की बात करता है धर्म के धंधेबाजों को खतरा महसूस होने लगता है.
धर्म के नाम पर औरतों को रातरातभर जगाया जाता है. उन को नचवाया जाता है. सिर पर घड़े रख कर सड़कों पर चलवाया जाता है. उबाऊ तीर्थयात्राओं में हांका जाता है. आग के सामने बैठ कर घंटों तपाया जाता है. हर बार कहा जाता है कि यह करो वरना समाज से बाहर हो जाओ, घर में दुत्कार सहो. जो इन की पोल खोलने और निरर्थकता की बात करता है उसे देशद्रोही या टुकड़ेटुकड़े गैंग का हिस्सा घोषित कर दिया जाता है. रातदिन संदेश दिया जा रहा है कि किसी भी धर्म के हों चलेगी तो तिलक व दुपट्टाधारियों की ही.
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समाज का पुनर्निर्माण आज पहली आवश्यकता है पर हम अब फिर धर्म, जाति व भाषा की दड़बों सी जेलों में बंद होने लगे हैं. चाहे हमारी जेल एक ही हो पर अंदर हम सब सिर्फ अपनों की बैरकों में सुरक्षित हैं, यह समझाना शुरू कर दिया गया है. खुली बहस, नई सोच, आलोचनाओं, आपत्तियों, पुरानी मान्यताओं के खोखलेपन की कोई बात भी न करे. देश का विवेक और देश की बुद्धि कुछ हाथों में सिमट रही है. न दूसरे धर्मों, न दूसरी जातियों और न दूसरी पार्टियों के लोग अब आजादी महसूस कर सकते हैं. औरतों को ज्यादा नुकसान होगा जो उन की नौकरियों में घटती संख्या और पाखंड में बढ़ते दखल के रूप में दिखने लगा है.
सभ्यता औरतों के हकों के खिलाफ क्यों
आज भी किसी औरत से मिलते हुए पहला नहीं तो दूसरा सवाल यही होता है कि आप के पति क्या करते हैं? आज भी औरतों का अकेले होना न समाज को स्वीकार है और न ही कानून को. कानून भी बारबार पूछता है कि आप के पति कौन हैं, कौन थे और अगर नहीं तो पिता कौन हैं? एक आदमी से कभी नहीं पूछा जाता कि आप की पत्नी कौन है, क्या करती है?
इस मामले ने हमेशा ही औरतों को अकेला रखा है मानो यदि पति न हो तो पत्नी की सुरक्षा हो ही नहीं सकती. यह तब है जब निर्भया कांड में बलात्कार की शिकार के साथ एक पुरुष मित्र था यानी पुरुष का सान्निध्य औरत की शारीरिक सुरक्षा की गारंटी नहीं है. आजकल सोशल मीडिया पर सैकड़ों वीडियो वायरल हो रहे हैं, जिन में 3-4 भगवा गमछाधारियों ने लड़केलड़की को पकड़ कर लड़की का लड़के के सामने बलात्कार किया और लड़का कुछ न कर पाया.
घरों में चोरी होने पर अकसर ऐसे मामले ही ज्यादा होते हैं जब औरतों के साथ पूरा परिवार होता है. औरतों के साथ किसी पुरुष का होना कोई सुरक्षा की गारंटी नहीं है. सदियों से दलितों की औरतों का उन के पतियों के सामने अपहरण किया जाता रहा है. यहां तक कि हमारी धार्मिक कहानियों में सीता का अपहरण विवाहित होने के बावजूद हुआ था. इस के मुकाबले तो शूर्पणखा अच्छी थी जो अकेले जंगल में राम और लक्ष्मण के साथ प्रेम निवेदन कर सकी थी या हिडिंबा भीम के समक्ष अपनी इच्छानुसार बिना शर्म के संबंध बना सकी थी.
आज अकेली औरतों की संख्या निरंतर बढ़ रही है पर समाज का दृष्टिकोण नहीं बदल रहा और कानून भी बहुत धीरेधीरे बदल रहा है. काफी जद्दोजहद के बाद कानूनी दस्तावेजों में पिता के स्थान पर मां का नाम लिखने की अनुमति मिली है पर अभी भी पत्नी की पहचान पति से ही हो रही है.
विवाह न औरतों की खुशी के लिए होता रहा है न उन की इच्छा पर. यह तो समाज का दबाव है कि पिता बेटी से छुटकारा पाना चाहता है. यदि समाज का दबाव न हो तो पिता बेटी को जिस से मरजी शादी की अनुमति दे देता पर भारत से ले कर तुर्की, इजिप्ट और यहां तक कि चीन और अमेरिका में भी पिताओं को यह चिंता रहती है कि कहीं बेटी का मनचाहा उन के परिवार व स्तर का नहीं हुआ तो क्या होगा.
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आदमियों को छूट है कि वे कुछ दिन खिलवाड़ कर लें किसी भी लड़की के साथ और कहते रहें कि वे सीरियस नहीं हैं पर अगर लड़की किसी के साथ 4 बार चाय भी पी ले तो मांबाप पीछे पड़ जाते हैं कि लड़का शादी लायक मैटीरियल है या नहीं? अकेली औरतों का वजूद ही नहीं है.
जेम्स बौंड की सीरीज में अब तक जेम्स बौंड 007 केवल गोरा पुरुष होता था. अब बदलाव की हवा को देखते हुए एक अश्वेत युवती को जेम्स बौंड की तरह प्रस्तुत किया जा रहा है जैसे हमारे देश में नाडिया को कालीसफेद फिल्मों के युग में एक बार किया गया था.
अकेली औरतों की दुर्दशा सभ्य समाजों में ज्यादा हुई है. दुनियाभर में आदिवासी समाजों में औरतों को बराबर के हक मिले हैं. सभ्यता औरतों के हकों और उन के व्यक्तित्व पर भारी पड़ी है, जहां वे गुलाम और खिलौना बन कर रह गई हैं.
सरकार मंदिरों के चढ़ावे का भी हिसाब ले जगन्नाथपुरी, तिरुपति बालाजी, पद्मनाभस्वामी जैसे मंदिरों की संपत्ति कितनी है, इस के बारे में केवल अंदाजा ही लगाया जा सकता है. किसी को अनुमति ही नहीं है कि उसे आंकने की कोशिश करे. वैसे भी गिनती कर के करना क्या है, क्योंकि यह सारी संपत्ति चंद पुजारियों की है जो खुद नहीं जानते कि वे इस बिना कमाई के पैसे का क्या कर सकते हैं.
मंदिरों को आज से नहीं हजारों सालों से भरपूर चंदा मिलता रहा है. धर्म की सफलता ही इस बात में रही है कि इस ने घरों से, औरतोंबच्चों के मुंह से निवाला छीनने में कसर नहीं छोड़ी. मिस्र के विशाल मंदिर और पिरामिड इस बात के सुबूत हैं कि घरों की मेहनत को निठल्ले पुजारियों के कहने पर राजाओं ने निरर्थक चीजों पर बरबाद कर दिया.
आज हम इन मंदिरों को देख कर आश्चर्य प्रकट कर लें पर सवाल उठता है कि इतनी मेहनत कराई क्यों गई थी? इस से जनता को क्या मिला?
जैसे तब के मंदिरों को जम कर लूटा गया और हर राजा विशाल और विशाल मंदिर बनाता रहा कि उस में चोरी न हो पाए ऐसे ही आज के मंदिरों में चोरियों का डर लगा रहता है. किसी भी मंदिर में चले जाएं, वहां बढि़या से बढि़या तिजोरी मिलेगी जिस पर 8-8, 10-10 ताले लगे होंगे. मोटी स्टील की बनी इन हुंडियों में डाले पैसे पर न तो चोरों से भरोसा है न पुजारियों से. आज भी हर मंदिर चढ़ावे का हिसाब देने से कतराता है.
जगन्नाथपुरी मंदिर के रत्न भंडार की चाबियां सालभर से गायब हैं और उच्च न्यायालय व सरकार दोनों माथापच्ची कर रहे हैं कि चाबियां कौन ले गया, क्यों ले गया और कैसे डुप्लिकेट चाबियों से काम चलाया जा रहा है जबकि डुप्लिकेट चाबियां होनी ही नहीं चाहिए.
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होना तो यह चाहिए कि मंदिर अगर सचमुच में किसी भगवान का केंद्र है तो वहां न संपत्ति होनी चाहिए और न ही कोई निर्माण. अगर प्रकृति का निर्माता हजारोंलाखों दूसरी चीजें बना सकता है तो अपने बनाए इंसान से अपनी पूजा करवाने के लिए मंदिर क्यों बनवाता है? मंदिर तो सदियों से चली आ रही धार्मिक चाल का परिणाम हैं जहां लोगों को इकट्ठा कर के खुशीखुशी लूटा जाता है. लोगों को कच्चे घरों में भूखा रख कर पक्के मंदिरों में भरपूर खाने के साथ ला कर सिद्ध किया जाता है कि देखो, मंदिर कितना शक्तिशाली है.
औरतों को इसीलिए धर्म का अंधा बनाया जाता है ताकि वे अपना और बच्चों का पेट काट कर मंदिर में तनमन और धन तीनों दें. इस का हिसाब कोर्ट न ले.