‘नटरंग’, ‘बालक पालक’, ‘बाल गंधर्व’ और ‘टाइम पास’ जैसी फिल्मों के दर्शकों को इन फिल्मों के निर्देशक रवि जाधव निर्देशित पहली हिंदी फिल्म ‘बैंजो’ देखकर निराश होना स्वाभाविक है. क्योंकि ‘बैंजो’ पूर्ण रूपेण बॉलीवुड की मुंबईया मसाला फिल्म है. पहचान के संकट से गुजर रहे ‘बैंजो’ को यह फिल्म पहचान दिलाने में कामयाब नहीं होती है.
फिल्म की कहानी मुंबई की झोपड़पट्टी बस्ती में रहने वाले नंद किशोर उर्फ तैरात के बैंजों बैंड के इर्द-गिर्द घूमती है. तैरात के साथ तीन और लड़के ग्रीस, पेपर और वाजा रहते हैं. यह चारो गणेषोत्सव के दौरान संगीत बजाते हैं.
बैंजो बजाने में तैरात का कोई सानी नही है. तैरात ऐरोगेंट है और जब कोई उसके पास बैंजो बजाने का कार्यक्रम लेकर जाता है, तो वह मनमाने पैसे मांगता है. तैरात व उसके तीनों साथियों के लिए बैंजो बजाना अंशकालिक काम है.
पेपर (आदित्य कुमार) हर दिन सुबह लोगों के घरों में समाचार पत्र पहुंचाता है. वाजा (राम मेमन) पानी भरता है. जबकि ग्रीस (धर्मेश येलंडे) एक गैरज में काम करता है. तैरात स्थानीय नेता पाटिल के लिए पैसा वसूली व मारा मारी का काम करता है.
पाटिल और एक सिंधी भवन निर्माता गोडानी के बीच कलह है. गोडानी की नजर पाटिल के इलाके के एक खेल के मैदान पर है,जिसे पाटिल, बस्ती वालों के भले की बात सोचकर उसे नहीं देना चाहता.
तैरात व उसके साथ मुंबई के गणेषोत्सव के दौरान बैंजो बजाते हैं, जिसे माइकल रिकार्ड कर न्यूयार्क की अपनी दोस्त क्रिस्टिना उर्फ क्रिस (नरगिस फाखरी) के पास भेजता है. क्रिस्टिना को बैंजो की धुन भा जाती है. उसे लगता है कि न्यूयार्क की एक संगीत कंपनी द्वारा आयोजित संगीत प्रतियोगिता के लिए वह बैंजो की धुन पर दो गाने बनाकर देगी और इस बैंजो वादक को वह न्यूयार्क ले जाकर संगीत कंपनियों के साथ जोड़ेगी.
इसी मकसद से वह इनकी तलाश में मुंबई आती है. मुंबई में एक मित्र की माध्यम से क्रिस, तैरात के पास पहुंचती है. तैरात अपने दोस्तों के कहने पर क्रिस्टिीना को नहीं बताता कि वह बैंजो बजाता है. उधर क्रिस उसके साथ हर गंदी बस्ती में घूमती है, तस्वीरें खींचती है. तो वहीं वह माइकल के साथ उस बैंजो वादक की तलाश भी की करती रहती है.
कई बैंजो वादकों को बुलाकर वह परफॉर्म कराती है, पर उसे वह धुन नहीं मिलती,जिसे सुनने के बाद वह न्यूयार्क से मुंबई आयी है. वह वापस न्यूयार्क जाने का फैसला कर लेती है. क्रिस वापस जाने से पहले तैरात से मिलने जाती है, तो उसके कानों में वही बैंजो की धुन पड़ती है, जिसकी उसे तलाश है.
जब क्रिस उस जगह पहुंचती है, तो वह तैरात व उसके साथियों को बैंजो बजाते हुए पाती है. तैरात बताता है कि उसने अपने साथियों के कहने पर बैंजों बजाने की बात छिपायी थी, बैंजों बजाना गिरा हुआ काम माना जाता है. हम तो पेट के लिए पैसा कमाने के लिए बजा लेते हैं. उसके बाद क्रिस, तैरात व उसके साथियों के साथ मिलकर संगीत तैयार करती है. नायर से बात कर उसके क्लब में तीन मिनट का बैंजो का कार्यक्रम रखवाती है, जिससे तैरात व उसके साथी स्टार बन जाते हैं.
अब वह सोबो संगीत समारोह में हिस्सा लेना चाहती है. पर इसी बीच तैरात से जलन रखने वाले दूसरे बैंजो पथक के मुखिया (महेष शेट्टी) तथा पाटिल व गोडानी की दुश्मनी के चलते पाटिल के जन्मदिन पर पाटिल को गोली मारी जाती है. आरोप तैरात पर लगता है. तैरात व उसके साथियों की पुलिस पिटाई करती है. क्रिस व माइकल वकील की मदद लेकर इन्हे जमानत पर छुड़ाते हैं. पर इस घटनाक्रम के बाद तैरात के सभी साथी उसका साथ छोड़ देते हैं. क्रिस भी निराश होकर न्यूयार्क चली जाती है. माइकल बैंगलोर चला जाता है.
होश आने पर पाटिल अपने बयान में तैरात को निर्दोश बताता है. तैरात के पिता की मौत हो जाने पर वह अपने साथियों के साथ पिता की अंतिम यात्रा में बैंजो बजाता है. सब कुछ सामान्य हो जाता है. सोबो संगीत समारोह से पहले तैरात व उसके साथी तथा माइकल मिलते हैं.नायर के विरोध करने पर तैरात एक टेक में बैंजो वाद्ययंत्र सजाकर अपने साथियों के साथ सोबो संगीत समारोह के दरवाजे पर जाकर परफॉर्म करता है, सारे श्रोता व दर्शक उनकी तरफ हो जाते हैं. माइकल इसका वीडियो बनाकर क्रिस के पास भेजता है. अंततः क्रिस, तैरात व उसके साथियों को न्यूयार्क बुलाती है.
इंटरवल से पहले फिल्म खिसकती हुई चलती है. इंटरवल के बाद फिल्म गति पकड़ती है, लेकिन फिल्म के अंतिम पच्चीस मिनट में निर्देशक व पटकथा लेखक दोनों ही अपनी फिल्म पर अपनी कमांड छोड़ बैठते हैं. फिल्म को असल जिंदगी के करीब रखने के प्रयास में पूरी फिल्म एक खास क्षेत्रीयता तक सीमित रह जाती है.
इंटरवल से पहले रितेश देशमुख व नरगिस फाखरी पर सपने में रोमांस का गाना डालकर फिल्म को कमजोर कर दिया गया. राजनेता पाटिल का किरदार काफी बनावटी लगता है. फिल्म देखते समय लगता है कि निर्देशक रवि जाधव इस कश्मकश से गुजर रहे हैं कि वह इसे ‘गुड फील सिनेमा’ की रंगत दें या ‘फार्मुला प्रधान एक्शन फिल्म’ की रंगत दें.
जब आप संगीत के एक वाद्ययंत्र को उसकी पहचान दिलाने की बात कर रहें हैं, तो फिर राजनीति व अपराध को कहानी का हिस्सा बनाना मकसद से भटकाव का संकेत है. पर खेल के मैदान को हड़पने और पाटिल पर हमले के प्लॉट ने पूरी फिल्म को तहस नहस कर दिया. यदि कहानी बैंजो पथक, क्रिस के मकसद, क्रिस व तैरात के संबंधों तक सीमित होती, तो भी ठीक रहता. पर निर्देशक के तौर पर रवि जाधव इन चीजों को भी सही परिपेक्ष्य में पेश करने में बुरी तरह से असफल रहे हैं. फिल्म को डुबाने में इसकी लेखकीय टीम और एडीटर भी दोशी हैं. वैसे भी इस ढर्रे पर ‘रॉक ऑन’ और ‘एबीसीडी’ जैसी फिल्में बन चुकी हैं.
जहां तक अभिनय का सवाल है, तो रितेश देशमुख ज्यादातर दृष्यों में खुद को दोहराते हुए ही नजर आए हैं. वह तैरात के किरदार में फिट नजर नहीं आते हैं. रोमांस में वह बहुत बेकार नजर आते हैं. पर इसके लिए कुछ हद तक फिल्म के संवाद व संवाद लेखक भी दोशी हैं. नरगिस फाखरी एक बेहतरीन अदाकारा के रूप में उभरी हैं. अन्य कलाकारों ने भी अच्छी परफार्मेंस दी है.
संगीतकार विशाल शेखर की तारीफ की जानी चाहिए. एक दो गाने अच्छे बन पड़े हैं. गणपतिजी का गाना काफी सुंदर बना है.
दो घंटे 17 मिनट की अवधि वाली फिल्म ‘बैंजो’ की निर्माता कृशिका लुल्ला, निर्देशक रवि जाधव, पटकथा लेखक कपिल सावंत, निखिल मेहरोत्रा, रवि जाधव, संगीतकार विशाल शेखर व रितेश देशमुख, नरगिस फाखरी, धर्मेश येलंडे, लुक केणी व अन्य कलाकार हैं.