Best Hindi Story : कहने को तो मैं और अमया आनंदी दीदी की सगी बहनें थीं लेकिन आस्था ने उन से स्नेह का ऐसा धागा बांध लिया था कि मुझे जलन होने लगी थी.

‘‘हैलो अंजनी, मैं आनंदी दीदी. सुनो मेरा टिकट बुक हो गया है. मैं 15 दिसंबर को इंडिया आ रही हूं. इस बार पहले अहमदाबाद जाऊंगी, वहां 3 दिन रुक कर तुम्हारे पास जयपुर आऊंगी.’’

अंजनी अचरज में पड़ गई, ‘‘दीदी, अहमदाबाद जाने की कोई खास वजह?’’

‘‘तेरे परेश जीजाजी की कांता मौसी की लड़की दीपाली की ननद आस्था के हाथ में फ्रैक्चर हो गया है, पिछले हफ्ते ही पता लगा और फिर यहां से सीधी फ्लाइट भी मिल रही है. 3 दिन वहां रुक कर आऊंगी तेरे पास.’’ ‘‘पर दीदी, आस्था से आप का खास रिश्ता तो है नहीं, फिर भी.’’

अंजनी और कुछ आगे बोलती उस के पहले ही दीदी बोल पड़ीं, ‘‘सात महीने पहले कांता मौसी यहां आई थीं. मेरे पास कुछ दिन रुकी थीं. मेरी बहुत बनी थी उन से. जाने के बाद भी उन से फोन पर बातें होती रहती हैं.’’
‘‘वह तो ठीक है, दीदी लेकिन आस्था से करीबी रिश्ता कैसे बन गया?’’

दीदी ने कहा, ‘‘जब मौसी यहां आई थीं तो पूरा समय दीपाली से ज्यादा आस्था की बातें करती थीं. आस्था भी उन से रोज बातें करती थी. मेरी भी उस से फोन पर बातें होती थीं. यहां से जाने के बाद कांता मौसी उस से मेरी बात करवाती थीं. बड़ी प्यारी लगती है वह मुझे उस की आवाज और बड़ी इज्जत से बात करना भाता है हमें. वैसे, आजकल तो अपने ही बच्चे कहां ढंग से बात करते हैं.’’
‘‘ठीक है, दीदी. मैं और अमया बेसब्री से आप का इंतजार कर रहे हैं. कुछ रुष्ट हो गई थी मैं.’’
‘‘मैं भी कर रही हूं, तुम दोनों बहनों के अलावा अब इंडिया में मेरा है ही कौन? दीदी ने कहा.

लेकिन पता नहीं क्यों आनंदी दीदी का आस्था के प्रति यह मोह कुछ खटका था. रात में मैं ने ज्ञान से जब आस्था के लिए आश्चर्य जताया तो वे सहजता से बोले, ‘‘विदेश में रहने वाले लोगों को हर रिश्ते बहुत अजीज और समीप लगते हैं. उन्हें प्यार की ही दरकार रहती है. यहां आते हैं तो सभी से मिलना चाहते हैं. हम लोगों का क्या है, यहीं रहते हैं तो दूरी नहीं लगती है और रिश्तेदारों से मिलने से बचना भी चाहते हैं.’’

ज्ञान ने सही बात तो कही है. हम लोग अपने देश तो क्या, एक ही शहर में रहने पर भी रिश्तों को बना कर नहीं रख पाते. गाहेबगाहे त्योहारों पर मिल कर रिश्ते निभाने की जैसे औपचारिकता पूरी करते हैं. पिछले महीने ही ज्ञान के चचेरे भाई के ससुर शांत हो गए.

खबर तो उसी दिन मिल गई थी लेकिन दूसरे दिन दीवा और दीप का मंथली टैस्ट था, ज्ञान के डायरैक्टर आने वाले थे तो उस दिन यह सोच कर नहीं गए कि अब जो होना था, हो गया, कौन से वे अपने करीबी रिश्तेदार हैं, चले जाएंगे दसवीं पर. यहां रह कर शायद हम जैसे लोगों के लिए रिश्ते महज जानपहचान और औपचारिकता की परिभाषा में सिमटे रहते हैं, लेकिन जब आनंदी दीदी और परेश जीजाजी भारत आते हैं तो अपने सब रिश्तेदारों के यहां जाते हैं.

पिछली बार जब दीदी आई थीं तो अमया की देवरानी के मातापिता भी कुछ दिनों के लिए आए थे तब अमया और दीदी में थोड़ी खटपट हो गई थी. दीदी की इच्छा थी कि वे सभी को किसी बड़े होटल में डिनर के लिए ले जाएं लेकिन अमया चिढ़ गई, ‘क्या जरूरत है पूरी बरात को ले जाने की. मेरी देवरानी के मातापिता आप के क्या लगते हैं?’

यह सुन कर दीदी को अच्छा नहीं लगा था, बोलीं, ‘हद करती है अमया. अरे, वे लोग बुजुर्ग हैं, उन्हें ले जाएंगे तो उन्हें सब के साथ अच्छा लगेगा.’ होटल में अमया तनीतनी सी रही. हम लोग पता नहीं क्यों रिश्तों को निभाने से बचना चाहते हैं. दूर के रिश्तों को छोड़ दें, सगे रिश्तों में जब कोई पारिवारिक कार्यक्रम हो तब ही जाना होता है. किसी और को क्या कहूं, सगे जेठ इसी शहर में रहते हैं. 15-20 दिनों में एकाध बार फोन पर बात होती है, महीने में एकाध बार मिलना होता है.

सासससुर साल में 2 महीने के लिए बारीबारी से एकएक महीने के लिए रहने आते हैं तब उन के यहां जाने से मेलमिलाप बढ़ जाता है. लेकिन उन के जाने के बाद कभी बच्चों की परीक्षाएं कभी बीमारी, किटी पार्टी में समय निकल जाता, मिलना ही नहीं हो पाता.
अहमदाबाद में 3 दिन रहने के बाद जब दीदी आईं तो उन की जबान से आस्था का नाम ही नहीं हट रहा था. वे किसी न किसी बात में आस्था का प्रसंग निकाल ही लेती थीं. पता नहीं क्यों बिना आस्था को देखे मुझे उस से ईर्ष्या होने लगी थी. ऐसा क्या जादू कर दिया था आस्था ने. दोपहर में अमया भी आ गई. उस ने भी महसूस किया कि इस बार दीदी के स्नेहबंधनों में एक सिरा आस्था का भी जुड़ गया है.

शाम को जब आनंदी दीदी को चाय का कप पकड़ाया तो हठात वे बोल पड़ीं, ‘‘अनी, तुम्हें पता है, आस्था को शायद कांता मौसी ने एकाध बार बताया होगा कि मुझे चाय बड़े मग जैसे कप में और बिना शक्कर के अच्छी लगती है तो आस्था ने मेरे लिए 2 बड़े मग खरीद लिए थे.

पगली लड़की.’’ दीदी के इस पगली शब्द में दुनियाभर का लाड़ समाया था. दीदी ने भले ही बड़े मग की बात सहजता से कही किंतु मुझे अपने चाय के कप का छोटा साइज देख कर कुछ कुंठा सी हो आई थी. मैं ने दीदी का चेहरा पढ़ने की कोशिश की, लेकिन वे मनोयोग से छोटे कप में चाय सुड़क रही थीं. उसी समय टोरंटो से परेश जीजाजी का फोन आया.
दीदी ने एकदो वाक्य के बाद ही आस्था का गुणगान शुरू कर दिया. ‘‘परेश, इस बार अहमदाबाद में बहुत अच्छा समय निकला. हांहां, मैं ने आस्था से कहा है, वह सनाया (दीदी की बेटी) की शादी में जरूर आए. परेश, तुम भी जब इंडिया आओ तो कोशिश करना कि एकाध दिन अहमदाबाद में रुक सको.’’ दीदी के फोन रखने के बाद अमया से रहा नहीं गया, बोल ही दिया, ‘‘क्या दीदी, इस बार तो लगता है आस्था ने आप पर कोई जादू कर दिया है.’’
अमया की  तल्ख आवाज से दीदी शायद चौंक गई थीं. ‘‘अरे नहीं, मुझे लगा कि परेश को भी आस्था से मिलना चाहिए, बड़ी समझदार लड़की लगी मुझे.’’ अमया के पति नितिन ने चुटकी लेते हुए दोनों को छेड़ा, ‘‘भई, दीदी को यदि आस्था पसंद आ गई है तो आप लोग क्यों डर रही हो, क्या आप लोगों का पत्ता कटने वाला है?’’
दीदी खिलखिला कर हंस दीं लेकिन अमया बिफर सी गई, ‘‘क्या नितिन, आप भी कैसी बातें करते हैं. हमें क्यों बुरा लगेगा?’’ रात में बिस्तर पर लेटते बारबार मुझे आनंदी दीदी का आस्था के बारे में इतनी बातें करना याद आता रहा. कहने को आस्था से कोई खास रिश्ता न होने पर भी दीदी को उस में कितना अपनापन लगा था और हम लोग हैं जिन्हें सगे रिश्ते निभाना बेवजह ढोने जैसा लगता है.
कल ही तो बगल वाले फ्लैट वाली श्रीमती अस्थाना आई थीं. उन का उतरा चेहरा देख वजह पूछी तो बेमन से बताया कि उन के पति की बूआ एक शादी में यहां आ रही हैं, 3 दिन उन के यहां रात में रुकेंगी. श्रीमती अस्थाना परेशान थीं कि 2 बेडरूम के फ्लैट में कैसे मैनेज करेंगी, एक बच्चों का है, एक खुद का. कहां सुलाएंगी उन्हें?
मैं ने कहा, ‘बच्चों का बिस्तर बाहर वाले कमरे में लगा देना, रात की ही तो बात है.’ वे बोलीं, ‘मेरे बच्चे तो 10 मिनट भी अपना कमरा दूसरों को नहीं दे सकते.’ ‘तो आप लोग बाहर सो जाना.’ ‘अरे वाह, कैसे, मु?ो तो पलंग पर ही सोने की आदत है. इन को भी नीचे सोने की आदत बिलकुल ही नहीं है,’ बुरा सा मुंह बना कर वे बोली थीं. मु?ो पिछले महीने की बात याद आ गई, मौसी सास की बहू अपने दोनों बच्चों का एडमिशन शहर के बोर्डिंग स्कूल में करवाने आई थीं. 3-4 दिनों की औपचारिकताएं थीं, उन के साथ जाना पड़ता था. उन दिनों मैं बुरी मानसिक स्थिति से गुजरी थी. बजट गड़बड़ाने का बहाना ले कर ज्ञान पर कई बार कटाक्ष भी किया था मैं ने. वे बेचारे चुपचाप सुनते रहते थे.
चौथे दिन जब बहू ने जाने की बात कही तो मेरे चेहरे की रौनक लौटने के साथ ही मेरी आवाज में मुलामियत आ गई और तत्परता से रास्ते में उन्हें खाना बना कर देने की तैयारी में लग गई. ज्ञान ने कान में चुटकी ले कर कहा था, ‘बधाई मेहमानों की विदाई की.’ मन में सोचा, आस्था को सचमुच दीदी का रहना अच्छा लगा था या वह सिर्फ दिखावा कर रही थी.
दूसरे दिन दीदी ने वह बैग खोला जो अमूमन हम लोगों के लिए सामान से भरा होता है. मेरे और ज्ञान के लिए परफ्यूम, ज्ञान के लिए ब्लैक लेबल, मेरे लिए कौस्मैटिक्स बौक्स, यूटिलिटी बैग, बच्चों के डिजिटल गेम्स.
यही सब अमया के परिवार लिए भी था. ‘‘दीदी, आप आस्था को कुछ खास दे कर आई होंगी न?’’ मन का संशय जबान पर आ गया. मैं और अमया अपनी चीजों से ज्यादा यह जानने को उत्सुक थे. ‘‘कुछ खास नहीं,’’
दीदी ने लापरवाही से कहा, ‘‘एक पर्ल का सैट उसे जबरदस्ती दिया, वह तो लेने को तैयार ही न थी.’’ ‘‘और दीदी, उस ने आप को कुछ दिया?’’
‘‘अरे नहीं, वह तो तुम लोगों से भी छोटी है. जब तुम से नहीं लेती हूं तो उस से कैसे ले सकती हूं. वह तो बहुत पीछे पड़ी थी कि गुजराती ट्रैडिशनल बैग, चप्पल, दुपट्टा ले लूं लेकिन मैं जानती थी कि वह मुझे सामान के पैसे नहीं देने देगी. यह सुन कर लगा, हम तो आस्था से बहुत छोटे हो गए हैं. 10-12 दिन खूब मौजमस्ती, घूमने, फिल्म देखने में निकल गए. दीदी ने खुद के साथसाथ हम लोगों के लिए भी साडि़यां, ज्वैलरी खरीदी. फ्लाइट से 2 दिन पहले एक बड़ा पार्सल दीदी के नाम आया. आस्था ने अहमदाबाद से भेजा था. दीदी के लिए ग्लास वर्क के कुरते, मोजड़ी, स्टौल, काठियाबाड़ी बेडशीट और तो और मेरे और अमया के लिए भी खूब सुंदर कढ़ाई वाले कुरते थे. सामान देख कर दीदी की आंखें भर आईं.
आस्था को उन्होंने तुरंत फोन लगाया, भर्राई आवाज में प्यारी डांट लगाई. ‘‘बेटा, तुम्हें ये सब भेजने की क्या जरूरत थी, पगली लड़की?’’ दीदी का लाड़ साफ झलक रहा था.
उधर से आस्था ने कहा, ‘‘आप हमारे बड़े हैं. हम कितना भी करें, आप के प्यार, स्नेह के सामने यह कुछ भी नहीं है.’’
‘‘फिर भी आस्था,’’ दीदी के कुछ और कहने से पहले ही वह बोली, ‘‘आप के आदर्श, आप का बड़प्पन और आप जो हैं वह हमें कितना मानसिक संतोष देता है कि हमारे लिए भी कोई तो है. ऐसे मौके बारबार आते रहें, आप जब चाहें जितने दिनों के लिए आना चाहें आएं, हमें खुशी होगी.’’

दीदी ने भरे गले से, ‘‘सदा ख़ुश रहो’’ कह कर फोन काट दिया. सामान देख कर थोड़ी जलन हुई, ‘दीदी, आप को क्या चाहिए?’ पूछने पर उन का एक ही जबाव होता था, ‘अब मैं तुम लोगों से कुछ लूंगी? मेरी बेटियों जैसी हो तुम.’ और हम सोच लेते थे कि हम उन्हें दे भी क्या सकते हैं. हम तो हैं ही छोटे, वह ही हमें लबालब कर देती थीं.

लेकिन आस्था ने तो एक पल में हमें बहुत ही छोटा कर दिया था. हमें दीदी से पूछने की क्या जरूरत होनी चाहिए कि क्या चाहिए आप को, दे देना चाहिए और जबरदस्ती उन्हें थमा देना चाहिए. दीदी बड़े प्यार से आस्था का भेजा एकएक सामान करीने से सूटकेस में जमा रही थीं और हमारा मन कचोट रहा था यह देख कर. एहसास हो गया था कि आस्था, दीदी की कुछ भी न होते हुए भी उन के साथ एक खास प्यारे और स्नेह वाले सगे रिश्ते में बंध गई थी.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...