भारत में पति को परमेश्वर माना जाता है, इस बात की पुष्टि अब सरकार ने भी कर दी है. हाल ही में राज्यसभा में मैरिटल रेप यानि शादीशुदा रेप के बारे में एक सवाल के जवाब में सरकार ने कहा था कि भारत में मैरिटल रेप की अवधारणा को लागू नहीं किया जा सकता है और सरकार का इसे अपराधों की श्रेणी में लाने का कोई इरादा नहीं है.

महिला एंव बाल विकास मंत्री मेनका गांधी ने राज्यसभा में कहा कि भले ही पश्चिमी देशों में मैरिटल रेप की अवधारणा प्रचलित हो लेकिन भारत में गरीबी, शिक्षा के स्तर और धार्मिक मान्यताओं के कारण शादीशुदा रेप की अवधारणा फिट नहीं बैठती, इसलिए इसे भारत में लागू नहीं किया जा सकता है. ऐसे में सवाल ये उठता है कि एक तरफ तो सरकारें रेप के खिलाफ कड़े कानून बनाने के लिए कमर कसे हुए हैं तो वहीं दूसरी और घर की चाहरदीवारी में किसी अपने द्वारा किए जाने वाले रेप के प्रति सरकार उदासीन क्यों बनीं हुई है? आखिर क्यों सरकार पतियों द्वारा की जाने वाली घरेलू यौन हिंसा को अपराध मानने को तैयार नहीं है?

पति परमेश्वर रेप नहीं करते? भले ही इस देश में सदियों से पतियों को परमेश्वर मानने की धारणा प्रचलित रही हो लेकिन व्यवहारिक तौर पर ये बात पूरी तरह सच नहीं है. बल्कि इससे सिर्फ महिला-पुरुष असमानता को बढ़ावा देने और पुरुष प्रधान समाज द्वारा महिलाओं को दोयम दर्जे का शामिल करने की कोशिशें दिखती हैं. खैर, सरकार इस बात से इत्तेफाक नहीं रखती और इसलिए उसने भारत में शादीशुदा रेप की अवधारणा को मानने से इनकार कर दिया.

सरकार भले ही देश में शादीशुदा रेप की बात से इनकार करके अपना पल्ला झाड़ ले लेकिन इस देश में हर दिन होने वाले वैवाहिक रेप की हकीकत को छुपा पाना उसके वश की बात नहीं है. ऐसा भारत की एजेंसियां नहीं बल्कि खुद संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट कहती है, जिसके मुताबिक भारत में हर वर्ष शादीशुदा रेप के करीब 75 फीसदी मामले होते हैं.

सरकार शादी के जिस रिश्ते को पवित्र करार दे रही है, उसी की आड़ में घर की चाहरदीवारी के अंदर पत्नी के साथ होने वाले रेप के इतने बड़े आकंड़ें सच में डराने वाले हैं. लेकिन हैरानी की बात ये है कि यूएन द्वारा भारत को मैरिटल रेप को क्रिमिनल कैटिगरी में शामिल किए जाने की सलाह के बावजूद सरकार का रवैया जस का तस है. हमारे देश का कानून और संविधान दोनों ही इस मामले में महिलाओं की मदद करने के नाम पर हाथ खड़े कर देते है.

संविधान की धारा 375 अपवाद (2) के मुताबिक, 'किसी आदमी द्वारा अपनी पत्नी, पत्नी के 15 से कम उम्र की न होने पर, के साथ बनाया गया सेक्शुअल इंटरकोर्स रेप नहीं है.' संविधान की इस धारा को लेकर काफी विवाद है और इसे हटाए जाने की मांग उठ रही है. यह बड़ी अजीब बात है कि जिस देश में लड़की की शादी की उम्र 18 साल है और जहां नाबालिग लड़की द्वारा उसकी सहमति होने पर भी बनाया गया संबंध रेप की श्रेणी में आता है, उसी देश में शादी के नाम पर किसी पुरुष को अपनी नाबालिग पत्नी के साथ यौन संबंध बनाने की इजाजत कानून क्यों और कैसे देता है, क्या यह कानून का दोहरा रवैया नहीं है?

पिछले साल अप्रैल में मैरिटल रेप के मामले में राज्यसभा में एक सांसद द्वारा दिए गए आंकड़ें चौंकाने वाला सच सामने लाते हैं. इसके मुताबिक देश के 5 में से एक पुरुष अपनी पत्नी को जबरन सेक्स के लिए मजबूर करते हैं और देश में कुल रेप में से करीब 9-15 फीसदी मैरिटल रेप के कारण होते हैं.

हाल ही में इस मामले में इंदिरा जयसिंह द्वारा दाखिल की गई रिपोर्ट में मैरिटल रेप के अपराधीकरण की सिफारिश की है. इतना ही नहीं जस्टिस वर्मा आयोग द्वारा मैरिटल रेप को अपराधों की श्रेणी में शामिल किए जाने की सिफारिशों के बावजूद सरकार ने इस मामले में अपना रुख नहीं बदला है. यानी सरकार चाहे यूपीए की हो या एनडीए की, मैरिटल रेप से निजात दिलाने में महिलाओं की मदद करने वाला कोई नहीं है.

मतलब आने वाले दिनों में भी शादी की पवित्रता के नाम पर पतियों द्वारा किया जाने वाला रेप पवित्र ही बना रहेगा!

दरअसल बलात्कार पितृसत्तात्मक उत्पीड़न और शोषण की निशानी है और यहीं ये सवाल भी उठता है कि क्या सेक्सुअलिटी की मुक्ति और औपचारिक विवाह संबंधों से आजादी से महिलाओं की आजादी संभव है. लेकिन वैवाहिक बलात्कार से पहले विवाह नामक संस्था पर बहस जरूरी है. आधुनिक आर्थिक और पेशेवर जीवन के दबाव ने नौजवान महिलाओं और पुरूषों को ये अधिकार दिया है कि वो सहजीवन या लिव इन रिलेशनशिप में रह सकते हैं. केवल समान रूप से आजाद महिला और पुरूष ही एक गैर दमनकारी और मुक्त यौन संबंधों का आधार बना सकते हैं. सवाल ये है कि इसे कैसे हासिल किया जाए. क्या सिर्फ राजनैतिक प्रस्ताव या कानून बना देने से ये संभव हो जाएगा. इसका एक ही जवाब हो सकता है- नहीं.

इसके लिये राजनैतिक प्रस्तावों या कानून से ज्यादा जरूरी है महिला सशक्तिकरण. जब एक महिला वैवाहिक जीवन में यौन संबंधों को स्वीकारती है तो वो समाज में स्वीकृत है भले ही वो अनिच्छा और अनमने ढंग से ऐसा कर रही हो. लेकिन अगर वो विवाह संबंधों के बाहर जाकर ऐसा करने का प्रयास करती है तो इसे अनैतिक और अपराध माना जाता है. ये सामंतवादी नजरिया है जो स्त्री को संपत्ति की दृष्टि से देखता है. हमें ये समझना होगा कि समाज में व्याप्त इस सामंतवादी पुरातनपंथी नजरिये को एक झटके में नहीं बदला जा सकता है.

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