नाकामी की कहानी – 1
बिहार के वैशाली जिले के राघोपुरा दियारा में 22 अगस्त की रात 8 बजे से 23 अगस्त की सुबह 5 बजे तक 45 लोग उफनते और गरजते बाढ़ के पानी के बीच नाव में फंसे रहे. कोई डर के मारे चीख रहा था तो कोई जान जाने के खौफ से चिल्ला रहा था. कोई दहाड़े मारमार कर रो रहा था. रातभर नाव पर यही मंजर बना रहा. उन्हें ले जा रही नाव का इंजन खराब हो गया. नाव में 25 स्कूली छात्र और मास्टर समेत 45 लोग सवार थे. नाव पर सवार कुछ लोगों ने इस की जानकारी व्हाट्सऐप के जरिए पटना के कुछ पत्रकारों को दी. पत्रकारों ने रात 12 बजे आपदा प्रबंधन विभाग के टोलफ्री नंबर पर कई बार फोन लगाया पर किसी ने फोन उठाने की जहमत नहीं उठाई. उस के बाद आपदा विभाग के प्रधान सचिव व्यास के मोबाइल फोन की घंटी बजाई गई, पर बात नहीं हो सकी.
नाव में सवार मनोज कुमार ने बताया कि सारी रात नाव में सवार लोग चीखतेचिल्लाते रहे पर उन की आवाज सुनने वाला कोई नहीं था. सरकारी मदद की सारी उम्मीदें टूटने के बाद नाव में सवार सुरेंद्र कुमार ने अपने मोबाइल फोन से अपने गांव के दोस्तों को सूचना दी तो गांव में अफरातफरी मच गई. गांव के लोग तेज रोशनी वाली टौर्चों के साथ कई नाव ले कर निकल पड़े. अंधेरा होने और बाढ़ के पानी की तेज आवाज होने की वजह से कुछ पता नहीं चल पाया.
नाव में फंसे लोग अपने दोस्तों से मोबाइल से लगातार संपर्क में रहे पर फंसी हुई नाव की लोकेशन नहीं मिल सकी.
सुबह 5 बजे हलकी रोशनी होने के बाद गंगा की लहरों के बीच फंसी नाव नजर आई और सभी को दूसरे नाव में लाद कर बचाया गया. गांव वालों ने खुद ही अपने लोगों को आपदा से बचाया और आपदाओं में फंसे नागरिकों की जान बचाने का ढिंढोरा पीटने वाले आपदा प्रबंधन बल की नींद नहीं खुली. अखबारों और टैलीविजन चैनलों पर विज्ञापन दिखा कर आपदा की घड़ी में सूचना मिलने पर तत्काल राहत कार्य पहुंचाने का दावा करने वाला आपदा प्रबंधन बल कान में तेल डाल कर सोता रहा. आपदा में फंसे लोगों का फोन रिसीव करने का भी उस ने कष्ट नहीं उठाया.
नाकामी की कहानी – 2
2 अगस्त को मुंबईगोआ नैशनल हाईवे पर रायगढ़ जिले में महाड़ के पास 100 साल पुराना, ब्रिटिश जमाने में बना पुल सावित्री नदी के तेज बहाव में बह गया. महाराष्ट्र परिवहन निगम की 2 बसों समेत कई प्राइवेट कारें और मोटरसाइकिलें उफनती नदी में समा गईं. मुंबई शहर से 170 किलोमीटर की दूरी पर हुए हादसे में 15 लोग मारे गए और दर्जनों लापता हैं. एनडीआरएफ की टीम पानी में बहे लोगों को निकालने में नाकाम रही. लोकल मछुआरों की मदद से टीम राहत, बचाव और लाशों के ढूंढ़ने का काम करती रही पर खास कामयाबी नहीं मिल सकी. 300 किलो वजन चुंबक को पानी में डाल कर पानी में डूबी गाडि़यों की खोज की गई लेकिन एक भी गाड़ी का पता नहीं चल सका. पानी के तेज बहाव और नदी में भरे मगरमच्छों की वजह से एनडीआरएफ टीम को भारी मशक्कत का सामना करना पड़ा.
पुल के आसपास के लोगों का कहना है कि नदी में गैरकानूनी तरीके से बालू के खनन से पुल की नींव कमजोर पड़ गई थी, जो पानी के तेज बहाव को नहीं झेल सकी. प्रशासन को कई बार इस बारे में सूचना दी गई पर बालू खनन को रोकने का कोई उपाय नहीं किया गया. गौरतलब है कि इसी साल मई महीने में पुल की जांच की गई थी और उस की मरम्मत करने के बाद उसे ट्रैफिक के लायक करार दिया गया था.
नाकामी की कहानी – 3
पिछले साल चेन्नई में बाढ़ का पानी तांडव मचा रहा था. बाढ़ से पूरा शहर डूब रहा था और पानी आने के 72 घंटे तक राष्ट्रीय आपदा मोचन बल यानी एनडीआरएफ की टीम नहीं पहुंच सकी. बाढ़ ने जान और माल का काफी नुकसान कर डाला था. आखिर सेना बुलाई गई और सेना ने हालात पर काबू पाया. तमिलनाडु सरकार और आपदा प्रबंधन विभाग बाढ़ के सामने पूरी तरह से बेबस नजर आए. वायुसेना के हैलिकौप्टरों ने 5 दिनों में 40 उड़ानें भर कर बाढ़ में फंसे 700 लोगों को निकाला और बाढ़ पीडि़तों के बीच 281 टन राहत सामग्री पहुंचाई. बारिश की वजह से चेन्नई में 269 लोगों को जान गंवानी पड़ी. एनडीआरएफ का दावा है कि चेन्नई बाढ़ में 50 टीमों को लगाया गया था. टीम के साथ 194 बोट, 1,571 लाइफ जैकेट, 1,071 लाइफबोट, दवाइयां और जीवनरक्षक उपकरण मुहैया कराए गए थे.
नाकामी की कहानी – 4
साल 2013 में उत्तराखंड में हुई आपदा के बाद भी हमारी आंखें नहीं खुल सकी हैं. केदारनाथ आपदा के बाद एनडीएमए के पूर्व उपाध्यक्ष शशिधर रेड्डी ने साफ तौर पर हिदायत दी थी कि उत्तराखंड समेत देश के सभी हिमालय प्रभावित इलाकों में आपदाओं से निबटने के लिए पूरी व्यवस्था करनी जरूरी है. इन इलाकों में भूकंप, भारी बारिश, भूस्खलन और बादल फटने जैसी आपदाएं अकसर होती रहती हैं. केदारनाथ में विनाश का तांडव 15 जून, 2013 से ही शुरू हो गया था और सरकार व आपदा प्रबंधन वाले 19 जून तक समझ ही नहीं सके कि क्या और कैसे किया जाए? इतने दिनों में तो प्रकृति ने विनाश का नया इतिहास ही रच डाला. सरकारी आंकड़ों के हिसाब से ही करीब 4 हजार लोग मारे गए. उस के बाद तो आपदा प्रबंधन के लोगों ने बचाव नहीं केवल लाशों को ढूंढ़ने व उन्हें ठिकाने लगाने का ही काम किया. केदारनाथ आपदा के 3 साल गुजर गए और आज तक आपदा प्रबंधन के कोई ठोस उपाय नहीं किए जा सके हैं. आपदा खत्म, सरकार की सोच खत्म.
तूफान, सूनामी, बवंडर, आंधी, बाढ़, आग, बम विस्फोट, दंगे समेत आतंकवादी हमलों व आपराधिक वारदातों के समय आपदा प्रबंधन की जरूरत पड़ती है. आपदा आने पर ही आपदा से बचाव का इंतजाम दुरुस्त करने की याद आती है और आपदा के खत्म होने के बाद सरकारें, आपदा प्रबंधन विभाग और आपदा झेलने वाले कान में तेल डाल कर सो जाते हैं.
संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, किसी भी प्राकृतिक आपदा यानी भूकंप, बाढ़, सूखा, बवंडर, सूनामी, ज्वालामुखी फटना, जंगल में आग, भूस्खलन, आंधी आदि और इंसानों द्वारा पैदा की गई आपदा यानी आगजनी, पुल, बांध या इमारत के धराशायी होने, औद्योगिक दुर्घटना, रेल दुर्घटना, महामारी आदि से पैदा हुई आपदा से हुई जान व माल की हिफाजत करना या बरबादी को कम करना आपदा प्रबंधन विभाग का काम है.
फिसड्डी है आपदा प्रबंधन
बिहार में बाढ़ की तबाही के बाद बिहार सरकार को आपदा प्रबंधन की याद आई. मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आननफानन बाढ़, सुखाड़, आगजनी, भूकंप, तूफान, पीने के पानी का संकट आदि आपदाओं से निबटने हेतु आपदा प्रबंधन को मजबूत करने के लिए ताबड़तोड़ बैठकें करने में लगे रहे. उन्होंने राज्य के सभी जिलों में आपदा प्रबंधन योजना बनाने का फरमान जारी किया कि हर जिले के आपदा प्रबंधन विभाग के औफिस में लाइफजैकेट, महाजाल, टैंट, बरतन, मोटरबोट, जीपीएस सैट, इमरर्जैंसी लाइट, जीवनरक्षक दवाएं, एंबुलैंस, क्विक मैडिकल रिसपौंस टीम आदि का इंतजाम रखा जाए. इस के साथ ही, आपदाओं से निबटने के लिए ट्रेंड कैडेटों को भी हर समय तैयार रखा जाए.
कम्यूनिस्ट नेता कुणाल कहते हैं कि आपदा प्रबंधन के मामले में बिहार सरकार पूरी तरह से फिसड्डी और संवेदनहीन साबित हुई है. पिछले साल बेमौसम हुई बारिश ने 22 लोगों की जान ले ली और 70 फीसदी गेहूं की फसल बरबाद हो गई. मौसम विभाग ने भारी बारिश की सूचना दी थी पर उसे सभी जिलों के जिलाधिकारियों तक नहीं पहुंचाया गया. राज्य सरकार अकसर मौसम विभाग की सूचनाओं की अनदेखी करती रही है.
आपदा की हालत पैदा होने पर राहत, बचाव और पुनर्वास का इंतजाम करने के लिए राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण एनडीएमए नाम की नोडल एजेंसी बनाई गई है. अगस्त 1999 में ओडिशा में आई विनाशकारी सूनामी ने करीब 10 हजार लोगों की जान ले ली थी और 2 लाख से ज्यादा लोग बेघर हो गए थे. उस सूनामी ने 20 लाख लोगों का जीवन अस्तव्यस्त कर डाला था. उस के बाद जनवरी 2001 में भुज में आए भूकंप ने 20 हजार लोगों को अपनी आगोश में ले लिया था और 1 लाख 67 हजार लोग बुरी तरह से जख्मी हो गए थे. 6 लाख से ज्यादा लोगों के घर बरबाद हो गए थे.
उसी समय सरकार को आपदाओं से निबटने के लिए एक अलग एजेंसी बनाने की जरूरत महसूस हुई और इतनी बड़ी तबाही के बाद भी एजेंसी को बनाने में सरकार ने 4 साल लगा दिए. साल 2005 में आखिरकार आपदा प्रबंधन अधिनियम बनाया गया.
क्या है अधिनियम
एक अनुमान के मुताबिक, हर साल अलगअलग तरह की आपदाओं में करीब 8 से 10 हजार करोड़ रुपए का माली नुकसान होता है. इस से निबटने के लिए केंद्र सरकार के आपदा प्रबंधन का बजट महज 65 करोड़ रुपए है, जिस का बड़ा हिस्सा तो प्रचार आदि में ही खर्च हो जाता है. 26 दिसंबर, 2005 में संसद ने आपदा प्रबंधन अधिनियम पास किया था और उस के बाद राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण का गठन किया गया था. उस में बीएसएफ, सीआरपीएफ, इंडोतिब्बत बौर्डर पुलिस और केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल की 2-2 बटालियनों को शामिल किया गया था. एक बटालियन में 1,149 कर्मचारी होते हैं. हर बटालियन में जवानों के साथ सहयोगी के तौर पर इंजीनियर, डाक्टर, बिजली तकनीशियन, अन्य सहयोगी व कुत्ते आदि शामिल होते हैं. सरकार 1954 से ही आपदाओं से निबटने के लिए तंत्र बनाने की कोशिश करती रही पर उसे आकार लेने में 50 साल लग गए. इसी से साबित हो जाता है कि हमारी सरकारें आपदाओं को ले कर कितनी गंभीर हैं.
जब भी कहीं बाढ़, भूकंप, भूस्खलन, बादल फटने की वजह से लोग मरतेचीखते रहते हैं तो वहां राहतबचाव की फाइलें विभाग दर विभाग चक्कर काटने लगती हैं. कैबिनेट सचिवालय, गृह मंत्रालय, राज्य के मुख्यमंत्री और आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के बीच फाइलें घूमने लगती हैं और इस चक्कर में कई लोगों की जानें चली जाती हैं.
राष्ट्रीय आपदा मोचन बल के महानिदेशक ओ पी सिंह का दावा है कि आपदा टीमें नावों, खाने के पैकेटों और दवाओं से लैस हैं. बिहार, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड और राजस्थान में ऐसी 56 टीमें काम कर रही हैं. बल के डीआईजी एस एस गुलेरिया पटना में कैंप किए हुए हैं. उन के मुताबिक, पहले ही दिन टीम ने बाढ़ में फंसे 26 हजार लोगों को सुरक्षित जगहों पर पहुंचाया और 9,100 लोगों को मैडिकल सुविधा मुहैया कराई है.
देश में हर 5 साल में बाढ़ 75 लाख हेक्टेयर जमीन खा जाती है और 1,600 जानें लील लेती है. पिछले 3 दशकों में दुनियाभर में 23 सब से बड़े समुद्री तूफान आए, जिन में से 21 की मार भारतीय उपमहाद्वीप ने भी झेली है. पिछले 18 सालों के दौरान देश ने 6 बड़े भूकंपों को झेला है जिन में 24 हजार से ज्यादा लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. ऐसे देश में आपदा प्रबंधन को ले कर कोई खास जागरूकता नहीं है, इसलिए आपदा से ज्यादा नुकसान आपदा के बाद राहत और बचाव की मुस्तैदी नहीं होने से ही होता है.
क्यों होती है देर
भारत के आपदा प्रबंधन में कुप्रबंधन इसलिए कायम है क्योंकि इस का एक सिरा कैबिनेट सचिव के हाथों में है तो दूसरा छोर गृहमंत्रालय के पास होता है. इतना ही नहीं, तीसरा कोना राज्यों के मुख्यमंत्री ने थाम रखा होता है जबकि चौथा सिरा आपदा प्रबंधन और पांचवा सेना ने थाम रखा होता है. इस वजह से हर विभाग खुद को बौस समझता है और दूसरे को छोटा साबित करने में लगा रहता है. इस से जिम्मेदारी को एकदूसरे के सिर पर टालने का ड्रामा भी खूब होता है.
30 जून, 2015 को पटना के फुलवारी शरीफ इलाके में 5 साल की मासूम बच्ची के बोरवैल में गिरने की घटना ने बिहार स्टेट डिजास्टर रेस्पौंस फोर्स की पोल खोल कर रख दी थी. सूचना के बाद भी फोर्स की टीम काफी देरी से घटनास्थल पर पहुंची. टीम पहुंची तो उसे औपरेशन शुरू करने में 2 घंटे का वक्त लग गया. बबीता की मां रोतेबिलखते खुद ही घंटों तक बोरवैल के आसपास से बालू हटाती रही और फोर्स के लोग वहां खड़े तमाशा देखते रहे.
गुजरात के भुज में साल 2001 में आए भीषण भूकंप के कुछ सालों के बाद गुजरात में ऐक्वा स्टिक लिसनिंग डिवाइस सिस्टम को इसराईल से खरीदा गया था. इस मशीन में इतनी ताकत है कि वह जमीन के 20 मीटर नीचे दबे किसी इंसान के दिल की धड़कन को सुन सकती है. वहीं, हाइड्रोलिक रैस्क्यू इक्विपमैंट को नीदरलैंड से मंगवाया गया था, इस से मजबूत से मजबूत फर्श या छत को फोड़ कर इंसान को बचाया जा सकता है. अमेरिका से लाइन थ्रोइंग गन को इसलिए खरीदा गया था कि उस से किसी ऊंची इमारत में फंसे आदमी तक रस्सा फेंक कर उसे बचाया जा सकता है. अल्ट्रा हाईप्रैशर फाइटिंग मशीन को भी खरीदा गया था. उस की खासीयत यह है कि वह आग बुझाने वाले आम उपकरण से 15 गुना कम पानी खर्च कर के भी पूरा काम कर देती है. ये सारे उपकरण कहां हैं और किस हालत में हैं, यह किसी, खासकर आपदा प्रबंधन विभाग को पता नहीं है. पिछले कुछ सालों के दौरान हुई आपदाओं में इन उपकरणों का कभी इस्तेमाल होते देखा ही नहीं गया.
रिटायर्ड डीजीपी डी पी ओझा कहते हैं कि आपदा को ले कर सरकार, प्रशासन और जनता के बीच जागरूकता नाम की कोई चीज नहीं है. न ही घटनास्थल तक तुरंत पहुंचने के लिए कोई ठोस उपाय है. आपदा के संभावित क्षेत्रों में लोगों को बचाव की तत्काल और बुनियादी बातों की जानकारी दे कर आपदा से होने वाले नुकसान को काफी हद तक कम किया जा सकता है. वहीं दूसरी ओर, आपदा प्रबंधन तंत्र ही खुद एक आपदा है. हम प्राकृतिक आपदाओं से निबटने में फिसड्डी रहे हैं. ऐसे में अगर आणविक या जैविक हमला जैसा कुछ हो जाए तो अंदाजा लगाया जा सकता है कि क्या होगा?
आपदा प्रबंधन : एक नजर
आपदा प्रबंधन में कुल 12 बटालियनें अभी काम कर रही हैं. इन की असम के गुवाहाटी, पश्चिम बंगाल के कोलकाता, ओडिशा के मुंडई, तमिलनाडु के अराकोणम, महाराष्ट्र के पुणे, गुजरात के गांधीनगर, उत्तर प्रदेश के वाराणसी और गाजियाबाद, पंजाब के भटिंडा, बिहार के पटना, आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा एवं अरुणाचल प्रदेश के इटानगर में तैनाती की गई है. आपदा प्रबंधन का दावा है कि उस ने आपदाओं के बीच से 1 लाख 33 हजार 192 मानव जीवन को बचाया है. 44 आपदा राहत टीमों को देश के 12 राज्यों में तैनात किया गया है. टीम का दावा है कि असम और बिहार में टीम ने बाढ़ में फंसे 2 हजार लोगों को बाहर निकाला है.
हम खुद न्योता देते हैं आपदाओं को
25 अगस्त की दोपहर को पटना के मुख्य इलाके में बने मौर्यालोक मार्केट कौंपलैक्स की एक दुकान में अचानक ही आग की लपटें उठनी शुरू हो गईं. आग और धुएं का गुबार देखते ही पूरी मार्केट में अफरातफरी मच गई. एक जूते की दुकान में भीषण आग लग गई थी. कई दुकानदारों ने अपनेअपने सीजफायर मशीनों से आग बुझाने की पुरजोर कोशिश की पर कामयाबी नहीं मिली. आग की लपटें तेज होती जा रही थीं. फायर ब्रिगेड को सूचना दी गई तो करीब 45 मिनट के बाद फायर ब्रिगेड की 3 गाडि़यां टनटन करती हुई पहुंचीं और आग पर काबू पाया गया. इतनी बड़ी मार्केट में आग बुझाने का सिस्टम फेल था.
आपदा को ले कर सरकार के साथसाथ आम जनता भी सर्तक नहीं है. सरकारी और प्राइवेट बहुमंजिली इमारतों, सरकारी दफ्तरों और स्कूलों में भूकंप व आगजनी जैसी आपदाओं से निबटने का कोई ठोस उपाय ही नहीं होता है. सरकारी अफसरों की जेबें गरम कर के तमाम कानूनों को धता बता कर आपदा प्रबंधन के नाम पर केवल कुछ खानापूर्ति कर के छोड़ दिया जाता है, जो आपदा के समय किसी काम के नहीं रहते हैं.
भूकंप के लिए काफी संवेदनशील माने जाने वाले दिल्ली के 28 नामी स्कूल आपदा प्रबंधन औडिट में फेल हो गए. सिस्मिक जोन में आने वाले इन स्कूलों की इमारतों को बनाने से पहले आपदा प्रबंधन का कोई खयाल ही नहीं रखा गया है. स्कूलों के संचालक भी आपदा प्रबंधन को ले कर अपनी आंखकान बंद किए हुए हैं. पिछले दिनों आपदा प्रबंधन विभाग ने दिल्ली के 63 में से 28 नामी स्कूलों का निरीक्षण किया तो किसी भी स्कूल में आपदा को ले कर बचाव के उपाय नहीं थे, खासकर आग से बचाव का तो कोई इंतजाम ही नहीं था.
आपदा और धर्म
इस में शक नहीं कि आपदा प्रबंधन के मामले में हमारा देश फिसड्डी है और लोगों ने कभी दूसरे कई मसलों को ले कर आपदाओं पर वैज्ञानिक तौर पर सोचने की जरूरत नहीं समझी. इस की एक वजह धर्म और उस के दुकानदार हैं जिन्होंने घुट्टी यह पिला रखी है कि आपदाएं ईश्वरीय नाराजगी या कहर हैं. इन से बचाता भी वही पालनतारणहार ही है. बड़ी प्राकृतिक आपदाओं की तो छोडि़ए, हालत यह है कि किसी को दिल का दौरा भी पड़ता है तो नजदीक खड़े चार लोगों में से दो ‘ऊपर वाले’ से बचाने की गुहार लगाते अपना शाश्वत निकम्मापन दिखाते हैं और दो तुलसी की पत्तियां व गंगाजल लेने को दौड़ पड़ते हैं. ये 5-10 मिनट बड़े कीमती हैं जिन में समझदारी दिखाते मरीज को तुरंत अस्पताल ले जा कर चिकित्सकीय मदद दिलाई जाए तो बचने की संभावनाएं 80 फीसदी बढ़ जाती हैं.
बड़ी आपदाओं की तरफ से हर स्तर पर लापरवाही इसी मानसिकता की देन है. इस के तहत बाढ़, भूकंप, सुनामी वगैरा भगवान लाता है और पूजापाठ करने से उस का गुस्सा कम हो जाता है और फिर आपदा अपने पैर वापस खींच लेती है. धर्मग्रंथ ऐसे चमत्कारी किस्सेकहानियों से भरे पड़े हैं जो आम लोगों को मरने की हद तक भाग्यवादी बनाते हैं. भाग्यवादियों का यह समाज आपदा प्रबंधन को ले कर कभी सरकार पर दबाव नहीं बना पाया और हालत यही रही तो बना भी नहीं पाएगा. यह बात तो और तरस खाने वाली है कि अकसर जिन आपदाग्रस्त लोगों को सेना या किसी दूसरी सरकारी एजेंसी के कर्मचारी बचाते हैं, बचने वाला, बिना उन की तरफ देखे, प्रसाद ले कर सीधे मंदिर की तरफ भागता है, भगवान को धन्यवाद देता है यानी बच गए तो ऊपर वाले की कृपा थी और मर जाते तो यह भी ऊपर वाले की इच्छा होती . तमाम पंडेपुजारी इसी दिमागी दिवालिएपन की खा रहे हैं जिन्हें हर हाल में दक्षिणा मिलनी तय रहती है. ‘ओ माई गौड’ फिल्म में इसी मामूली से सवाल को तर्कपूर्ण ढंग से अभिनेता परेश रावल के जरिए उठाया गया तो धर्म के ठेकेदारों के माथे ठनके थे. जो समाज आपदाओं को ले कर धर्मभीरू और अंधविश्वासी हो, उस का तो वाकई ऊपर वाला ही, कहीं हो तो, मालिक है. ऐसे में सरकारें भी आपदाओं को ले कर गंभीर नहीं होतीं, तो हैरानी किस बात की.