लेखक: सुमन कुमार सिंह

सोदबी की नीलामी में भारतीय समकालीन कलाकार भूपेन खाखर की कृति ‘टू मेन इन बनारस’ को 25.4 लाख पाउंड यानी लगभग 32 लाख डौलर या कहें

24 करोड़ रुपए से ज्यादा मिले हैं. नीलामी की शुरुआत में यह अनुमान लगाया गया था कि इस कृति को लगभग 45 से 60 हजार पाउंड मिल सकते हैं, जिसे बड़ी रकम माना जा रहा था. इस लिहाज से देखें तो जो रकम आखिरकार मिली वह छप्पर फाड़ अंदाज में मिली.

इस रकम ने कला की दुनिया को चौंका दिया है. वर्ष 1986 में मुंबई में आयोजित अपनी प्रदर्शनी में जब पहली बार भूपेन ने अपनी इस कृति को दर्शकों व कलाप्रेमियों के सामने पेश किया था, तब उन के समलैंगिक होने की बात भी सामने आई थी. देखा जाए तो इस तरह से भूपेन पहले और इकलौते भारतीय कलाकार रहे जिन्होंने अपने यौन रुझान को सार्वजनिक किया.

सोदबी ने बताया कि कलाकार की श्रेष्ठ कृतियों में शुमार इस पेंटिंग को टेट मौडर्न द्वारा आयोजित ‘यू कैन नौट प्लीज औल’ नामक प्रदर्शनी में वर्ष 2016 में प्रदर्शित किया गया था.

विदित हो कि इस संस्थान में आयोजित इस कलाकार की यह पहली पुनरावलोकन यानी रेट्रोस्पेक्टिव प्रदर्शनी थी. अपने समलैंगिक होने के खुलासे के बाद भूपेन को किस तरह की आलोचनाओं का सामना करना पड़ा होगा, इस की एक बानगी हमें मिलती है.

वरिष्ठ कला समीक्षक विनोद भारद्वाज के इन शब्दों में, ‘उस साल ज्यूरी में फिल्मकार अरुण खोपकर और इन पंक्तियों के लेखक ने जब भूपेन खाखर का नाम कालिदास सम्मान के लिए प्रस्तावित किया तो एक सदस्य ने कहा कि भूपेन समलिंगी हैं. उन्हें यह सम्मान देने से विवाद खड़ा हो जाएगा.’

काफी बहस के बाद भूपेन को यह सम्मान दिया जा सका. भूपेन यह स्वीकार कर चुके हैं कि अपने समलिंगी होने को वे लंबे समय तक मित्रों से भी छिपाते रहे. उन की कलाकृतियों में भी एक बड़ा बदलाव आया. समलिंगी अभिव्यक्ति ने पेंटिंग को एक नई भाषा दी और फैंटेसी को जन्म दिया. एक ऐसा दरवाजा खुला जिसे भारतीय जीवन में आज भी बंद कमरे में ही रखा जाता है. जाहिर है कि कुछ कलाप्रेमियों के लिए यह अनुभव शौकिंग था. वैसे, अपने यहां कला में समलिंगी संबंधों की अभिव्यक्ति की जब हम बात करते हैं तो सामान्य प्रतिक्रिया तो यही आती है कि यह सब पश्चिमी सभ्यता की देन है.

देखा जाए तो एक हद तक यह सही भी मान सकते हैं, किंतु हमें यहां यह भी जानना होगा कि कब, कहां इस तरह की अभिव्यक्ति हमारे यहां यानी भारतीय व एशियाई कला में भी रही है. ग्रीक सभ्यता की बात करें तो वहां किसी उम्रदराज पुरुष द्वारा कम उम्र के युवा के साथ इस तरह के संबंधों का जिक्र आता है. यहां तक कि सिकंदर महान के भी इस तरह के संबंध की बात इतिहास में दर्ज है. वहीं, देवताओं की बात करें तो जीसस द्वारा एक युवा लड़के गनीमेडे का पीछा किए जाने का जिक्र आता है, जबकि अपोलो के हयसिंथ के साथ समलिंगी संबंध की बात आती है. यहां तक कि पौराणिक मूर्तिशिल्पों और पौटरी में इसे अंकित भी किया गया है. रोमन सभ्यता भी इस अंकन से अछूती नहीं है.

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प्रेम संबंधों का दृश्य

महान योद्धा हरक्यूलिस और इओलोस के प्रेम संबंधों को दर्शाते दृश्यों का अंकन भी यहां के मूर्तिशिल्प और पौटरी में मिलता है. माया सभ्यता के चित्रांकनों में भी इस विषय पर केंद्रित रूपायन मिलता है. अपने एशियाई जगत की बात करें तो चीन में तो समलिंगी विषयों पर आधारित चित्रों का लगभग 2,000 साल पुराना प्रमाण मिलता है. समझा जाता है कि यह परंपरा 14वीं सदी तक न केवल जारी रही, बल्कि इन चित्रों पर कलाकार ने अपने हस्ताक्षर भी किए हैं. इस से यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि इस तरह के चित्रों को बनाने और उस के साथ अपना परिचय भी जाहिर करने का रिवाज रहा होगा यानी इस के लिए किसी तरह की सामाजिक वर्जना नहीं थी.

जापान के समुराई योद्धाओं की परंपरा से हम सभी भलीभांति वाकिफ हैं. इन समुराई योद्धाओं में भी बुजुर्गों का युवाओं के साथ समलिंगी संबंधों का होना सामान्य बात समझी जाती थी. इन भावनात्मक संबंधों को केंद्र में रख कर न केवल चित्रों की रचनाएं की गई हैं, बल्कि कविताएं भी लिखी गई हैं.

दक्षिण अफ्रीका की बात करें तो इस समाज में तो समलिंगी संबंधों को दर्शाने वाले चित्र बड़ी संख्या में पाए जाते थे. जहां तक कि औपनिवेशिक दौर में जब यूरोप का प्रभुत्व यहां कायम हुआ, तब खोजखोज कर इस तरह के चित्रों को नष्ट करने का अभियान तक चलाया गया. विदित हो कि एड्स जैसी जानलेवा बीमारियों के इस क्षेत्र में फैलाव के लिए भी इसी समलैंगिकता को जिम्मेदार माना जा रहा है. यह अलग बात है कि इस के बाद से यहां का समाज इस से अपने को मुक्त करने में जीजान से जुटा हुआ है.

यह भी एक सच है कि किसी समय में इसे एक तरह की सामाजिक स्वीकार्यता प्राप्त थी. वैसे, कला की दुनिया की बात करें तो यूरोपीय कला के पुनर्जागरण काल के महत्त्वपूर्ण कलाकार माइकल एंजेलो द्वारा चित्रित सिस्टीन चैपल के भित्ति चित्रों में भी नग्न पुरुष आकृतियों का अंकन मिला है. यही नहीं, अपने समलिंगी संबंधों के कारण उन्हें समाज के बड़े वर्ग की आलोचना भी झेलनी पड़ी थी.

माना तो यहां तक जाता है कि मौडल के तौर पर भी माइकल एंजेलो अधिकतर पुरुषों को ही चुनते थे. जब उन्हें महिला मौडल की आवश्यकता होती थी तब भी उन की प्राथमिकता पुरुष ही रहते थे.

अमेरिकी आधुनिक कला जगत की बात करें तो पहलेपहल 1960 के दौर में उन साहित्यिक पत्रिकाओं और पुस्तकों में समलिंगी चित्रों को जगह मिली जिसे हम पल्प फिक्शन या रद्दी साहित्य कहते हैं. महिलाओं के लिए तो लंबे समय तक समलैंगिकता के बारे में जानकारी के लिए यह एकमात्र जरिया समझा जाता था. कहना न होगा कि शुरुआती दौर में इसे ही पौप कल्चर के नाम से चिह्नित किया गया और कला में पौप आर्ट जैसे शब्द भी यहीं से आए.

कला में आज हम जिस न्यू मीडिया की बात करते हैं उस के जनक के तौर पर माने जाने वाले एंडी वारहोल जहां पुरुषों के नग्न और कामुक छायाचित्रों के लिए जाने जाते रहे, वहीं उन्हें समलैंगिकों की दुनिया का छिपा रुस्तम भी माना जाता रहा.

अब बात अगर भारतीय संदर्भ की करें तो मुगलकालीन लघुचित्र शैली के चित्रों में भी इस विषय का अंकन देखने को मिलता है. वहीं मध्यकाल की सूफी परंपरा में भी अपने आराध्य को प्रेमी के तौर पर देखने और स्वयं को बतौर प्रेमिका प्रस्तुत करने का भाव देखा जाता रहा है. यही नहीं, पुरुषों के सामूहिक स्नानघरों में सेवक के तौर पर कमसिन लड़कों द्वारा अपने ग्राहकों को खास तरह की संतुष्टि प्रदान करने वाली सेवा का जिक्र भी मिलता है.

ऐसे में यह भले ही बहस का विषय आगे भी बना रहे कि समलैंगिकता की प्रवृत्ति मानव समाज के लिए स्वीकार्य रहे या नहीं, किंतु चूंकि समाज में इस का चलन रहा है या कहा जाए कि मानव में यह प्रवृत्ति रही है तो कला में उस का

अंकन या अभिव्यक्ति को एक बहुत ही स्वाभाविक और सामान्य बात समझा जाना चाहिए.  आखिरकार कला और साहित्य समाज का आईना ही तो होते हैं और आईने में अगर हमारा अक्स हमें दिखे तो हमें चाहेअनचाहे उसे स्वीकारना ही होगा.

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(लेखक पटना कला महाविद्यालय के पूर्व छात्र तथा कला समीक्षक हैं)    

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