इन लोगों को भी तो अपना हक बूझना होगा, उस को पाने के लिए हाथपांव चलाना होगा. मतलब, पहल तो इन लोगों को ही न करना है. एक बार तन कर देखें तो. सारे हक मिलते चले जाते हैं कि नहीं? सब से पहले तो रिरियाना छोड़ना होगा.’’
‘‘हां साहब, ठीक कह रहे हैं आप. माओवादी लड़ाई कुछकुछ हक के प्रति सचेत हो जाने का परिणाम ही तो है,’’ पांडे ने कहा और फिर झुमकी की ओर मुखाबित होते हुए बोले, ‘लेले रे, लेले. साहब और तेरे बीच कोई बिचौलिया नहीं है न. साहब के हाथ से सीधे तेरे हाथ में आ रहा है इ अनुदान.’’
ग्राहक आगे बढ़ा और आम को झुमकी की हथेली में ठूंसते हुए हिनहिनाया, ‘‘तकदीर, मुकद्दर और भाग्य, सब बेकार बातें हैं, रे. जरूरी है हक बचाने के लिए लड़ाई की पहल. देख, इस आम की मालकिन अब तू हुई. यह पूरी तरह तेरा है. अब इस पर तेरा हक है. तकदीर तेरी मुट्ठी में कैद हो गई कि नहीं?’’
आम थामे झुमकी की हथेली थरथरा रही थी. आम की साफ पुखराजी रंगत और खरगोश सा मुलायम स्पर्श रोमांचित कर रहा था. पर आंखों में अविश्वास और डर अभी भी दुबका हुआ था.
‘‘बाबू, इ आम हम नहीं ले सकते. हम को उहे आम दिला दें,’’ फिर से लिजलिजी गिड़गिड़ाहट.
‘‘भाग सुसरी,’’ ग्राहक इस बात से उखड़ गया, ‘‘भाग, नहीं तो दू थप्पड़ लगा देंगे.’’
झुमकी चुपचाप पांडेजी की गुमटी से उतर आई और धीरेधीरे घर को जाने वाली राह पर आगे बढ़ने लगी. उसे अभी भी आंखों पर विश्वास नहीं हो रहा था कि हथेली में ताजा गोराचिट्टा लंगड़ा आम दुबका हुआ है. चलतेचलते अचानक रुकी और एक ओर खड़ी हो कर आम को भरपूर नजरों से निहारने लगी. उस निहार में एकसाथ आश्वस्ति, प्यार और तृप्ति के कईकई रंग घुले हुए थे. इतने करीब से इस तरह के साबुत आम को पहली बार देख रही है. आज तक जितने भी ग्राहक मिले, भीख में या तो एकाध सिक्का दिया या फिर परित्यक्त आमों में से एकाध दिला दिया. ताजा व पक्का आम पहली बार झोली में आया है. लग रहा था जैसे दलितों के लिए घोषित असंख्य सरकारी अनुदानों में से एक अनुदान एकदम मूर्त हो कर उस की झोंपड़ी के भीतर आ टपका हो. वह मन ही मन आम के रसीले स्वाद की कल्पना में खोने लगी. कदम तेजी से बस्ती की ओर बढ़ चले.
स्टेशन लांघ कर कदम कब लाइन पार आ गए और देखतेदेखते संन्यासी मोड़ भी कब आ पहुंचा, झुमकी को पता ही नहीं चला. तंद्रा टूटी तो सामने स्कूल का गेट दिखा. गेट बंद था. पीछे का ग्राउंड सूना. कक्षाएं समाप्त हो चुकी थीं न. झुमकी के पांव एक पल को गेट के पास थम गए. नजरें पखेरु सी उड़ती हुई पेड़ पर टंगे ‘सर्व शिक्षा अभियान’ के बोर्ड पर
जा बैठीं. बोर्ड में चित्रित निश्ंिचत मुसकराहटों को देख कर मन कचोट से भर गया.
वह आगे बढ़ने को उद्यत हुई ही थी कि सामने वाली पतली गली से निकल कर हवलदार निमाई बाबू प्रकट हो गए. खाकी वरदी, हाथ में रूल, आंखों में लोमड़ सी चमक. खाकी वरदी देख कर न जाने क्यों झुमकी की जान सूखने लगती है. मन में एक किस्म का डर रेंग जाता है. इस बार भी वही हुआ. भीतर ही भीतर कलेजा धकधक करने लगा. आसपास निपट सन्नाटा. दूरदूर तक कोई भी नहीं. एहतियात बरतते हुए आम वाली हथेली को पीछे ले जा कर फ्रौक के भीतर कर लिया.
‘का रे झुमकी?’ निमाई बाबू ने खींसें निपोर दिए, ‘धंधा से लौट रही?’
‘हां सर, एही वक्त तो लौटते हैं रोज,’ झुमकी मन ही मन फनफना उठी. हमरे काम को धंधा कहते हैं. खुद बाजार की दुकानों से और बस्ती वालों से वसूली करते हैं, वह धंधा नहीं है?
निमाई बाबू भी पोस्टमौर्टमी नजरें न जाने किस चीज की तलाश में उस के बदन का नखशिख मुआयना करने लगीं. निस्तेज चेहरा, सपाट छाती और किसी पुतले की सी पतलीपतली जांघें.
‘‘तोर काछे किच्छू नेई रे? (तेरे पास कुछ भी नहीं है रे?)’’ होंठों पर लिजलिजी हंसी उभर आई और आगे बढ़ कर रूल को उस की बांह पर 2-3 बार ठकठका दिया. रूल का स्पर्श होना था कि बांह थरथरा गई और हथेली से फिसल कर आम जमीन पर आ गिरा.
‘‘अयं…?’’ निमाई बाबू की आंखें विस्मय से फैल गईं, झुक कर आम को झट से उठा लिया, ‘‘इ आम कहां से मिला रे?’’
‘‘एगो साहब भीख में दिया, सर,’’ सफाई देती हुई झुमकी की जबान अनायास ही लड़खड़ा गई. निमाई बाबू की आंखों में अविश्वास सिमट आया. एक पल को झुमकी की आंखों के भीतर ताकते रहे, निर्निमेष, फिर हाहा कर के हंस पड़े, ‘‘एतना सुंदर आम भीख में? असंभव. सचसच बता, भीख में मिला या किसी दुकान से पार किया?’’
‘‘नहीं सर,’’ झुमकी की सांसें रुकनेरुकने को हो रही थीं, ‘‘पांडेजी की दुकान पर मिला. एक ग्राहक ने दिया. उन से पूछ लें.’’
हवलदार निमाई ने आम का एकदम करीब से अवलोकन किया. नाक के पास ले जा कर भरपूर सांस खींची तो नथुनों के भीतर महक अलौकिक सी महसूस हुई. ऐसा लगा जैसे इस महक में लंगड़ा आम की महक के अलावा भी एक अन्य सनसना देने वाली महक शामिल है. स्मृति में खलबली मच गई. ऊफ, याद क्यों नहीं आ रहा कि यह दूसरी महक कौन सी है? एकदम आत्मीय और जानीपहचानी. उत्तेजना के ये कुछेक पल बड़ी मुश्किल से ही कटे कि तभी आंखों में जुगनुओं की एकमुश्त चमक भर गई. अरे, यह महक शतप्रतिशत वही महक तो है जो दलितों के लिए घोषित मलाईदार सरकारी योजनाओं और अनुदानों से निकला करती है. खूब, ऐसी महक का स्वाद तो उन के जबान में गहराई से रचाबसा है. तभी तो…
‘‘ए,’’ निर्णय लेने में एक पल ही लगा, ‘‘ऐसा सुंदर और पका आम तुम लोग कैसे खा सकता है, रे? फिर सभ्य समाज का क्या होगा? यह आम तुझे नहीं मिल सकता.’’
‘‘हम को भीख में मिला, सर,’’ झुमकी किंकिया ही तो उठी.
‘‘हर चोर पकड़े जाने पर ऐसी ही सफाई देता. यह भीख का नहीं, चोरी का माल है,’’ निमाई बाबू के लहजे से हिकारत चू रही थी. ठीठ हिकारत.
‘‘हम सफाई नहीं दे रहे, सर. सच बोल रहे हैं. आप पांडेजी से पूछ लें.’’
‘‘पूछने की कोईर् जरूरत नहीं. यह चोरी का ही माल है. थाना में जमा होगा,’’ निमाई बाबू की आंखों में लोलुप चमक चिलक रही थी.
‘‘हम चोरी नहीं किए,’’ झुमकी के हौसले पस्त होते जा रहे थे.
‘‘चोप्प, जबान लड़ा रही? जब हम कह रहे हैं कि चोरी का माल है तो, बस, है.’’
‘‘हमारा यकीन करें, सर.’’
‘‘बोला न, चोप्प. एक शब्द भी बोला तो लौकअप में ले जा कर बंद कर देगा, समझी? प्रमाण लाना होगा. प्रमाण ले कर आओ, तब मिलेगा.’’
झुमकी स्तब्ध खड़ी रही. प्रमाण? हंह, भीख का प्रमाण मांग रहे? बाजार की दुकानों से और बस्ती से दैनिक वसूली करते हैं, उस का प्रमाण मांगा जाए तो…? तो दे सकेंगे? ग्राहक बाबू से कितना बोली थी कि ऐसे सुंदर आम उस जैसों के लिए नहीं होते. उन्होंने नहीं माना. बहादुरी में सरकारी योजनाओं और अनुदानों के बड़ेबड़े हवाले दे डाले. अरे, कोई भी सरकारी योजना या अनुदान सहीसलामत उन तक पहुंचता भी है? हंह, सब फुस हो गया न. उस के चेहरे पर स्याह मायूसी पुत गई. उसे महसूस हुआ जैसे हमेशा की तरह आज भी, कोई अनुदान मुट्ठी में आ जाने के बाद भी रेत की तरह फिसल कर अदृश्य हो गया है.
तभी उस की आंखें धुआंने लगीं. क्या वाकई सबकुछ इतनी आसानी से फुस हो जाने दे? ग्राहक बाबू ने कहा था न कि हक को पाने और बचाने के लिए चौकन्ना रहने के साथसाथ हाथपांव चलाते हुए संघर्ष की पहल करनी भी जरूरी है. पहल..? इस मौजूदा स्थिति में पहले के क्या विकल्प हैं, भला? वह नन्हीं जान, लंबेतगड़े निमाई बाबू से हाथापाई कर के जीत सकती है? आम छीन कर दौड़ भी पड़े तो निमाई बाबू लपक कर पकड़ लेंगे. आम तो जाएगा ही, भरपूर पिटाई भी खूब होगी.
तब?
उस का छोटा सा दिमाग तेजी से कईकई विकल्पों का जायजा ले रहा था. कोईर् तो पहल करनी ही होगी हक बचाने के लिए. एकदम आसानी से सबकुछ फुस नहीं होने देगी वह.
अचानक भीतर एक कौंध हुई. आंखें चमत्कृत रह गईं. कलेजा धकधक करने लगा. निमाई बाबू आम पा जाने की खुशी में चूर होते तनिक असावधान तो थे ही, झुमकी ने चीते की तरह लपक कर उन के हाथों से आम को कब्जे में लिया और पूरी ताकत से उस आम पर दांत गड़ा दिए.