रूपा का पत्र पढ़ कर मन चिंतित हो उठा. वह आ रही है और अभी वेतन प्राप्त होने में 10 दिन शेष हैं. खाली पड़े नाश्ते के डब्बे मुझे मुंह चिढ़ा रहे थे. नाश्ते में मक्खन का प्रयोग कब का बंद हो चुका है. बड़ी तो सब समझती है. वह डबलरोटी पर चटनी, जैम कुछ भी लगा कर काम चला लेती है पर छोटी वसुधा तो गृहस्थी की विवशताओं से अनजान है. वह नित्यप्रति मक्खन के लिए शोर मचाती है. ऐसे में रूपा आ रही है पहली बार नन्हे बच्चे के साथ. पिछली बार आई थी तो 200 रुपए की साड़ी देते कैसी लज्जा ने आ घेरा था. फिर इस बार तो पति व बच्चे के साथ आ रही है. कितना भी कम करूं हजार रुपए तो खर्च हो ही जाएंगे. सामने रूपा का पत्र नहीं मानो अतीत का पन्ना फड़फड़ा रहा था. पिताजी ईमानदार, वेतनभोगी साधारण सरकारी कर्मचारी थे. जहां उन के सहयोगियों ने जोड़तोड़ लगा कर कार व कोठी खरीद ली वहीं वे अपनी साइकिल से ही संतुष्ट रहे. उन के कनिष्ठ जीहुजूरी व रिश्वत के बल पर पदोन्नति पाते गए जबकि वे हैडक्लर्क की कुरसी से ही जीवनभर चिपके रह गए.

मेरे जन्म के पश्चात जब 5 वर्ष तक घर में कोई और शिशु न जन्मा तो पुत्र लालसा में अंधी मां अंधविश्वासों में पड़ गईं, किंतु इस बार भी उन की गोद में कन्यारत्न ही आया. रूपा के जन्म पर मां किंचित खिन्न थीं. पिता के माथे पर भी चिंता की रेखाएं गहरी हो उठी थीं किंतु मेरी प्रसन्नता की सीमा न थी. मेरा श्यामवर्ण देख कर ही पिता ने मुझे श्यामा नाम दे रखा था. अपने ताम्रवर्णी मुख से कभीकभी मुझे स्वयं ही वितृष्णा हो उठती. मांपिताजी दोनों गोरे थे फिर प्रकृति ने मेरे साथ ही यह कृपणता क्यों की. किंतु रूपा शैशवावस्था से ही सौंदर्य का प्रतिरूप थी. विदेशी गुडि़या सी सुंदर बहन को पा कर मेरी आंखें जुड़ा गईं. उसे देख मेरा प्रकृति के प्रति क्रोध कुछ कम हो जाता, अपने कृष्णवर्ण का दुख मैं भूल जाती. मैं अपनी कक्षा में सदैव प्रथम आती थी. परंतु बीए के पश्चात मुझे अपनी पढ़ाई से विदा लेनी पड़ी. पिताजी की विवश आंखों ने मुझे प्रतिवाद भी न करने दिया. रूपा अब बड़ी कक्षा में आ रही थी और पिताजी दोनों की शिक्षा का भार उठा सकने में असमर्थ थे. हम जिस मध्यमवर्ग का प्रतिनिधित्व करते हैं वहां कन्या का एकमात्र भविष्य उस का विवाह ही है, इस में भी मेरा श्यामवर्ण आड़े आ रहा था. यहांवहां, भागदौड़ कर के आखिरकार पिताजी ने मेरे लिए एक वर जुटा लिया. प्रभात न केवल एक सरकारी अनुष्ठान में सुपरवाइजर थे वरन उन के पास अपना स्कूटर भी था. जिस का जीवन साइकिल के पहियों से ही घिसटता रहा हो उस के लिए स्कूटर वाला जामाता पा लेना वास्तव में बहुत बड़ी बात थी.

बिना दानदहेज के विवाह संपन्न हो गया. प्रभात सुलझे विचारों के थे. उन के साथ सामंजस्य मुझे कुछ कठिन न लगा. रूपा तो अपने स्कूटरधारी जीजा पर जीजान से कुरबान थी. कभी प्रभात उसे स्कूटर पर चाटपकौड़े खिला लाते तो वह हर्षातिरेक में उछल पड़ती. दिनभर उन्हीं का गुणगान करती. रूपा का आगमन मेरे हृदय में उल्लास का प्रकाश फैला देता. मेरी डेढ़दो सौ रुपए की साडि़यां ही उसे अमूल्य लगतीं. वह बारबार उन्हें छू कर पहनओढ़ कर भी तृप्त न हो पाती. कभी तीजत्योहार पर हम उसे रेशमी सूट सिलवा देते तो उस की निश्छल आंखों में कृतज्ञता के दीप जल उठते. पिता के घर में हम केवल सूती वस्त्र ही पहन पाते थे. पिताजी ने जीवनभर खादी ही पहनी थी. खादी उन का शौक नहीं, विवशता थी. गांधी जयंती पर खादी के वस्त्रों पर विशेष छूट मिलती, तभी पिताजी हमारे लिए सलवार, कुरतों के लिए छींट का कपड़ा लाते. उन्हीं दिनों वे सस्ती चादरें व परदे भी खरीद लिया करते थे. उन के अल्प वेतन में मां की साड़ी कभी न आ पाती. मामा अवश्य कभीकभी मां को बढि़या रेशमी साड़ी दिया करते थे. उन साडि़यों को मां सोने सा सहेज कर रखतीं और विशेष अवसरों पर ही पहनती थीं.

मेरे विवाह पर वर पक्ष ने खालिस सोने के झुमके और हार के साथ 11 साडि़यां दी थीं, जिन्हें देख कर सब प्रसन्न हो उठे. सब ने मां को बारबार बधाई दी और पिताजी से खुशी जाहिर की. मां तो बावरी सी हो उठी थीं. मुझे हृदय से लगा कर कहतीं, ‘कौन कहता है मेरी श्यामा काली है, वह तो हीरा है. तभी तो ऐसा घरवर मिला है,’ सभी मेरी खुशहाली की सराहना करते. प्रभात की निश्चित आय में मेरी गृहस्थी की गाड़ी सुचारु रूप से चल रही थी. मध्यवर्गीय कन्या के स्वप्न भी तो सीमित ही होते हैं. मैं ने कोठी, बंगला, गाड़ी के स्वप्न कहां देखे थे. आशा से अधिक सुख मेरी झोली में आ गिरा था. रूपा को प्रकृति ने सौंदर्य खुले हाथों से बांटा था पर बुद्धि देने में कृपणता दिखा गई. 2 प्रयासों में भी वह बीए न पास कर सकी तो पिताजी हताश हो गए और उस के विवाह के लिए चिंतित रहने लगे. प्रथम प्रयास में ही रूपा का विवाह एक समृद्ध परिवार में तय हो गया. वर पक्ष उस के सौंदर्य पर ऐसा मुग्ध हुआ कि झटपट हीरे जडि़त 2 वलय, रूपा के हाथों में पहना कर मानो उसे आरक्षित कर लिया. वर पक्ष की इस शीघ्रता पर हम दिल खोल कर हंसे भी थे. रूप की कनी कहीं हाथों से न निकल जाए, इसलिए उन्होंने विवाह तुरंत करना चाहा.

अभी तक मैं संपन्न न सही किंतु सुखी अवश्य थी. किराए का ही सही, हमारे पास छोटा सा आरामदेह घर था, प्यार करने वाला पति, अच्छे अंकों से पास होने वाली 2 अनुपम सुंदर बच्चियां. सुखी होने के लिए हमें और क्या चाहिए. परंतु रूपा का विवाह होते ही अचानक मैं बेचारी हो उठी. मां अकसर रूपा के ससुरकुल के वैभव का बखान करतीं, ‘रूपा के पति का पैट्रोल पंप है. ससुर की बसें चलती हैं. उस के 4 मकान हैं,’ आदिआदि. रूपा सुखी है, संपन्न है. इस से अधिक प्रसन्नता का विषय मेरे लिए और क्या हो सकता है. मैं भी अपने प्रतिवेशियों को रूपा के ससुरकुल की संपन्नता का विवरण दे कर प्रभावित करने का प्रयत्न करती. मौसी का घर कितना बड़ा है. उन के घर कितने नौकर हैं, कितनी गाडि़यां हैं, यह चर्चा अकसर मेरी बेटियां भी करती रहतीं.

पर अब सबकुछ बदलाबदला सा नजर आने लगा था. कल तक प्रभात का स्कूटर ही मेरे पितृकुल के लिए गर्व का विषय था. आज रूपा की विदेशी गाड़ी के समक्ष वह खटारा साबित हो गया. मेरे सोने के झुमके और हार रूपा के हीरेमाणिक जड़े आभूषणों के समक्ष हेय हो उठे. मेरी सिल्क की साडि़यां उस के आयातित वस्त्रों के सामने धूमिल पड़ गईं. कोई भी चमत्कार प्रभात की आय में ऐसी वृद्धि न कर सकता था जिस से हम संपन्नता की चादर खरीद पाते. न हमें कोई खजाना मिलने की आशा थी. बौनेपन का एहसास तभी से मेरे मन में काई की तरह जमने लगा. बेटियां जब अपने घर की तुलना मौसी के बाथरूम के साथ करतीं तो मेरा मन खिन्न हो उठता. मातापिता व इकलौती छोटी बहन का परित्याग भी तो संभव न था कल तक मां गर्वपूर्वक कहती थीं, ‘श्यामा के घर से 11 साडि़यां आई थीं,’ पर अब कहती हैं, ‘बेचारी श्यामा के घर से तो मात्र 11 साडि़यां आई थीं और वे भी एकदम साधारण. रूपा की ससुराल का घर भी बड़ा है और दिल भी. तभी 51 साड़ी चढ़ावे में लाए थे, कोई भी हजार रुपए से कम की न थी.’

 

पिताजी सब समझते थे पर कुछ न कहते. बस, एक गंभीर मौन उन के चेहरे पर पसरा रहता. ऊंट बहुत ऊंचा होता है पर जब वह पहाड़ के सामने आता है तब उसे अपनी लघुता का ज्ञान होता है. मैं सुखी थी, संतुष्ट थी किंतु रूपा के वैभव की चकाचौंध से मेरी गृहस्थी में शांति न रही. मैं दिनरात आय बढ़ाने के उपाय सोचती रहती. कभी स्वयं नौकरी करने का विचार करती. मैं चिड़चिड़ी होती जा रही थी. प्रभात नाराज और बेटियां सहमी रहने लगीं. अपनी पदावनति से मैं व्यथित थी. जिस घर में मेरा राजकुमारी की तरह स्वागत होता था, मेरे पहुंचते ही हर्ष और उल्लास के फूल खिल उठते थे, वहां अब मेरा अवांछित अतिथि की भांति ठंडा स्वागत होता. तीजत्योहार पर मां मुझे सूती साड़ी ही दे पाती थीं. मैं उसी में प्रसन्न रहती थी. परंतु अब देखती हूं, मां रूपा को कीमती से कीमती साड़ी देने का प्रयत्न करतीं. उस के घर मेवामिष्ठान भेजतीं. फिर मेरी ओर बड़ी निरीहता से निहार कर कहतीं, ‘तू तो समझदार है, फिर तेरे यहां देखने वाला भी कौन है? रूपा तो संयुक्त परिवार में है. उस के घर तो अच्छा भेजना ही पड़ता है,’ मानो वे अपनी सफाई दे रही हों.

प्रभात के आते ही जो मां पहले उन की पसंद का हलवा बनाने बैठ जाती थीं अब अकसर उन्हें केवल चाय का कप थमा देतीं. किंतु रूपा के आते ही घर में तूफान आ जाता. उस की मोटर की ध्वनि सुनते ही मां द्वार की ओर लपकतीं. तब उन का गठिया का दर्द भी भाग जाता. रूपा के पति के आते ही प्रभात का व्यक्तित्व फीका पड़ जाता. कभीकभी तो उन्हें अपनी आधी चाय छोड़ कर ही बाजार नाश्ता लेने जाना पड़ता. स्त्री सब कुछ सहन कर सकती है किंतु पति की अवमानना उसे स्वीकार नहीं होती. कल तक वे उस घर के ‘हीरो’ थे, आज चरित्र अभिनेता बन गए थे. प्रभात सरल हृदय के हैं. वे इन बातों पर तनिक भी ध्यान नहीं देते. रूपा के पति को छोटे भाई सा ही स्नेह देते हैं. उस के लिए कुछ करने में संतुष्टि पाते हैं किंतु मांपिताजी के बदले हुए व्यवहार से मुझे मर्मांतक पीड़ा होती. आज उसी रूपा का पत्र मेरे हाथ में है. वह आ रही है. उस की विदेशी गाड़ी मेरे जीर्णशीर्ण घर के समक्ष कैसी लगेगी? उस के बच्चे को कम से कम 2 सूट तो देने ही पड़ेंगे. पति पहली बार आ रहा है, उसे भी कपड़े देने पड़ेंगे. रूपा को तो वही साड़ी दे दूंगी जो प्रभात मेरे लिए शादी की सालगिरह पर लाए थे. प्रभात से छिपा कर पिछले दिनों मैं ने 2 ट्यूशन किए थे. उस के रुपए अब तक बचा कर रखे हैं. सोचा था, बच्चियों के पढ़ने के लिए मेजकुरसी खरीद लूंगी. परदे बदलने का भी विचार था पर अब सब स्थगित करना पड़ेगा. रूपा का स्वागतसत्कार भली प्रकार हो जाए, वह प्रसन्न मन से वापस चली जाए, यही एक चिंता थी.

संध्या को प्रभात के आने पर रूपा का पत्र दिखाया तो वे प्रसन्न हो उठे. जब मैं ने लेनदेन का प्रश्न उठाया तो बोले, ‘‘क्या छोटीछोटी बातों पर परेशान होती हो. हमारी गृहस्थी में जो है, प्रेम से खिलापिला देना. आज नहीं है तो नहीं देंगे, कल होगा तो अवश्य देंगे, क्या वह दोबारा नहीं आएगी?’’ प्रभात संबंधों की जटिलता नहीं समझते. छोटी बहन को खाली हाथ विदा करने से बड़ी विवशता मेरे लिए अन्य क्या हो सकती है. वे तो बात समाप्त कर के सो गए पर मुझे रातभर चिंता से नींद न आई. 3-4 दिन बीत गए. किसी गाड़ी की ध्वनि सुनाई देती तो हृदय की धड़कन बढ़ जाती. 5वें दिन रूपा का पत्र आया कि वह नहीं आ रही है और मैं ने राहत की सांस ली.

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