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जीवन सरिता : मानवीय जज्बा जरूरी

शिक्षा के लिए समर्पित लखनऊ विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र विभाग के पूर्व प्रमुख डा. जगमोहन सिंह  वर्मा (72) का मृत शरीर अब मैडिकल स्टूडैंट्स के काम आएगा. प्रो. जगमोहन सिंह का निधन 30 जनवरी, 2017 को सुबह हो गया. पत्नी कुसुम लता सिंह ने बताया कि डा. जगमोहन सिंह ने 31 अगस्त, 2016 को देहदान के लिए पंजीकरण कराया था.

उन की आखिरी इच्छा थी कि जो शरीर जिंदगीभर घरपरिवार और बच्चों को शिक्षित करने के काम आया, वह प्राण त्यागने के बाद मैडिकल छात्रों के काम आ सके, ताकि वे कुछ नया सीख सकें. मरणोपरांत नेत्रदान तथा देहदान का संकल्प होना चाहिए. किसी के काम जो आए उसे इंसान कहते हैं, पराया दर्द जो अपनाए उसे इंसान कहते हैं.

परोपकार की भावना

डा. शिवशंकर प्रसाद पिछले करीब 30 सालों से गरीब और जरूरतमंद लोगों का केवल 10 रुपए की फीस ले कर इलाज कर रहे हैं. बिहार के नालंदा जिले में चल रहा उन का सुहागी क्लिनिक गरीब मरीजों के लिए अंतिम उम्मीद बन गया है. उन्होंने वर्ष 1986 में एमबीबीएस की पढ़ाई पूरी करने के बाद सुहागी क्लिनिक नाम से एक अस्पताल शुरू किया. ऐसा करने के पीछे उन का व्यक्तिगत दुख छिपा हुआ है. जब उन की उम्र महज 1 साल थी, तब मां का निधन हो गया था. उन की मां को टिटनैस हो गया था. पैसे की कमी के कारण उन की मां का इलाज नहीं हो सका था और उन की मृत्यु हो गई. पिताजी से जब यह बात उन को पता चली तो बचपन में ही उन्होंने ठान लिया था कि उन्हें डाक्टर बनना है. उन्होंने यह भी फैसला किया कि डाक्टर बनने के बाद वे किसी गरीब को पैसे की कमी के कारण मरने नहीं देंगे.

गुजरात के शुष्क बनासकांठा जिले के एक विकलांग किसान ने अनार की अच्छी पैदावार कर अन्य लोगों को अपनी जमीन का सर्वश्रेष्ठ उपयोग करने के लिए प्रेरित किया है. लखानी तालुका में गोलिया गांव के अनार किसान गेनाभाई पटेल के दोनों पैर पोलियोग्रस्त हैं. लेकिन इसे उन्होंने अपने लिए बाधा नहीं बनने दिया. उलटे, उन्होंने अपने लिए बाधा इस अतिशुष्क और अनावृष्टि वाले क्षेत्र में अनार के बागान लगा कर ड्रिप सिंचाई वाली कृषि पद्धतियों का प्रयोग किया. कई किसानों ने उन का अनुसरण किया और आज ये सारे किसान नई कृषि पद्धति से मुनाफा कमा रहे हैं. करीब 70 हजार किसानों ने उन की इस सफलता को दोहराने के लिए पटेल के बागान का दौरा किया.

सार्थक प्रयास

टोक्यो में आयोजित होने वाले 2020 ओलिंपिक और पैरालिंपिक खेलों के मैडल देश के आम नागरिकों के फोन से तैयार किए जाएंगे. जापान सरकार ने इस के लिए तैयारियां भी शुरू कर दी हैं. जापान सरकार ने जापान ओलिंपिक प्रबंधन समिति की सिफारिशों को मान लिया है.

देश के हर सरकारी दफ्तर और फोन की दुकानों पर डब्बे रखे जाएंगे. हर नागरिक इन में इच्छा से खराब और पुराने फोन तथा पुराने बिजली के उपकरण जमा करा सकेंगे. स्मार्टफोन के अंदर कई खनिज पदार्थ होते हैं. इन खनिज पदार्थों को रिसाइकिल कर उन से 5,000 ओलिंपिक मैडल तैयार किए जाएंगे. इस प्रयास से मैडल की लागत कम होगी. जापान सरकार ने पर्यावरण सुरक्षा की दृष्टि से यह कदम उठाया है. रोजर फेडरर टैनिस खिलाड़ी का व्यक्तित्व सिर्फ उन के खेल में ही नहीं उभरता. टैनिस कोर्ट के बाहर जो फेडरर हैं, वही उन के खेल को महानतम और उन्हें अनुकरणीय बनाता है. फेडरर को हार या जीत से ज्यादा खेलते रहने से प्रेम रहा है.

जीवन में अकसर ऐसा ही होता है. जीतने वाले को जगभलाई मिलती है और हारने वाले को केवल गुमनामी या उदासी ही सहारा रहता है. लेकिन कुछ ऐसे विरले होते हैं जिन के लिए हार या जीत का अंतर नाममात्र रहता है. वे जीत कर भी हार को देखते, समझते हैं और हार में भी जीतना जानते हैं. उन के लिए खेलना ही महत्त्वपूर्ण रहता है. टैनिस खिलाड़ी रोजर फेडरर ऐसे ही व्यक्तित्व हैं. आमिर खान की फिल्म ‘दंगल’ जहां दर्शकों का दिल जीतने में कामयाब रही, वहीं कमाई के मामले में उस ने नया कीर्तिमान स्थापित किया है. बौक्स औफिस पर ‘दंगल’ से लगभग 400 करोड़ रुपए से भी ज्यादा की कमाई हुई है. वहीं, 2014 में आई आमिर की ‘पीके’ पहली फिल्म थी जिस ने कमाई में 300 करोड़ रुपए की कमाई का आंकड़ा पार किया था. अब लोग मारधाड़ तथा सैक्स से भरी फिल्मों को नकार रहे हैं. वे संदेशपरक, सफल व्यक्तित्व तथा सच्ची कहानियों पर आधारित फिल्मों को देखना चाहते हैं.

लखनऊ के मोहन रोड स्थित राजकीय संप्रेक्षणगृह में जघन्य अपराधों के आरोपों में लाए गए किशोर पिछले 2 वर्षों से संस्था में चल रही ट्रेनिंग के जरिए डिजिटल दुनिया में अपनी पैठ मजबूत कर चुके हैं. यही वजह है कि संस्था से निकले कई किशोर आज डिजिटल बिजनैस कर रहे हैं. सरकार ब्रेनड्रेन के चलते विदेशों में बस गए युवा भारतीय प्रतिभाओं को वापस लाने के लिए एक नया कार्यक्रम शुरू करने जा रही है. विदेशों में शोधकार्य में लगे प्रतिभाशाली वैज्ञानिकों को आईआईटी में शिक्षक के रूप में नियुक्त किया जाएगा. आईआईटी के विशेषज्ञों की टीम अमेरिका, ब्रिटेन, जापान समेत तमाम देशों में जा कर साक्षात्कार की प्रक्रिया वहीं पूरी करेगी. चुने गए उम्मीदवारों को तुरंत नियुक्ति दी जाएगी. देश की प्रतिभाओं को देश में लाने की यह अच्छी पहल है. एक इंजीनियर तथा डाक्टर बनाने में देश का काफी संसाधन खर्च होता है. पहले अपने देश को रोगमुक्त तथा गरीबीमुक्त बनाना हमारा लक्ष्य होना चाहिए.  

कार पर तकरार

कारें एक बार फिर चर्चा में हैं. देश की राजधानी दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनाट प्लेस में कारों की आवाजाही पर रोक लगाए जाने की योजना बनाई जा रही है. फिलहाल 3 महीने के एक पायलट प्रोजैक्ट के तहत इस के भीतरी सर्कल को सिर्फ पैदल यात्रियों के लिए आरक्षित कर दिया जाएगा. केंद्रीय ट्रांसपोर्ट मंत्री नितिन गडकरी ने कहा है कि सरकार कारों की बेलगाम खरीद पर रोक लगाने पर विचार कर रही है. सैद्धांतिक रूप से इस पर सहमति भी बन चुकी है कि अब सिर्फ वही लोग कार खरीद पाएं, जिन के घर या सोसायटी में कार पार्क करने की एक सुनिश्चित जगह हो. इस में कोई शक नहीं है कि देश में कारों की संख्या लगातार बढ़ रही है, जबकि सड़कों पर उन्हें समाने की जगह पर्याप्त नहीं है. देश में कारें बढ़ी हैं, पर वे जरूरत हैं या शौक, इस का खुलासा आयकर विभाग के एक आंकड़े से हो रहा है.

आयकर विभाग ने बीते 5 वर्षों के आंकड़ों के आधार पर दावा किया है कि देश में सिर्फ 24.4 लाख करदाताओं ने अपनी सालाना आय 10 लाख रुपए से ज्यादा बताई है, जबकि हर साल यहां 25 लाख कारें खरीदी जा रही हैं. खास बात यह है कि इन में से करीब 35 हजार कारें लग्जरी गाडि़यों में आती हैं जिन की कीमत 10 लाख रुपए से ज्यादा होती है. सवाल यह उठाया गया है कि जब आमदनी नहीं है तो महंगी कारें खरीदने वाले लोग आखिर कौन हैं? जाहिर है कि रिटर्न यानी आयकर विवरणी दाखिल करने वालों में से बहुत से लोग ऐसे हैं जिन की वास्तविक आय कहीं ज्यादा है, लेकिन उन्होंने खुद को टैक्स के दायरे से बाहर रखने के कानूनीगैरकानूनी उपाय कर रखे हैं. मसला भले ही टैक्स चोरी का है, लेकिन ऐशोआराम की जिस चीज यानी लग्जरी कारों के संदर्भ से ये आंकड़े उजागर किए गए हैं, उन से एक बार फिर कारों की जरूरत पर सवाल उठना लाजिमी है.

लाचारी नहीं, समझदारी भी

कारों को विलेन बनानेबताने की कोशिशों के बीच यह जानना जरूरी है कि आखिर शहरों में कार को किस बात ने जरूरी बनाया है. इस की पहली जिम्मेदारी तो असल में लचर सार्वजनिक परिवहन प्रणाली पर जाती है जिस के बारे में सरकारों ने लगातार कोताही बरती और तेल व कार कंपनियों को फायदा पहुंचाने की नीयत से कारखरीद को प्रोत्साहित करने वाली नीतियां बनाईं.

लगातार फैलते दिल्ली, मुंबई जैसे शहरों के एक आम निवासी की नजर से देखें तो समझ में आएगा कि आखिर क्यों वह कार खरीदने और उसे बरतने के लिए मजबूर हुआ है.

पहला उदाहरण दिल्ली का लें, यहां नौकरी करने या बिजनैस करने का यह मतलब नहीं है कि आप शहर के उन हिस्सों में रहते हों जहां मैट्रो रेल उपलब्ध है या डीटीसी की सेवाएं हर वक्त हाजिर हैं. भले ही दिल्ली मैट्रो का दायरा आज सैकड़ों किलोमीटर तक फैल गया है, लेकिन आज भी हजारोंलाखों नौकरीपेशा लोग कहीं भी आनेजाने के लिए या तो डीटीसी बसों पर निर्भर हैं या फिर आटो टैक्सी पर.

बसों का विकल्प देखें तो साढ़े 3 हजार बसों के बेड़े में से औसतन दो से ढाई हजार बसें ही रोज मुहैया हो पाती हैं. बाकी खराबी या मेंटिनैंस की समस्या से जूझ रही होती हैं. इस शहर की विशालकाय आबादी की जरूरतों के मुताबिक ये बसें पर्याप्त नहीं हैं. इस के अलावा उत्तम नगर, नरेला, लोनी रोड जैसे कई इलाकों में बसें तो गिनती की ही चलती हैं.

यही नहीं, यदि आप एनसीआर यानी राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र के निवासी हैं, तो वहां आलम यह है कि डीटीसी की बसें मुहैया ही नहीं हैं. मिसाल के तौर पर, ग्रेटर नोएडा इसी एनसीआर का अहम हिस्सा है, पर कुछ वर्षों तक नाममात्र का संचालन करने के बाद डीटीसी ने वहां अपनी बसों का परिचालन रोक दिया था. इस का जिम्मा जिस यूपी रोडवेज पर है, उस की बसें रात 8 बजे के बाद ऐसे लापता हो जाती हैं, मानो उन की मौजूदगी की कोई जरूरत ही नहीं है. जबकि दिल्ली स्थित दफ्तरों और कार्यस्थलों से घरों को लौटने वाले लोगों को इसी वक्त एक मजबूत सार्वजनिक परिवहन की जरूरत होती है. इधर, दिल्ली मैट्रो से जोड़ कर एनएमआरसी (नोएडा मैट्रो रेल कौर्पोरेशन) ने नई कंपनी के तहत बसें चलानी शुरू की हैं, पर वे गिनती की हैं और उन की विश्वसनीयता संदिग्ध है.

समझा जा सकता है कि दिल्ली के दूरदराज और एनसीआर के किसी भी हिस्से में रहने वाले शख्स को अगर जरूरत के वक्त मैट्रो तो क्या, पब्लिक ट्रांसपोर्ट के रूप में भी बसें भी नहीं मिलेंगी, तो वह क्या करेगा? जाहिर है कि रोज दफ्तर आनेजाने के लिए वह ओला या उबर जैसी प्राइवेट टैक्सी के लिए न्यूनतम 4-5 सौ रुपए प्रतिदिन खर्च करने के बजाय कार खरीदने की समझदारी ही दिखाएगा.

कार : एक जरूरी कमोडिटी

आज की नौजवान पीढ़ी कारों को एक जरूरी कमोडिटी मानती है. इस के पीछे कार से मिलने वाली सुविधाएं ही अहम हैं. आज के युवा कहीं आनेजाने के लिए बसों, मैट्रो या आटो टैक्सी पर निर्भर नहीं रहना चाहते, बल्कि वे निजी ट्रांसपोर्ट केहिमायती हैं. इस के अलावा देश में मौसम की विविधता के मद्देनजर भी कारों की जरूरत को समझा जाना चाहिए. कभी तेज धूप, गरमी, धूल, कभी बरसात और कड़ाके की ठंड. ऐसे में एक छत के साथ एयरकंडीशंड वाहन बहुत जरूरी लगता है. जिन मुल्कों में ज्यादा बर्फबारी होती है, वहां तो कार के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती. इसी तरह भारत में भी कई इलाके ऐसे हैं जहां कारें मौसम की मार से बचाने के तर्क के साथ जरूरी लगती हैं.

यही नहीं, हमारे देश में बहुत से बिजनैस और नौकरियों में संपर्क व आवागमन का सिलसिला इतना ज्यादा बढ़ा है कि उस के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट पर आश्रित हो कर नहीं रहा जा सकता. इन्हीं वजहों से कभी मारुति ने हमारी सोसायटी के इस सपने के साथ कदमताल की थी, पर अब इस सपने का दायरा और बढ़ चुका है. लोगों की इस फिक्र से असहमत नहीं हुआ जा सकता कि छोटी और सस्ती कारों के आ जाने से ट्रैफिक जाम और प्रदूषण आदि की समस्याओं में इजाफा हुआ है, पर भारत में कम ईंधन खपत करने वाली और कम प्रदूषण फैलाने वाली कारों का अभी भी काफी स्कोप है

आंकड़ों में देखें तो देश में कारों की खपत बढ़ रही है. फिर भी दावा किया जाता है कि भारत में अभी उतनी कारें नहीं हैं, जितनी विदेशों में, यहां तक कि पड़ोसी मुल्कों में. वर्ष 2009 के आंकड़ों के मुताबिक, देश में अभी प्रति हजार लोगों पर 14 कारें हैं. जबकि पाकिस्तान में यह आंकड़ा 19, श्रीलंका में 28, सिंगापुर में 68, यूरोप में 500-1000 और अमेरिका में 740 है. माना जा सकता है कि कारों के मामले में हम अभी बहुत पीछे हैं. लेकिन हमारे शहरों का आबादी घनत्व काफी ज्यादा है, इसलिए दिल्ली-मुंबई हो या कानपुर-अहमदाबाद, सड़कों पर कारों की भीड़ दूसरे देशों के मुकाबले काफी ज्यादा बैठती है. पब्लिक ट्रांसपोर्ट की खामी जैसी मजबूरियां कारों की मांग पैदा कर रही हैं, जिस का नतीजा यह निकला है कि कारों के निर्माण के मामले में भारत दुनिया का छठा सब से बड़ा मुल्क बन चुका है.

वर्ष 2011 में भारत में 39 लाख कारों का निर्माण हुआ और इस ने ब्राजील को पीछे छोड़ दिया. एशिया के पैमाने पर वर्ष 2009 में जापान, दक्षिण कोरिया और थाईलैंड के बाद भारत चौथा सब से बड़ा कार निर्यातक देश था और अगले 2 वर्षों में इस ने थाईलैंड को पीछे छोड़ते हुए 2010 में तीसरा स्थान हासिल कर लिया. वर्ष 2010 के आंकड़ों के हिसाब से भारत में कुल मिला कर 39 लाख कारों का सालाना उत्पादन होता है और चीन के बाद दुनिया में सब से तेज बढ़ता आटो सैक्टर भारत में ही है.

कारें विलेन क्यों बनीं

कोई शक नहीं कि कार बाजार की बदौलत देश की अर्थव्यवस्था में हलचल पैदा हुई है और हजारोंलाखों नए रोजगार भी पैदा हुए हैं. इसी तरह मध्यवर्ग के लिए भी सस्ती और छोटी कारों का जो सपना देखा गया, उस ने भी कुछ लाख लोगों की जिंदगी में क्रांतिकारी तबदीली की. लेकिन एक तरफ यही कारें पर्यावरण की शत्रु साबित हुई हैं और दूसरी तरफ दावा किया जाता है कि ये उस ट्रैफिक समस्या का कोई खास विकल्प नहीं बन पाई हैं, जिस के हल के रूप में उन्हें पेश किया गया था. अलबत्ता ज्यादातर परिवारों के लिए महंगी से महंगी कारें स्टेटस सिंबल जरूर हैं.

स्टेटस बढ़ाने वाली कारें किसी समस्या का समाधान नहीं सुझाती हैं जबकि हमारे देश में किसी भी ऐसे उपक्रम का पहला उद्देश्य बड़ी दिक्कतों को हल निकालना होना चाहिए. लेकिन जिन कारों के बिना शहरों की जिंदगी थम जाने की बात अब कही जाती है, अब वे तमाम दिक्कतें भी पैदा कर रही हैं. जरूरत के मुकाबले तंग महसूस की जाती सड़कों पर कारों की भीड़ लगभग रोजाना ट्रैफिक जाम की समस्या पैदा करती है. इन समस्याओं से निबटने को दिल्ली-गुरुग्राम जैसे महानगरों में एक के बाद एक फ्लाईओवर, सबवे और क्लोवरलीफ जैसे विकल्प पेश किए गए हैं, पर जाम का झाम यथावत जारी है.

दिल्ली-मुंबई से अलग दूसरे शहरों में कारें ज्यादा परेशानियां खड़ी कर रही हैं क्योंकि वहां न ट्रैफिक संभालने वाले इंतजाम पूरे हैं और न ही सड़कें दुरुस्त हालत में हैं. कारों की बढ़ती भीड़ के कारण अब तो स्कूटर और साइकिल वालों का सड़क परनिकलना दूभर हो गया है और पैदल यात्रियों पर तो मानो कारें कहर बन कर टूटी हैं. ज्यादातर शहरी सड़क दुर्घटनाओं में पाया गया है कि गैर प्रशिक्षित, असावधान और पियक्कड़ कारचालक पैदल चलने वालों को कहीं भी कुचल कर भाग खड़े होते हैं. इस विडंबना का एक और रूप है. देश में किसी भी व्यक्ति को फिलहाल मनचाही संख्या में कारें रखने और इस्तेमाल करने की आजादी है, भले ही वह टैक्स न देता हो. इस आजादी के नतीजे में निजी कारों की संख्या तो बढ़ गई लेकिन वे यातायात समस्या का कोई हल नहीं दे पा रही हैं.

मिसाल के तौर पर दिल्ली में सड़क पर दिखने वाले कुल ट्रैफिक का 75 प्रतिशत हिस्सा निजी कारों का होता है, लेकिन उन से यात्रा की 20 प्रतिशत से भी कम जरूरत पूरी होती है. यह हालत तब है जब इस शहर के केवल 30-32 प्रतिशत परिवारों के पास ही कार की सुविधा है. पर इन दिक्कतों के लिए कारों को विलेन ठहराना क्या जायज है?

असल में, कारों के अंधाधुंध आगमन के अलावा ज्यादातर शहरों के ट्रैफिक का बुरा हाल करने में कुछ और बातों की भूमिका रही है, जैसे हमारे देश में ज्यादातर सड़कें कारों के हिसाब से डिजाइन नहीं की गईं. पार्किंग के समुचित प्रबंध नहीं किए. कानून में नए घरमकानों में यह जरूरी नहीं किया गया कि उन में कारों की पार्किंग के लिए अनिवार्य रूप से जगह हो, हालांकि अब इस की पहलकदमी हो रही है. जैसे, साल 2014 में दिल्ली में किए गए एक कानूनी प्रावधान के मुताबिक, 100 मीटर के मकान में निश्चित संख्या में कारों की पार्किंग की बात कही गई थी.

इसी तरह अब कहा जा रहा है कि पार्किंग स्पेस नहीं रखने वालों को कारखरीद की इजाजत नहीं होगी. लेकिन इसी दिल्ली में सैकड़ों अवैध कालोनियां ऐसी हैं जहां कारें बाहर गली में खड़ी की जाती हैं. वहां ऐसा करने पर कोई रोकटोक नहीं है. कार कंपनियों के लिए ऐसे कड़े कायदों की भी कमी है कि वे कितना प्रदूषण फैला सकती हैं और उन के पैसेंजरों की सुरक्षा के कितने माकूल प्रबंध होने चाहिए. कारों से पैदा होने वाली इन समस्याओं के कई समाधान हो सकते हैं. जैसे, कानूनन जरूरी किया जाए कि एक परिवार अधिकतम कितनी कारें रख सकता है, किसी बाजार, कालोनी या सोसायटी में पार्किंग के इंतजाम होने चाहिए, एक वक्त पर सड़कों पर अधिकतम कितनी कारें आने की इजाजत होनी चाहिए और यदि लोग अपनी कारें घर में छोड़ कर आते हैं, तो सुनिश्चित किया जाए कि उन्हें हर हाल में बस या मैट्रो का विकल्प मिलेगा. इसी तरह छोटे शहरों में भी लोगों को टूटीफूटी सड़कों के स्थान पर रास्ते दुरुस्त मिलें और वहां भी बढ़ते ट्रैफिक के मद्देनजर फ्लाईओवर व सबवे आदि के इंतजाम किए जाएं.

सब से अहम यह है कि ट्रैफिक नियमों का पालन हर कहीं और हर किसी के लिए जरूरी किया जाए. असल में, इन्हीं सारी समस्याओं के चलते कारें किसी समस्या का समाधान बनने के बजाय खुद में एक समस्या बन गई हैं. यदि इन सभी कारणों का निवारण कर दिया जाए, तो कारें हमारी शहरी जिंदगी में आततायी नहीं, बल्कि एक समाधान की तरह सामने आएंगी.

कार फ्री डे और औड-ईवन प्रबंध

वर्ष 2015 के सितंबर माह में देश के औद्योगिक शहर गुरुग्राम में पहली बार कार फ्री डे का आयोजन किया गया. इसे ले कर काफी सनसनी रही. इस दिन शहर की कुछ एकदम खाली सड़कों के फोटो अखबारों में छापे गए और उम्मीद की गईकि कारों की बढ़ती संख्या के कारण होने वाले प्रदूषण और ट्रैफिक जाम जैसी समस्याओं की तरफ लोगों का ध्यान जाएगा. इस की देखादेखी दिल्ली में भी22 अक्तूबर, 2015 को कारमुक्त दिवस का आयोजन किया गया. एकदिवसीय इन आयोजनों को ले कर सरकार, प्रशासन के स्तर पर काफी हलचल रही. लेकिन आम जनता की सहूलियत के पर्याप्त प्रबंधों के अभाव में ये रस्मी आयोजन भर बन क र रह गए. सवाल उठा कि आखिर कार फ्री डे की नाकामी की वजह क्या रही? इस सवाल के जवाब में दुनिया के दूसरे शहरों में कार फ्री डे आयोजनों की तरफ नजर डालनी होगी. मसलन, अगर जापान की राजधानी टोक्यो में यही आयोजन होता है, तो उस दिन सड़कें निपट सूनी नहीं दिखतीं. उन पर पैदल और साइकिल से चलने वालों की भीड़ होती है. कारें नदारद होती हैं, लेकिन लोगों का कामकाज नहीं रुकता. पर हमारे देश में कार फ्री डे पर लोग अपनी सामाजिक प्रतिबद्धता दिखाते हुए कामकाज से ही छुट्टी ले लेते हैं. मानो, वे साबित करना चाहते हैं कि अगर कहीं जाने के लिए किसी वजह से कार उपलब्ध नहीं है, तो बेहतर होगा कि घर में बैठा जाए.

यह समस्या महज जनता के स्तर पर नहीं है. बेशक, आज ज्यादातर लोग दिखावे के लिए कार खरीदना और उन का इस्तेमाल करना चाहते हैं, पर यदि वे ऐसा न करें, तो शहरों में कहीं आनेजाने के लिए उन के पास विकल्प क्या हैं? चाहे दिल्ली, मुंबई हो, कानपुर, लुधियाना या कोई अन्य बड़ा शहर, सभी जगह लचर सार्वजनिक परिवहन प्रणाली ने लोगों को मजबूर कर दिया है कि वे किसी साधन का इंतजाम अपने स्तर पर करें. कारों की संख्या नियंत्रित करने की तो कहीं कोई बात ही नहीं है. इस के नतीजे में शहरों में ट्रैफिक जाम बढ़ता है जिस से नजात पाने के लिए कार फ्री डे जैसे आयोजनों के बारे में सोचा जाता है.

वैसे, भारत में कार फ्री डे भले ही नाकाम रहा हो, पर अन्य मुल्कों में इसे काफी सफलता मिली है. 1995 में विश्व कार मुक्त दिवस का आयोजन भी किया गया, लेकिन अपने स्तर पर राष्ट्रीय कैंपेन चलाने वाला ब्रिटेन ऐसा पहला मुल्क था, जिस ने यह आयोजन पृथक रूप से 1997 में अपने देश में किया और इस के बाद फ्रांस ने भी 1998 में ‘इन टाउन, विदाउट माई कार’ नारे के साथ कार मुक्त दिवस का आयोजन किया.

लोगों को इन आयोजनों के जरिए संदेश दिया जाता रहा है कि वे एक दिन अपनी कार छोड़ कर बस या मैट्रो जैसे सार्वजनिक ट्रांसपोर्ट सिस्टम का इस्तेमाल करें. इस से कार्बन डाईऔक्साइड के उत्सर्जन में तो कमी आएगी ही, उस भीषण ट्रैफिक जाम से भी मुक्ति मिलेगी जो शहरी जीवन का मजबूरन अनिवार्य हिस्सा बनता जा रहा है. घर से कार्यस्थल के बीच की दूरी तय करने में लगने वाला वक्त ट्रैफिक जाम के कारण बढ़ता जा रहा है और मानसिक थकान व अन्य बीमारियों (हाईब्लडप्रैशर व चिड़चिड़ापन आदि) की संख्या भी. रोडरेज यानी सड़क पर पैदल यात्रियों या अन्य वाहनचालकों से मामूली बात पर झगड़े व मारपीट की नौबत भी इसी कारण आने लगी है.

कार फ्री डे जैसा हश्र औडईवन फौर्मूले का भी हुआ है. सड़कों पर पड़ रहे बेइंतहा दबाव व प्रदूषण की समस्या से निबटाने को और वाहनों के सुचारु संचालन के लिए देश की राजधानी दिल्ली में 2 बार लागू किया गया समविषम फार्मूला विवादों में रहा है. एक विवाद इस की विज्ञापनबाजी पर हुए करोड़ों के खर्च को ले कर हुआ, विपक्ष ने इसे फुजूलखर्ची बताते इस का विरोध किया. इस के समानांतर टैक्सी संचालकों ने उस दौरान ग्राहकों की मजबूरी का फायदा उठाने के लिए सब से व्यस्त समय में शुल्क बढ़ाने की कोशिश की, जिस पर दिल्ली सरकार ने कड़ी प्रतिक्रिया दी थी.

यही नहीं, इस दौरान इस तथ्य का खुलासा भी हुआ कि कैसे कम कीमत में सैकंडहैंड कार ले कर लोगबाग समविषम की समस्या का तोड़ निकालने लगे थे. साफ है कि दिल्ली-मुंबई जैसे महानगरों को प्रदूषण और भारी ट्रैफिक की समस्या से राहत दिलाने में ये उपाय तब तक कारगर नहीं होंगे जब तक जनता की मानसिकता नहीं बदली जाती और लोगों को बेहतरीन पब्लिक ट्रांसपोर्ट सुविधा मुहैया नहीं कराई जाती.

शहरीकरण की सही परिभाषा

कारों को मर्ज साबित करने में हमारे देश में बेतरतीब ढंग से हुए शहरीकरण की बड़ी भूमिका है. असल में, हमारे नएपुराने शहरों की रूपरेखा क्या होनी चहिए, इसे ले कर अभी पर्याप्त असमंजस बना हुआ है. एक तरफ सरकार है जो स्मार्टसिटी योजना के तहत देश के 100 शहरों को भविष्य का शहर बनाने की कोशिश कर रही है, तो दूसरी ओर खुदबखुद अनियोजित ढंग से बसते शहर हैं जो आकारप्रकार में बढ़ जरूर रहे हैं लेकिन बसाहट के उन के अंदाज सदियों पुराने हैं.

मुश्किल यह है कि सरकार की योजनाओं के बाहर बनने और बिगड़ने वाले ऐसे ज्यादातर शहरों ने देश के शहरीकरण की शक्ल ही बिगाड़ कर रख दी है. यह शहरीकरण चाहे जैसा हो, अब इसे रोका नहीं जा सकता, लिहाजा सवाल उठता है कि कारों के मर्ज से पहले इन का इलाज नहीं होना चाहिए.

एक आकलन के अनुसार, वर्ष 2028 तक भारत दुनिया में सब से ज्यादा आबादी घनत्व वाला देश होगा. यानी अगले डेढ़ दशक के भीतर इस मामले में हम अपने पड़ोसी मुल्क चीन को पीछे छोड़ने वाले हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि तब वहां (चीन में) जनसंख्या में गिरावट का दौर शुरू हो चुका होगा, जबकि भारत की आबादी तेजी से बढ़ रही होगी. यह आकलन संयुक्त राष्ट्र की वर्ष 2013 की जनसंख्या रिपोर्ट का है.

रिपोर्ट में सब से ज्यादा चौंकाने वाली तसवीर भारत की है. रिपोर्ट कहती है कि आबादी की जरूरतों के मद्देनजर और विकसित देशों की देखादेखी हमारे देश में शहरीकरण को तो बढ़ावा दिया गया, लेकिन इस तबदीली का हमारी सरकारों और योजनाकारों ने कोई गंभीर नोटिस नहीं लिया. नतीजा यह निकला कि आज देश के ज्यादातर शहर बेकाबू और अनियोजित फैलाव के शिकार हो गए हैं. इस की तसदीक कुछ ही समय पहले विश्व बैंक की एक रिपोर्ट ‘अर्बनाइजेशन इन साउथ एशिया’ में की गई है. इस में कहा गया है कि भारत में ज्यादातर शहर बिना किसी सरकारी योजना या टाउन प्लानिंग के अभाव में बेरोकटोक बसाए जा रहे हैं. उन में यह व्यवस्था नहीं है कि किस इलाके में कितने मकान बनेंगे, कितनी आबादी निवास करेगी, उन की जरूरतों के हिसाब से सड़क, पानी, बिजली आदि इंफ्रास्ट्रक्चर का क्या प्रबंध होगा.

उल्लेखनीय यह भी है कि देश में एक नया मध्यवर्ग उन्हीं लोगों के बीच से उभर रहा है जो ग्रामीण इलाकों में शहरों की ओर बेहतर जीवनशैली की आस में पलायन कर रहा है. आंकड़े इस के गवाह हैं- साल 2008 में 34 करोड़ भारतीय शहरों के बाशिंदे बन चुके थे और अनुमान है कि 2030 तक यह तादाद बढ़ कर 59 करोड़ पहुंच जाएगी.

इस आबादी की जरूरतों के मद्देनजर फिलहाल देश के ज्यादातर शहरों की पहली मौलिक समस्या हर तरह के इंफ्रास्ट्रक्चर की खराबी है. सड़कें, सीवर, बिजली, पानी की मूलभूत कमियों के बाद अवैध कब्जों और बिना किसी नियोजन के विकास ने ऐसे ज्यादातर शहरों को बहुत ही खराब स्थिति में पहुंचा दिया है. इस के बाद सामाजिक परिवेश और कानून व्यवस्था जैसे सवाल हैं, जो इन ज्यादातर शहरों में बड़ी समस्या बन कर सामने आए हैं. अवैध निर्माण और जलवायु व जमीनी प्रदूषण तो देश की राजधानी दिल्ली तक में बेइंतहा है, बाकी शहरों के बारे में क्या कहा जाए.

सरकारी योजनाओं की खामी

2 स्तरों पर है. पहली तो यह कि वह जब भी शहरी विकास की बात कहती है तो पहले से बसेबसाए शहरों में ही सुविधाएं बढ़ाने की योजनाएं पेश की जाती हैं. पिछली यूपीए सरकार की योजना अर्बन रिन्यूअल मिशन और मौजूदा एनडीए सरकारी की स्मार्ट सिटी परियोजनाओं को इसी खाते में डाला जा सकता है. दूसरे, सरकार उन इलाकों को आरंभ में शहर नहीं मानती जो बड़े शहरों के आसपास अपनेआप बेढंगे तरीके से विकसित हो जाते हैं.

दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, कानपुर, इंदौर आदि किसी भी बड़े शहर के आसपास उगे इलाके शहर की सरकारी परिभाषा में फिट नहीं होते हैं, लिहाजा उन्हें तब तक बिजली, पानी, सीवर, सड़क, स्कूल, अस्पताल, मैट्रो रेल जैसी सुविधाएं मुहैया नहीं कराई जाती हैं, जब तक कि उन का विकास एक राजनीतिक मुद्दा न बना दिया जाए. शहरों को खुद ही विकसित होने देने और उन की आबादी बेतहाशा ढंग से बढ़ते रहने के कारण भी शहर बेडौल और बेनूर हो रहे हैं, यह समझने की जरूरत है.

चीन ने इस मामले में मिसाल पेश की है. जुलाई 2015 में चीन की सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी औफ चाइना की एक अहम बैठक में वादा किया गया कि देश की राजधानी बीजिंग के बगल में प्रशासनिक केंद्र के रूप में एक नया शहर बसाया जाएगा जिस की आबादी 2.3 करोड़ तक सीमित रखी जाएगी. शहर की आबादी पर अंकुश रखने और महानगर के बगल में नया शहर बसाने की ऐसी ही नीतियों की जरूरत भारत में भी है.

महंगाई राजनीतिक भ्रष्टाचार की जननी

सरकार का मतलब होता है जनता की सुविधाओं की प्रबंधक, व्यवस्थापक. उस की जिम्मेदारी है कि वह अपने क्षेत्र में सुशासन की व्यवस्था करे, चोरी, डकैती, बेईमानी, लूट, हत्या, बलात्कार, दंगाफसाद आदि पर नियंत्रण कर के आम जनता को सुख, सम्मान व अधिकार दिलाए. तब तो वह जनता की सरकार, जनता के लिए और जनता द्वारा बनाई गई सरकार है अन्यथा चोरों, दलालों व पूंजीपतियों की सरकार कहलाएगी.

अगर जनता आह भरभर कर जीवनयापन कर रही है, महंगाई, भ्रष्टाचार व अभावों के दुखों तले दबी हुई है तो निश्चित रूप से सरकार भ्रष्टाचार में व्यस्त व मस्त है. यों भ्रष्टाचार के अनेक कारण हैं किंतु एक सुदृढ़ कारण यह है कि सरकार अपने वफादार सिपाहियों (जनप्रतिनिधियों) को खुश रखने की बेहतर से बेहतर तरकीब करती रहती है. कुछ तरकीबें तो ऐसी भी हैं जिन से पक्ष व विपक्ष के सभी जनप्रतिनिधि खुश हो जाते हैं, जैसे जब सरकार माननीयों के वेतन, भत्ते, पैंशन व अन्य सुखसुविधाओं में कई गुना बढ़ोतरी करती है.

सरकारें बिना पूंजीवादी व्यवस्था के आश्रित हुए स्वयं को विकलांग महसूस करती हैं. तो जाहिर है जिस से अंधाधुंध चुनावखर्च हेतु चंदा लेंगे, निर्वाचित होने पर उन के साथ नमकहलाली ही करेंगे. दूसरी बात यह भी है कि  अपनी कई पीढि़यों को आर्थिक रूप से मजबूत व संपन्न करना भी निर्वाचित सदस्यों की विवशता बनती जा रही है.

बड़े नगरों व राजधानी में भी आवास व व्यापार की सुविधा बनाना ही नहीं, बल्कि विदेशों में भी अकूत धनसंपदा जमा करना, आवासीय व व्यापरिक जड़ें मजबूत करना आदि भी माननीयों के राजनीतिक दायित्वों के मुख्य हिस्से बनते जा रहे हैं.

हमारे देश में पहले नेता फटेहाल और जनता मालामाल होती थी. किंतु आज उस का उलटा, नेता मालामाल और जनता फटेहाल हो गई है. नेता दूसरों के दुखों से सुखी होते हैं और दूसरों के सुखों से दुखी होते हैं. पहले नेताओं की सोच होती थी कि हम देश को सबकुछ समर्पित कर दें, किंतु आज के नेताओं की सोच है कि हम अपने व्यक्तित्व विकास के लिए राष्ट्र से सबकुछ ले लें.

देश में दंगेफसाद, हड़ताल, धरनेप्रदर्शन के पीछे कोई सोच काम कर रही है. चर्चा का विषय है कि यह माननीयों की ही सोच है. आमजन को उन की रोजमर्रा की आवश्यकताओं, सुविधाओं, मेहनतमजदूरी से वंचित कर दो. ऐसे में वे या तो परलोक सभा का टिकट पाएंगे अन्यथा पाने लायक हो जाएंगे.

आम आदमी बनाम पूंजीपति

सरकार बनते ही माननीय केवल धनपशुओं की भीड़ से सज जाते हैं. वे भांतिभांति के उपहार व भेंट, वफादारी की भावना से, समर्पित करते हैं. मतदाताओं को तो माननीयगण पहचान ही नहीं पाते. मतदाता पहुंचे भी उन के द्वार, तो लाइन में सब से पीछे नजर आएगा. जब माननीय जी से अपनी बात कहने का उस का नंबर आएगा, तब तक माननीय जी फुर्र हो जाएंगे.

सरकार में बैठे सीएम हों या पीएम, दोनों के पास आम आदमी से कम, पूंजीपति से मिलने के लिए ज्यादा समय रहता है. देश के भ्रष्टों को गले लगा कर आदर्श नागरिक बनने का ढोंग किया जाता है. माननीयों को सरकारी कार से दौरा करते रहने से फुरसत नहीं मिलती. ऐसे में वे क्या योजनाएं, परियोजनाएं बनाएंगे. उन की नाक के नीचे भ्रष्टाचार फलफूल रहा होता है लेकिन वे कहते हैं कि उन्हें तो पता ही नहीं. जबकि उन के इशारे के बिना भ्रष्टाचार का एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, भ्रष्टाचारी सांस नहीं ले सकता. आज राजनीति भ्रष्टाचार की जननी हो गई है.

यह कैसा विकास

आम जनता की बेहतरी के बारे में वे कब, कैसे और क्यों सोचेंगे, सोचना और समझना उन के जीवन का बड़ा ही दुर्लभ कार्य है. माननीयगण देश के विकास की बात तो कर रहे हैं और विकास भी दिखाई पड़ रहा है, किंतु इस विकास के कार्यों से क्या देश की आम जनता सुखी हो रही है, क्या उस के दुखों का कारण समाप्त हो रहा है.

चार, छह और आठ लेन की बड़ी चौड़ी सड़कें, बड़ेबड़े हवाईअड्डे, बड़ेबड़े पुल, ओवरब्रिज, वातानुकूलित फाइवस्टार होटल, आलीशान बंगले, खूबसूरत पार्क क्या ये सब देश की आम जनता को सुख पहुंचाने के लिए बनाए जा रहे हैं? उक्त समस्त विकास कार्य तो माननीयों व धनपशुओं के लिए ही विकसित किए जा रहे हैं. यह तो आम जनता के विकास से परे की बात है.

ऐसा विकास कार्य एकांगी है. आवश्यकता है किसान, मजदूर, शिल्पकार, गरीब, नौजवान, छात्र, महिलाओं व अधिकारवंचित समाज के लोगों के

लिए ऐसे कार्य किए जाने की जिन से उन्हें रोजगार के साथसाथ स्वावलंबन, स्वाभिमान, आत्मसम्मान व अधिकार भी प्राप्त हो सकें, उन को शोषण व उत्पीड़न से मुक्ति मिल सके. लेकिन माननीयों के पास विकास की ऐसी सोच है ही नहीं क्योंकि ये तो संतुलित विकास की सोच है.

जनता को जागरूक हो कर अपनी आवश्यकताओं के बारे में जोरदार ढंग से सरकार को एहसास कराना होगा तभी राजनीतिक भ्रष्टाचार समाप्त हो सकेगा और दुखी मानवता सुखी हो सकेगी.        

50 वर्ष के अधिकारी

उत्तर प्रदेश सरकार 50 वर्ष से ज्यादा उम्र के हो चुके सरकारी अधिकारियों का मूल्यांकन कर के अयोग्यों को रिटायर करने पर विचार कर रही है. यह तो पक्का है कि 50 वर्ष की उम्र तक ज्यादातर सरकारी कर्मचारियों के दिल पक चुके होते हैं क्योंकि उन्हें तबादलों, नएनए विभागों, नएनए बौसों, बदलते राजनीतिक समीकरणों से जूझना होता है. उन के हाथ में असीमित अधिकार होते हैं पर आजकल मीडिया व अदालतों की स्कू्रटिनी भी जम कर हो रही है. जनता भी अब निडर होने लगी है और हर फैसले पर चूंचूं करने लगती है.

50 वर्ष की उम्र के बाद अधिकतर सरकारी अफसर समय काटने का मूड बना लेते हैं. उन की जो कमाई होनी होती है, हो चुकी होती है. इस उम्र तक वे ऐसे पद पर पहुंच जाते हैं जहां ऊपर की कमाई सीधे नहीं, छनछन कर पहुंचती है हिस्से के रूप में. हां, इस स्तर पर भी उन के अधिकार बहुत होते हैं. कमेटियों और मीटिंगों में कहनेकरवाने के उन के अवसर बढ़ जाते हैं, रोबदाब भी खूब रहता है.

सवाल है कि क्या उत्तर प्रदेश की भगवा सरकार अपने इस विचार को फैसले में बदल कर लागू करवा पाएगी? भाजपा असल में ऊंची जातियों के सरकारी अफसरों, छोटे व्यापारियों (जो खुद ब्राह्मण बनने की कोशिश कर रहे हैं), मंदिरों के महंतों, संतों और पूजापाठी बुजुर्गों के बल पर सत्ता में आई है. अगर उस ने बड़े पैमाने पर 50 वर्ष से ऊपर वालों को हटाया तो तूफान मच जाएगा और अफसरशाही खुला नहीं, तो चुपचाप विद्रोह कर देगी, ताकि ऐसा कोई फैसला कारगर ही न हो सके.

हां, यदि इस कदम का उद्देश्य आरक्षित अफसरों को हटाना हो, तो बात दूसरी है. उन अफसरों की फाइलों में उन के बारे में बहुत सी नोटिंग्स होती हैं. आमतौर पर आरक्षण से आए अफसरों को निकम्मा ही माना जाता है और ऊंची जाति का हर वरिष्ठ अफसर घुमाफिरा कर उन की कुंडली में दोष का ग्रह फिट कर ही जाता है.

सरकार ने यह कदम भी उठाया, तो भी भारी पड़ सकता है क्योंकि उत्तर प्रदेश सरकार पर वैसे ही बराबरी को समाप्त करने के प्रयास करने के आरोप लग रहे हैं.

50 वर्ष की उम्र के बाद सरकारी अफसरों की छुट्टी करनी है तो सभी की करी जाए ताकि नया खून आ सके जो पुराने संस्कारों, रीतिरिवाजों से उठ कर नई शिक्षा व नई सोच के साथ सरकार में आया हो. 25 वर्ष की सरकारी सेवा अपनेआप में काफी होनी चाहिए.

राजनीति में तो 10 साल भी बड़ी मुश्किल से मिलते हैं. सरकारी अफसर जनता की सेवा के लिए होते हैं और युवा अफसर ही देश को चाहिए जो दमखम से इस गंदे, बदबूदार, गरीब देश की कायापलट कर सकें. बुजुर्ग अफसर तो केवल सचिव स्तर के रहने चाहिए, जो अपने अनुभवों का प्रशासन में सदुपयोग कर सकें.

 

विदेश में अतिथि सत्कार

आमतौर पर एक गैस्ट को होस्ट करना हानि से अधिक लाभ पैदा करता है. यह अवसर गपशप, शहर की वास्तविकता साझा करने और समय व्यतीत करने के साथ आप की दोस्ती को बढ़ाता व गहरा करता है. अतिथि-मेजबान संबंध लोगों की भलाई के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण हैं. पहले के समय में संचार के साधन सीमित थे, इसलिए आगंतुक के लिए अपने आगमन की तिथि का पूर्वानुमान बताना संभव नहीं था. जिस के आगमन या प्रस्थान की कोई निश्चित तिथि नहीं थी, ऐसे व्यक्ति को चित्रित करने के लिए अतिथि शब्द गढ़ा गया था. परंतु, आजकल लोग मिलने या घूमने के लिए अपने देश से विदेश जाते हैं, इसलिए वहां के रीतिरिवाज जानना आवश्यक हैं.

भारतवासी आने वाले अतिथि का किसी भी समय सम्मान और शान से स्वागत करते हैं. भोजन के समय अतिथि को पहले खाने के लिए कहते हैं और पूछते हैं कि वह कुछ और चाहता है.

पेरू देश में भी अतिथि को पहले खाने के लिए कहा जाता है. परंतु अमेरिका में ऐसा रिवाज नहीं है. वहां खाना सब के लिए टेबल पर परोस दिया जाता है. एक पेरू निवासी ने मुझे बताया कि अमेरिका में एक बार वह अतिथि के रूप में इस बात का इंतजार करता रहा कि उस से खाने के लिए कहा जाएगा, परंतु ऐसा रिवाज न होने के कारण उसे भूखा ही उठना पड़ा.

विदेश के रिवाज के अनुसार, पहले आप को अतिथि के बजाय तिथि बनना पड़ता है, यानी पहले आप को मेजबान से पंजीकृत कराना पड़ता है. कितने सदस्य, किस तिथि से और कितने दिनों के लिए आना चाहते हैं और वे दिन होस्ट को स्वीकार हैं. अनपेक्षित रूप से अधिक दिन ठहरने पर मेजबान को परेशानी हो सकती है.

यदि आप बिना बताए किसी के यहां पहुंचते हैं तो कौलबैल या अदृश्य ताले वाला बंद दरवाजा आप का स्वागत करता है (इस विषय में पड़ोसी आप की कोई सहायता नहीं करता). होस्ट के लिए उपहार ले जाना भी आवश्यक है जैसे कि चौकलेट, फ्रूट बास्केट आदि. अपने पहुंचने से पहले उक्त पते पर होम डिलीवरी भी करवा सकते हैं.

अपने गंतव्य स्थान पहुंचने से पहले रास्ते में (या एयरपोर्ट से) कौल कर के मेजबान से पूछें कि स्टोर से ग्रोसरी की जरूरत है, एक गैलन दूध, एक दर्जन अंडे, बिस्कुट, ब्रैड आदि. इस से गरम नाश्ता बनाने के लिए मेजबान पर त्वरित बोझ नहीं पड़ेगा. मेजबान को पहले से किसी भी खा- एलर्जी के बारे में सूचित कर दें, यदि आप को विशेष आहार की जरूरत है तो ग्रोसरी साथ लाएं और अपना भोजन स्वयं तैयार करें.

आने की खबर करें

सप्ताहांत उत्सव के लिए उचित पोशाक ले जाएं ताकि आप को अपने मेजबान से कपड़े उधार न लेने पड़ें. अपने साथ पालतू जानवर न ले जाएं. यदि आप को छूत की बीमारी है तो स्वच्छता का ध्यान रखें. अगर आप बच्चों के साथ यात्रा करने वाले हैं और उन को कोई संक्रामक रोग, जैसे जुकाम हो जाता है तो अपनी यात्रा रद्द कर दें. मेहमान के आने से पहले मेजबान सुनिश्चित करे कि कमरा साफ है, कमरे में स्वच्छ बिस्तर, कंबल, टीवी, घड़ी, कागज पैंसिल, पानी का जग, गिलास, हैंगर व आईना आदि हैं. अगर अतिथि बच्चों के साथ है तो छोटे मेहमानों का भी गरमजोशी से स्वागत करने के लिए एक नई कलरिंग बुक, क्रेयौंस, स्टिकर, किताबें और वीडियो बच्चों को आनंद लेने के लिए विशेष लगेगा. बाथरूम भी अतिथि रूम की तरह महत्त्वपूर्ण है, वह साफ हो और उस में अनिवार्य वस्तुएं रखें, जैसे साबुन, खाली गिलास, एक छोटी टोकरी में सैंपल साइज शैंपू, कंडीशनर, लोशन, टूथपेस्ट और तौलिया.

घर पहुंचने पर एक लंबाचौड़ा संविधान पालन करना अतिथि की विवशता होती है. उदाहरण के तौर पर वीकैंड पर 9-10 बजे के बाद चायनाश्ता. अतिथि को मेजबान से सुबह उठने, खाने और रात्रि को लाइट बंद करने का समय पूछना पड़ता है. अपने सामान को इस प्रकार रखें कि होस्ट को आनेजाने में दिक्कत न हो. यदि आप को अलग बैडरूम दिया गया है तो अपनी अनुपस्थिति में दरवाजा खुला रखें. मेजबान से हमेशा पूछ कर ही किसी चीज का उपयोग करना चाहिए. यदि आप गलत बटन दबाते हैं या गलत नौब घुमाते हैं तो उस का संभावित विनाशकारी परिणाम हो सकता है. इसलिए ध्यान से उपयोग करें और सुरक्षित रहें. बच्चों को अकेला न छोड़ें. होस्ट के पालतू जानवरों की ओर बहुत अधिक ध्यान न दें. मेजबान से पूछे बिना पालतू जानवरों को कुछ न खिलाएं.

यदि घर में केवल एक बाथरूम है तो होस्ट से पूछ लें कि आप के लिए इस का उपयोग किस समय सुविधाजनक है. शौचालय को हमेशा स्वच्छ रखें, फ्लश कर के ढक्कन नीचे डाल दें, बहस न करें कि ऐसा आप को पसंद नहीं है. बैठ कर टौयलेट करना फायदेमंद है. खड़े हो कर टौयलेट करना चाहते हैं तो पहले सीट को उठा कर रिम को साफ करें और बाद में वैसे ही वापस रख दें. लड़कियों को यदि टौयलेट सीट पर बैठना असहज लगता है तो वे पहले कागज से सीट साफ कर लें. मेजबान के सफेद तौलिए और चादर पर लिपस्टिक, काजल और मेकअप के स्थायी निशान न छोड़ें.

सुविधाओं का दुरुपयोग

घर में उन की भाषा बोलने का प्रयास करें. नल को टपकता न छोड़ें, सिंक और आईना साफ रखें. फर्श पर बाल न छोड़ें और काम समाप्त होने पर लाइट बंद कर दें. अपने कीचड़ से सने जूते दरवाजे के बाहर रखें. व्यायाम करने के बाद हमेशा स्नान करें. यदि शरीर पसीने से तर हो तो सोफे पर न बैठें. बाथरूम में रखे होस्ट के फैंसी तौलिए इस्तेमाल न करें. जब तक कहा न जाए, उन की अलमारी में बहुमूल्य परफ्यूम, शैंपू, टूथपेस्ट, रेजर, बाल उत्पादों, लोशन आदि को न छेड़ें. मैले कपड़े जल्द से जल्द धोएं. हर रोज शावर लें परंतु कम समय के लिए. अधिक समय शावर लेने से बिजली का बिल बढ़ सकता है. यदि आप को स्नान के बाद खिड़की खोलने के लिए कहा गया है, तो बाथरूम से भाप निकलने और पेंट की रक्षा के लिए ऐसा करें. यदि आप बारबार स्नान करना चाहते हैं तो अतिरिक्त लागत के लिए उपयुक्त योगदान करें. कुछ टूटने पर उस आइटम को ठीक करवाएं या नकद भुगतान करें.

खाने के समय हमेशा रसोई में सहायता करें. यह विशेषरूप से महत्त्वपूर्ण है अगर आप के मेजबान फुलटाइम काम करते हैं. अगर आप का रिवाज है कि पुरुष घर का कामकाज नहीं करते तो भी अपनी सुविधा क्षेत्र के बाहर कदम रख कर घर के काम में योगदान करें. यदि होस्ट की अनुपस्थिति में उस की ग्रोसरी का उपयोग कर के खाना बनाते हैं तो होस्ट के लिए भी भोजन बनाएं. यह विशेषरूप से आवश्यक है कि आप बचा हुआ स्वादिष्ठ, आसानी से न बनने वाला और महंगा भोजन बिना होस्ट की अनुमति के न खाएं. भोजन में आप अपनी पसंद का कोई आइटम बनाने की पेशकश कर सकते हैं. प्रश्न न करें, क्या यह और्गेनिक सब्जियां हैं? यदि आप एक शाकाहारी परिवार के अतिथि हैं तो उन की सेवा को हमेशा विनम्रता से स्वीकार करें और मेजबान का सम्मान करें. अगर एक विशेष प्रकार का भोजन आप की सांस्कृतिक या धार्मिक मान्यताओं का उल्लंघन है, तो कृपया अपने मेजबान को पहुंचने से पहले सूचित कर दें.

अपने मेजबान से पूछ कर ही उस के इंटरनैट या फोन का उपयोग करें. अपने मेजबान का कंप्यूटर उपयोग करते समय ध्यान रखें कि बस, अपने ईमेल की ही जांच करें और कंप्यूटर बंद कर दें. इस से उन के शैड्यूल में कम दखल होगा और बच्चों के होमवर्क आदि में बाधा नहीं पड़ेगी. समूह में विनम्रता से हाथ के पीछे मुंह छिपा कर जम्हाई लें. नाक को अपनी आस्तीन के मोड़ से ढक कर छींकें. ध्यान आकर्षण करने के लिए किसी को छूने या गलती से किसी को छूने पर एक्सक्यूज मी बोलें. मेजबान के घर को होटल न समझें, रहने के लिए मुफ्त स्थान के अलावा कुछ और के लिए अपने होस्ट पर भरोसा न करें.

अगर आप अपने मेजबान के घर पर भोजन नहीं कर रहे हैं तो भी ग्रोसरी खरीदने के लिए निवेदन करें, आप को अभी भी टौयलेट पेपर की आवश्यकता है यह आमतौर पर मेजबान के लिए सब से भारी अतिरिक्त बोझ होता है. यदि लंबे समय तक रहना है तो ग्रोसरी के बिल की सहायता महत्त्वपूर्ण है. एक बार अपने मेजबान को खाने के लिए उस की पसंद के रेस्तरां में ले जाने की पेशकश करें. अगर मेजबान परिवहन प्रदान करता है तो कम से कम राउंड ट्रिप गैस के लिए भुगतान अवश्य करें. पहले मेजबान, बेजबान होता था, अतिथि की हर बात सहन करता था. याद रहे कि आप के मित्र की पत्नी आप की कुक या नौकरानी नहीं है और यदि उसे आप का व्यवहार पसंद नहीं है तो आप का मित्र आप को तुरंत वापस भेज देगा.

मेजबान से यह आशा न रखें कि उस के पास आप को घुमाने के लिए भी समय है. यदि आप की योजना स्थानीय जगहें देखने की हो तो वैकल्पिक रूप से किराए पर कार ले सकते हैं. यदि होस्ट आप को दर्शनीय स्थल दिखाने के लिए ले जाता है तो आप अपना प्रवेश भुगतान स्वयं करें. आप छुट्टी पर हैं परंतु आप का मेजबान नहीं, इसलिए अवांछित अतिथि बनने से बचें. कम ठहरना सुखद होता है तथा सब इस को अच्छा महसूस करते हैं. बेन फ्रेंकलिन ने एक बार कहा भी था, ‘‘मछली और आगंतुक से 3 दिनों के बाद बदबू आने लगती है.’’

भोजन के समय दाहिने हाथ में चाकू और बाएं हाथ में कांटा (फोर्क) धारण करना अच्छा शिष्टाचार है. यदि आप ने दुर्गंध वाले लहसुन, प्याज या मूली के साथ खाना खाया है तो ब्रश जरूर करें. इस से दुर्गंध नहीं आएगी. अपने जूठे बरतन सिंक में न छोड़ें, खुद साफ करें. अगर आप महसूस करते हैं कि फर्श या कालीन गंदा है तो स्वयं द्वारा उसे साफ करने की पेशकश करें. सुबह में बहुत जल्दी उठ कर मेजबान को परेशान न करें, जोर से दरवाजा बंद न करें, आप के बैडरूम के बाहर रोशनी न जाए, इस बात का ध्यान रखें. यदि आप बहुत लंबे समय के बाद मिले हैं और कई रोमांचक कहानियां सुनाना चाहते हैं, तो भी होस्ट को देर रात न जगाए रखें. संगीत सुनने और टीवी देखने के लिए अपने इयरफोन साथ रखें ताकि मेजबान परेशान न हो.

घर से बाहर, हर समय अपना पासपोर्ट साथ रखें. यदि आप पर्यटन स्थलों का भ्रमण करने गए हैं और भोजन के लिए देर हो चुकी है तो यह समझ कर घर पर भूखे न आएं कि आप का होस्ट भोजन के लिए इंतजार कर रहा होगा. ऐसे में बाहर भोजन कर लें और होस्ट के लिए भी पर्याप्त खाना लाएं. देर से लौटने पर अतिरिक्त शांत रहें, यदि आप को एक कुंजी दी गई है तो उस का उपयोग करें. यह सामान्य शिष्टाचार है कि अपने मेजबान की अनुमति के बिना घर पर अन्य लोगों को आमंत्रित न करें, इस से मेजबान पर अतिरिक्त वित्तीय बोझ पड़ता है और असुविधा भी होती है. मेजबान से निजी धन, संपत्ति और वेतन के बारे में पूछना अशिष्ट और अपमानजनक है. मेज के नीचे हाथ रखना या टेबल पर कोहनी रखना अनुचित माना जाता है.

जाते समय स्थानीय पर्यटन स्थलों का भ्रमण और अन्य आकर्षणों की प्रशंसा करें. प्रवास के दौरान कभी भी गपशप में अपने मेजबान या परिवार के सदस्यों की आलोचना करना अनुचित है. यदि आप के मेजबान ने घर का बना भोजन खिलाया है तो प्रशंसा करना न भूलें. यदि आप के मेजबान ने आप के बच्चों के लिए खिलौने उपलब्ध कराए हैं तो वापस करना न भूलें. होस्ट के सामान का सम्मान करें और अपने मेजबान की जीवनशैली के अनुकूल चलें. इस के अलावा छोटे बच्चों के सामने अपनी भाषा के साथ बहुत सावधान रहें. अपने प्रवास के दौरान आप यह समझ गए होंगे कि आप के मेजबान की पसंद क्या है, अपना आभार प्रकट करने के लिए एक छोटा सा विदाई उपहार दें.

वापसी पर सामान की जांच कर लें, क्योंकि भूला हुआ सामान मेजबान को धन व्यय कर के भेजना पड़ेगा. शावर जेल की आधी खाली बोतलें, आईड्रौप और यात्रा पुस्तकें पीछे न छोड़ें. चादर, तौलिए आदि लौंड्री रूम में रख दें. आप के जाने के बादमेजबान को ये सब धोने पड़ेंगे. मेजबान यदि हाउस क्लीनिंग सर्विस का उपयोग करता है तो उस का भुगतान करने के लिए धन प्रदान करें. यदि आप देररात या सुबह के समय में प्रस्थान कर रहे हैं तो आप मेजबान से हवाईअड्डे या बसस्टेशन पर छोड़ने की उम्मीद न रखें, जब तक कि वह स्वयं औफर न करे. घर पहुंच कर उन के आतिथ्य की सराहना करते हुए एक कार्ड या ई-कार्ड भेज कर धन्यवाद करना न भूलें.

विवाह बाद प्रेम में कटौती नहीं

विवाह के बाद पुरुषों की प्रेमभावना कुंद हो जाने पर अधिकांश महिलाएं खुद को छला हुआ महसूस करती हैं, जबकि पुरुष भी ऐसा ही महसूस करते हैं. अकसर महिलाएं शिकायत करती हुई कहती हैं कि जैसे ही कोई महिला किसी पुरुष के प्रति प्रेम में प्रतिबद्घ होती है वैसे ही उन की प्रेमभावना स्त्री के प्रति खत्म हो जाती है.

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय यानी जेएनयू के जानेमाने समाजशास्त्री डा. अमित कुमार शर्मा का कहना है, ‘‘कुछ प्राकृतिक गुणों के कारण स्त्रियों के प्रति पुरुषों की प्रेमभावना अधिक समय तक सशक्त नहीं रह पाती है जिस के कारण महिलाएं खुद को उपेक्षित और छला हुआ अनुभव करती हैं और ऐसे क्षणों की तलाश में रहती हैं कि जब पुरुष उन के प्रति आकर्षित हो. लेकिन पहले जैसी आसक्ति व प्रेमाभिव्यक्ति हो पाना संभव नहीं हो पाता.’’

अधिकतर पुरुष, स्त्रीप्राप्ति के लिए अपनी प्रेमाभिव्यक्ति को एक हथियार के रूप में प्रयोग करते हैं. उन का यह हथियार उसी प्रकार होता है जिस तरह कोई शिकारी अपने हथियार से शिकार करने के बाद उसे खूंटी पर टांग देता है. उसी प्रकार पुरुष अपनी प्रेमाभिव्यक्ति को अपनी जेब में रख लेते हैं जब तक कि उन्हें दोबारा इस की जरूरत न पड़े. दूसरी ओर, महिलाएं आवेश में किए गए प्रेम को भी अपने जीवन का अभिन्न अंग बना लेती हैं.

प्रेम आनंद-प्रेम दर्द

यौवन से भरपूर 24 वर्षीय मिनीषा गुप्ता का कहना है, ‘‘प्रेम आनंद के साथ शुरू होता है और जब हम शादी कर लेते हैं तो यही प्रेम दर्द का कारण बनता है. जैसा कि मैं देख रही हूं कि हमारी शादी को मात्र 2 वर्ष हुए हैं और अभी से मेरे पति मुझे नजरअंदाज करने लगे हैं. जबकि, शादी से पहले वे मुझे दुनिया की सब से खूबसूरत युवती बताते थे. मेरे हाथों को सहलाते हुए उन्हें दुनिया के सब से मुलायम हाथ करार देते थे. वे अब मेरी भौतिक सुविधाओं का तो खयाल करते हैं लेकिन मैं उन के मुंह से प्यार के दो बोल सुनने को तरस जाती हूं.’’

पत्नियों की यह भी एक आम शिकायत है कि उन के पति उन्हें एक साथी या पार्टनर के रूप में बहुत कम स्वीकारते हैं. अधिकतर पुरुष भावनात्मक स्तर पर बिना कुछ बांटे पति की भूमिका निभाते हैं.

कुछ महिलाएं तो यहां तक कहती हैं कि कई पतियों को पत्नी से जुड़ी जानकारी तक नहीं होती. वे जल्दी बच्चे भी नहीं चाहते पर किसी प्रकार के गर्भनिरोधक इस्तेमाल करने के प्रति भी लापरवाह होते हैं और पत्नी के गर्भवती होते ही वे अपनी दुनिया में खो जाते हैं. पत्नी को अपना ध्यान रखने की हिदायतें देने के बाद वे किसी किस्म की जिम्मेदारी नहीं बांटते.

दांपत्य जीवन

पत्नियां अब शादी को सिर्फ खाना पकाना, बच्चे पैदा करना और घरगृहस्थी संभालना मात्र ही नहीं मानतीं. लेकिन फिर भी महिलाओं के मन में यह कसक तो बनी ही रहती है कि पति शादी से वह सबकुछ पा जाता है जो वह चाहता है लेकिन उसे उस का पूरा हिस्सा ईमानदारी के साथ नहीं मिलता. जिस शारीरिक जरूरत को पति बेफिक्री व हक से प्राप्त कर लेता है जबकि पत्नी द्वारा उसी जरूरत की मांग करने पर उस को तिरस्कार से देखा जाता है.

अधिकतर महिलाएं पुरुषों की मानसिकता अब अच्छी तरह समझने लगी हैं. उन के अनुसार, भारतीय पुरुष आज भी दांपत्य रिश्तों के मामलों में आदिमानव की तरह ही हैं. जबकि पुरुषों के लिए यह समझना जरूरी है कि उन का दांपत्य जीवन और सैक्स से जुड़ी हर गतिविधि तभी सुखद व आनंददायी होगी जब वे शारीरिक व मानसिक तौर पर फिट होंगे.

आज के दौर में पति व पत्नी में शारीरिक संबंधों को खुल कर भोगने की लालसा तेज हुई है. लिहाजा, यह जरूरी है कि दांपत्य में झिझक से परे हो कर सुखों को आपस में ज्यादा से ज्यादा बांटने की कोशिश की जाए. भारतीय पुरुषों की सब से बड़ी समस्या यह है कि उन्हें एक अच्छे प्रेमी की भूमिका निभानी नहीं आती है और जो थोड़ीबहुत आती भी है वह पति के रूप में आते ही लगभग खत्म हो जाती है. पति के लिए करवाचौथ का व्रत रखने वाली, साड़ी और बिंदी में सजीसंवरी पत्नी अगर प्यार के सुख की चाहत रखती है तो वह पति की भृकुटि का निशाना बन जाती है.

एक हालिया सर्वेक्षण के अनुसार, 67 प्रतिशत भारतीय पुरुष पत्नी के साथ शारीरिक संबंधों को ले कर ज्यादा खुदगर्ज होते हैं.

पुरुष बनाम महिला

ब्रिटेन की आर्थिक एवं सामाजिक शोध परिषद द्वारा 40 हजार गृहिणियों पर किए गए अध्ययन से भी ज्ञात होता है कि पुरुषों की अपेक्षा वे विवाह से जल्दी ऊब जाती हैं क्योंकि महिलाएं संबंध बनाने में अधिक निष्ठा से सम्मिलित होती हैं जबकि पुरुष परस्पर संबंधों में लापरवाह होने के कारण भूल जाता है कि महिला को प्रेम की भी आवश्यकता है.

पुरुष अपने ऊपर लगे आरोपों का खंडन करते हुए कहते हैं कि प्रेम में कमी के लिए महिलाएं खुद दोषी हैं. क्योंकि शादी के बाद महिलाएं उतनी आकर्षक नहीं रह पातीं, जितनी वे शादी से पूर्व होती हैं. वे अपनी देखभाल उतनी नहीं करती हैं जितनी वे शादी से पूर्व करती थीं.

इस संबंध में कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि विपरीत लिंगी को आकर्षित करने के लिए किसी प्रकार के ढोंग की आवश्यकता नहीं है. सच्चे प्रेमी भौतिक प्रेम की अपेक्षा आत्मिक प्रेम को अधिक महत्त्व देते हैं. इसलिए शारीरिक रूप से आकर्षित करने का तरीका छोड़ना आप के लिए बेहतर होगा. जिसे आप पसंद करते हो, तो, ‘जो है जैसा है’ के आधार पर करें. यदि आप की प्रेमभावना उस के प्रति वास्तविक है तो वह ऐसी नहीं होगी कि वह शादी के बाद खत्म हो जाए. असीमित और अनावश्यक उम्मीद रखने पर आप को निराश होना पड़ेगा. अपनेआप को सच्चे जीवनसाथी के रूप में ढालने के बाद ही आप उन्मुक्त हो कर एकदूसरे के साथ जीवन का आनंद ले सकते हैं.       

बच्चों के बदलते रंगढंग, अभिभावक हो रहे तंग

राहुल के पेरैंट्स को उस समय गहरा सदमा लगा जब उन्हें पता चला कि उन के बेटे का लिवर खराब हो चुका है. उन्होंने 2 साल पहले राहुल को इंजीनियरिंग पढ़ने के लिए बेंगलुरु भेजा था. अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई का बड़ा हिस्सा वे अपने लाड़ले की पढ़ाई पर खर्च कर रहे थे. उन्हें भरोसा था कि पढ़लिख कर राहुल का कैरियर संवर जाएगा. बेटे से मिलने जब वे बेंगलुरु पहुंचे तो डाक्टरों ने बताया कि काफी ज्यादा नशा लेने की वजह से राहुल का लिवर खराब हो गया है. यह सुन कर उन्हें झटका लगा. पढ़ने के बजाय राहुल नशाखोरी करता रहा. सिर पीटने के अलावा उन के पास कोई चारा न था.

इस तरह के ढेरो वाकए हैं कि जब मातापिता बेटे को पढ़नेलिखने के लिए बाहर भेजते हैं और बेटा नशे के जाल में फंस कर अपनी जिंदगी व कैरियर चौपट कर लेता है.

पटना के एक बैंक अधिकारी हीरा सिन्हा के साथ कुछ ऐसा ही हादसा हुआ. 4 साल पहले उन्होंने बड़े ही जतन से अपने इकलौते बेटे रौशन को मैडिकल की कोचिंग के लिए दिल्ली भेजा था.

वे हर महीने बेटे के बैंक अकाउंट में 10 हजार रुपए डाल देते और निश्ंिचत थे कि उन का बेटा मैडिकल की जम कर तैयारी कर रहा है. एक दिन उन के पास पुलिस का फोन आया कि उन के बेटे ने खुदकुशी कर ली है. दिल्ली पहुंचे तो पता चला कि शुरुआत में एक महीना कोचिंग करने के बाद वह कभी कोचिंग करने गया ही नहीं. शराब और ड्रग्स की चपेट में फंस कर उस ने अपनी जिंदगी ही खत्म कर ली.

स्कूल, कालेज और कोचिंग क्लासेज करने वाले काफी ज्यादा बच्चे नशे के शिकार बन रहे हैं. जब नशे की वजह से किसी गंभीर और खतरनाक बीमारी की चपेट में आ जाते हैं तो उन्हें पता चलता है कि नशे ने उन का क्या बरबाद कर के रख दिया. ग्लानि और मातापिता के डर से कई खुदकुशी कर लेते हैं तो कईर् बीमारी का इलाज करातेकराते ही अपने जीवन का सुनहरा दौर खत्म कर लेते हैं.

रमेश कदम पटना में सैंकंड ईयर इंजीनियरिंग का स्टूडैंट है. पढ़ाई के दौरान ही उस की संगति नशेडि़यों से हो गई और शराब पीने की लत लग गई. उस की आंखें हमेशा लाल और चढ़ीचढ़ी रहने लगीं और वह बातबात पर चिड़चिड़ाने व झल्लाने लगा. घर वाले उसे डाक्टर के पास ले गए तो डाक्टर ने बताया कि रमेश नशे का आदी है. डाक्टर ने कहा कि नशामुक्ति केंद्र में डाल कर उस का इलाज कराएं.

बच्चे के रोज की दिनचर्या और उस की बदल रही गतिविधियों पर मातापिता को नजर रखनी चाहिए. बच्चे के रंगढंग में बदलाव दिखने पर सतर्क हो जाना चाहिए. नशा या किसी भी गलत काम करने वाला लड़का दिन या शाम में कोई खास समय पर घर से गायब होने लगता है. वह पढ़ाई करने, दोस्तों से नोट्स लेने, टीचर के पास जाने, दोस्तों द्वारा पार्टी देने आदि का बहाना बना कर रोज घर से निकलने लगेगा.

रोजरोज ऐसे बहाने बना कर बच्चा बाहर जाने की कोशिश करे तो शुरू में ही उसे समझाबुझा कर या हलकी डांटफटकार लगा कर पढ़ाई के लिए बैठने को कहें.

आखिर पढ़ाईलिखाई की उम्र में बच्चे कैसे और क्यों नशे के जाल में फंस जाते हैं? बच्चों के प्रति मातापिता और परिवार का ध्यान न देना इस की सब से बड़ी वजह है. ज्यादातर मातापिता बच्चों को किताब, कपड़े, मोबाइल, कंप्यूटर, रुपया दे कर अपनी जिम्मेदारी का खत्म होना समझ लेते हैं. जबकि उन्हें चाहिए कि रोज बच्चों के साथ बैठ कर पढ़ाई, टीचर, दोस्तों और उन के शौक के बारे में उन से बातें करें.

इस से बच्चा मातापिता और परिवार वालों से घुलामिला रहेगा. कभीकभार अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों के साथ मार्केटिंग, फिल्म देखने, डीवीडी लेने, पार्कों में घूमने भी जाएं, ताकि मनोरंजन के लिए उसे गलत रास्ता न अपनाना पड़े.

नशामुक्ति केंद्र में 6 माह तक इलाज करवा कर नशे से तोबा करने वाला रवि बताता है कि ग्रुप प्रैशर यानी दोस्तों के दबाव में उस ने शराब पीनी शुरू की. दोस्त उसे शराब पीने को कहते और वह मना करता तो उस की खिल्ली उड़ाई जाती. दूधपीता बच्चा, नामर्द, बबुआ और न जाने क्याक्या कहा जाता. इस से आजिज हो कर एक दिन शराब पी ली और फिर उस में ऐसा डूबा कि फिर निकलना मुश्किल हो गया.

मातापिता से आसानी से रुपया मिल जाना, कदमकदम पर आसानी से शराब, गुटखा, गांजा व नशे का अन्य सामान मिल जाना, पश्चिमी शैली की नकल, समाज में बढ़ता खुलापन, तनाव, अवसाद आदि वजहों से भी युवा नशे की गिरफ्त में फंसते हैं.

कम आयु में ही बच्चों को नशे की लत लगने से उन का जीवन, कैरियर, शरीर, परिवार और समाज पर काफी बुरा असर होता है. जिस आयु में उन्हें खुद को और परिवार व समाज को बनानेसंवारने का समय होता है, उस में नशाबाजी कर वे सब चौपट कर लेते हैं. सो, मातापिता को बच्चों के प्रति सतर्क होने की जरूरत है.

चेत जाएं मातापिता जब…

–       बच्चा बेसमय या किसी खास समय पर घर से रोज निकलने लगे.

–       अलमारी, दराज या आप के पौकेट से रुपए गायब होने लगें.

–       बच्चों की आंखें लाल और सूजी लगने लगें.

–       उलटी करें और नींद न आने की बात करें.

–       घर से कीमती सामान गायब होने लगें.

–       बाथरूम में ज्यादा समय गुजारें.

–       बच्चे सुबह देर से जगें.

–       परिवार के सदस्यों से दूरी बनाने लगें.

–       चिड़चिड़े और गुस्सैल हो जाएं.

–       खांसी का दौरा पड़ने लगे.

–       झूठ बोलने की आदत पड़ जाए.

 

“पांड्या बन सकते हैं भारत के बेन स्टोक्स”

श्रीलंका को पहले टेस्ट मैच में भारत ने 304 रनों से हराकर 3 टेस्ट मैचों की सीरीज में 1-0 से बढ़त बना ली है. टेस्ट करियर का पहला मैच खेल रहे हार्दिक पंड्या के प्रदर्शन से कप्तान विराट कोहली काफी खुश हैं. उन्होंने इस युवा खिलाड़ी की तारीफ करते हुए कहा कि आने वाले समय में पंड्या की वही भूमिका भारतीय टीम के लिए हो सकती है जो इस वक्त इंग्लैंड के बेन स्टोक्स की है. कोहली ने कहा कि हार्दिक आने वाले समय में भारत के लिए बेहतरीन औलराउंडर साबित हो सकते हैं.

कोहली ने पोस्ट मैच कौन्फ्रेंस में कहा, 'पंड्या में इंग्लैंड के बेहतरीन औलराउंडर खिलाड़ी बेन स्टोक्स जैसी प्रतिभा है और भारत के लिए वह स्टोक्स जैसे खिलाड़ी बन सकते हैं.' पंड्या अपनी आक्रामक बल्लेबाजी की वजह से कम समय में ही लोकप्रिय हो गए हैं. साथ ही वह एक अच्छे तेज गेंदबाज भी हैं. फील्डिंग में भी वह काफी चुस्त दिखते हैं. कई प्रमुख क्रिकेट दिग्गजों का भी मानना है कि हार्दिक पंड्या में बेहरतरीन औलराउंडर बनने की प्रतिभा है.

हार्दिक पंड्या ने श्रीलंका के खिलाफ पहले टेस्ट की पहली पारी में ताबड़तोड़ 49 गेंदों पर अर्धशतक जमाया, जिसमें 3 शानदार छक्के शामिल थे. साथ ही पहली पारी में 1 विकेट लेकर अपने पहले ही टेस्ट में उम्दा प्रदर्शन किया और भारत ने यह मुकाबला 304 रनों से जीत लिया.

बेन स्टोक्स फिलहाल विश्व के सबसे बेहतरीन औलराउंडर माने जाते हैं. इंग्लैंड और दक्षिण अफ्रीका के बीच चल रहे दूसरे टेस्ट मैच में स्टोक्स ने शानदार शतक ( 112 रन) भी लगाया और गेंदबाजी में 1 विकेट भी झटका है. भारत के कप्तान विराट कोहली के विश्वास पर हार्दिक पंड्या ने पहले टेस्ट में अच्छा प्रदर्शन किया है. अभी यह कहना भी जल्दबाजी होगा की वह टेस्ट में एक महान औलराउंडर बन सकते है.

वरुण का नितीश को इंकार

बौलीवुड में कुछ भी संभव है. सफलतम फिल्म ‘‘दंगल’’ में आमिर खान को निर्देशित करने के बाद फिल्म निर्देशक नितीश तिवारी हवा में उड़ने लगे हैं. उनका दावा रहा है कि उनके साथ बौलीवुड का हर कलाकार काम करने को लालायित है. मगर उनका यह दावा फुसफुसा पटाखा साबित हो गया.

वास्तव में फिल्म निर्माता सिद्धार्थ राय कपूर मशहूर उपन्यासकार वरुण गोयल की किताब ‘‘हाउ आई ब्रेव्ड अनू आंटी एंड स्टार्टेड ए मिलियन डौलर कंपनी’’ पर एक फिल्म का निर्माण कर रहे हैं, जिसके निर्देशन की जिम्मेदारी उन्होंने नितीश तिवारी को सौंपी है.

सूत्रों के अनुसार नितीश तिवारी इस फिल्म में हीरो के रूप में वरुण धवन को जोड़ना चाहते हैं. सूत्र दावा कर रहे हैं कि नितीश तिवारी ने समय लेकर वरुण धवन को फिल्म की पटकथा भी सुनायी, मगर वरुण धवन ने बड़ी विनम्रता के साथ उन्हें अंगूठा दिखा दिया. पर इसकी वजह बताने को कोई तैयार नहीं है.

वैसे नितीश तिवारी के नजदीकी सूत्र दावा कर रहे हैं कि वरुण धवन फिलहाल शुजीत सरकार के निर्देशन में फिल्म ‘‘अक्टूबर’’ करने जा रहे हैं, इसलिए इंकार किया. मगर हकीकत यह है कि वरुण धवन के पास ज्यादा फिल्में नहीं है. वह इस फिल्म को ‘अक्टूबर’ की शूटिंग पूरी करने के बाद भी कर सकते थे. खैर,आज नहीं तो कल सच सामने आएगा.

61 साल पहले आज ही के दिन हुआ था क्रिकेट का ये कारनामा

क्रिकेट इतिहास में कई बड़े रिकौर्ड बने हैं लेकिन 61 साल पहले आज के दिन एक ऐसा रिकौर्ड बना था जिसने सबको हैरान कर दिया था. ये एक ऐसा रिकौर्ड था जिसे तोड़ना आज भी नामुमकिन है.

यह एतिहासिक मुकाबला क्रिकेट की दो सबसे पुरानी व दिग्गज टीम औस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के बीच खेला गया था. ऑस्ट्रेलियाई टीम इंग्लैंड दौरे पर थी, मुकाबला मेनचेस्टर में खेला जा रहा था और ये सीरीज का चौथा मुकाबला था.

पारी के सभी दस विकेट चटकाना किसी करिश्मे से कम नहीं होता. क्रिकेट इतिहास में अब तक दो ही बार ऐसा हुआ है कि किसी पारी के सभी 10 के 10 विकेट किसी एक खिलाड़ी ने लिए हो.

सबसे पहले आज ही के दिन (31 जुलाई) 1956 में इंग्लैंड के जिम लेकर ने यह कारनामा किया था. इतना ही नहीं इस ऑफ स्पिनर ने अद्भुत प्रदर्शन करते हुए एक टेस्ट में 19 विकेट लेने का बेशकीमती कीर्तिमान अपने नाम किया.

जिम लेकर ने मैनचेस्टर के ओल्ड ट्रैफर्ड में इंग्लैंड-ऑस्ट्रेलिया सीरीज के चौथे टेस्ट में यह इतिहास रचा था. पहले बल्लेबाजी करते हुए पहली पारी में इंग्लैंड ने 459 रन बनाए. जवाब में उतरी औस्ट्रेलिया की पूरी टीम महज 84 रन पर ही ढेर हो गई. जिम लेकर ने उस पारी में 16.4 ओवर करते हुए 37 रन देकर 9 विकेट झटके थे. इस दौरान लेकर ने अपने 7 विकेट तो महज 8 रन के अंदर ही झटक लिए थे. तब जिम लेकर पूरे 10 विकेट लेने से चूक गए थे, क्योंकि एक विकेट टौनी लौक ने ले लिया था.

31 जुलाई को टेस्ट के आखिरी दिन फौलोआन खेलते हुए औस्ट्रेलिया ने अपनी दूसरी पारी में 84/2 के स्कोर से आगे खेलना शुरू किया था.

जिम लेकर ने इस पारी में 51.2 ओवर में 53 रन देते हुए 10 विकेट झटके और इस दौरान 23 मेडन ओवर भी फेंके. वो पहला मौका था जब किसी ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट की एक पारी में 10 विकेट लिए थे और एक ही टेस्ट मैच में 19 विकेट हासिल करने का कमाल किया था. इंग्लैंड ने वो मैच पारी और 170 रनों से जीता था.

सालों तक इस रिकौर्ड को कोई गेंदबाज नहीं तोड़ सका था लेकिन फरवरी 1999 में एक भारतीय गेंदबाज ने इस रिकौर्ड की बराबरी कर ली और वो ऐसा करने वाले दूसरे गेंदबाज बन गए. वो महान गेंदबाज और कोई नहीं बल्कि जंबो के नाम से मशहूर महान भारतीय स्पिनर व पूर्व कप्तान अनिल कुंबले थे जिन्होंने पाकिस्तान के खिलाफ दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान पर दूसरी पारी में पाक टीम के सभी 10 विकेट झटक लिए थे.

जिम लेकर ने 46 टेस्ट में 21.24 की औसत से कुल 193 विकेट लिए. फर्स्ट क्लास क्रिकेट की बात करें, तो लेकर ने 450 मैचों में 18.41 के एवरेज से 1944 विकेट झटके.

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