अकसर बचपन में भी सुनते थे और अब भी सुनते हैं कि गांधीजी ने कहा था कि कोई एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा भी आगे कर देना चाहिए. समय के उस दौर में शायद एक गाल पर चांटा मारने वाले का भी कोई ऐसा चरित्र होता होगा जिसे दूसरा गाल भी सामने पा कर शर्म आ जाती होगी.

आज का युग ऐसा नहीं है कि कोई लगातार वार सहता रहे क्योंकि वार करने वालों की बेशर्मी बढ़ती जा रही है. उस युग में सहते जाना एक गुण था, आज के युग में सहे जाना बीमारी बनता जा रहा है. ज्यादा सहने वाला अवसाद में जाने लगा है क्योंकि उस का कलेजा अब लक्कड़, पत्थर हजम करने वाला नहीं रहा, जो सामने वाले की ज्यादती पर ज्यादती सहता चला जाए.

पलट कर जवाब नहीं देगा तो अपनेआप को मारना शुरू कर देगा. पागलपन की हद तक चला जाएगा और फिर शुरू होगा उस के इलाज का दौर जिस में उस से कहा जाएगा कि आप के मन में जो भी है उसे बाहर निकाल दीजिए. जिस से भी लड़ना चाहते हैं लड़ लीजिए. बीमार जितना लड़ता जाएगा उतना ही ठीक होता जाएगा.

अब सवाल यही है कि इतना सब अपने भीतर जमा ही क्यों किया गया जिसे डाक्टर या मनोवैज्ञानिक की मदद से बाहर निकलना पड़े? पागल होना पड़ा सो अलग, बदनाम हुए वह अलग.

हर इनसान का अपनाअपना चरित्र है. किसी को सदा किसी न किसी का मन दुखा कर ही सुख मिलता है. जब तक वह जेब से माचिस निकाल कर कहीं आग न लगा दे उस के पेट का पानी हजम नहीं होता. इस तरह के इनसान के सामने अगर अपना दूसरा गाल भी कर दिया जाएगा तो क्या उसे शर्म आ जाएगी?

गलत को गलत कहना जरूरी है क्योंकि गलत जब हमें मारने लगेगा तो अपना बचाव करना गलत नहीं. अब प्रश्न यह भी उठता है कि कैसे पता चले कि गलत कौन है? कहीं हम ही तो गलत नहीं हैं? कहीं हम ने ही तो अपने दायरे इतने तंग नहीं बना लिए कि उन में आने वाला हर इनसान हमें गलत लगता है?

हमारे एक सहयोगी बड़ा अच्छा लिखते हैं. अकसर पत्रिकाओं में उन की रचनाओं के बारे में लिखा जाता है कि उन का लिखा अलग ही होता है और प्रेरणादायक भी होता है. सत्य तो यही है कि लेखक के भीतर की दुनिया उस ने स्वयं रची है जिस में हर चरित्र उस का अपना रचा हुआ है. यथार्थ से प्रेरित हो कर वह उन्हें तोड़तामरोड़ता है और समस्या का उचित समाधान भी करता है.

जाहिर है, उन का अपना चरित्र भी उन की लेखनी में शतप्रतिशत होता है क्योंकि काला चरित्र कागज पर चांदनी नहीं बिखेर सकता और न ही कभी संस्कारहीन चरित्र लेखनी में वह असर पैदा कर सकता है जिस में संस्कारों का बोध हो. जो स्वयं ईमानदार नहीं उस की रचना भी भला ईमानदार कैसे हो सकती है.

मेरे बड़े अच्छे मित्र हैं ‘मानव भारद्वाज’. खुशमिजाज हैं और स्पष्टवादी भी. गले की किसी समस्या से जू   झ रहे हैं. जूस, शीतल पेय और बाजार के डब्बाबंद हर सामान को खाने  से उन के गले में पीड़ा होने लगती है, जिस का खमियाजा उन्हें रातरात भर जाग कर भरना पड़ता है. कौफी पीने से भी उन्हें बेचैनी होती है. वे सिर्फ चाय पी सकते हैं. अकसर शादीब्याह में कभी हम साथसाथ जाएं तो मु   झे उन्हें देख कर दुख भी होता है. चुपचाप शगुन का लिफाफा थमा कर खिसकने की सोचते हैं.

‘‘कुछ तो ले लीजिए, मानव.’’

‘‘नहीं यार, यहां मेरे लायक कुछ नहीं है. तुम खाओपिओ, मैं यहां रुका तो किसी न किसी की आंख में खटकने लगूंगा.’’

‘‘आप के तो नखरे ही बड़े हैं, चाय आप नहीं पीते, कौफी आप के पेट में लगती है, जूस से गला खराब होता है, इस में अंडा है… उस में यह है, उस में वह है. आप खाते क्या हैं साहब? हर चीज में आप कोई न कोई कमी क्यों निकालते रहते हैं.’’

मुसकरा कर टालना पड़ता है उन्हें, ‘‘पानी पी रहा हूं न मैं. आप चिंता न करें… मु   झे जो चाहिए मैं ले लूंगा. आप बेफिक्र रहें. मेरा अपना घर है…मेरी जो इच्छा होगी मैं अपनेआप ले लूंगा.’’

‘‘अरे, मेरे सामने लीजिए न. जरा सा तो ले ही सकते हैं.’’

अब मेजबान को कोई कैसे सम   झाए कि एक घूंट भी उन्हें उतना ही नुकसान पहुंचाता है जितना गिलास भर कर.

‘‘मेरे घर पर कोई आता है तो मैं उस से पूछ लेता हूं कि वह क्या लेगा. जाहिर है, हर कोई अपने घर से खा कर ही आता है… हर पल हर कोई भूखा तो नहीं होता. आवभगत करना शिष्टाचार का एक हिस्सा है लेकिन कहां तक? वहां तक जहां तक अतिथि की जान पर न बन आए. वह न चाहे तो जबरदस्ती नहीं करनी चाहिए.’’

‘‘तब तो आप अच्छे मेजबान नहीं हैं. अच्छा मेजबान तो वही है जो मना करने पर भी अतिथि की थाली भरता जाए.’’

इस विषय पर अकसर हम बात करते हैं और उन्हें मु   झ से मिलना अच्छा लगता है क्योंकि मैं कोशिश करता हूं कि उन्हें सम   झ पाऊं. वे कुछ खाना न चाहें तो मेरा परिवार उन्हें खाने को मजबूर नहीं करता. वैसे वे स्वयं ही चाय का कप मांग लेते हैं तो हमें ज्यादा खुशी होती है.

‘‘मानव चाचा के लिए अच्छी सी चाय बना कर लाती हूं,’’ मेरी बहू भागीभागी चाय बनाने चली जाती है और मानव जम कर उस की चाय की तारीफ करते हैं.

‘‘आज मैं ने सोच रखा था कि चाय अपनी बच्ची के हाथ से ही पिऊंगा. मीना घर पर नहीं है न, कल आएगी. उस के पिता बीमार हैं.’’

‘‘चाचाजी, तब तो आप रात का खाना यहीं खाइए. मैं ने आज नईनई चीजें ट्राई की हैं.’’

‘‘क्याक्या बनाया है मेरी बहू ने?’’

मानव का इतना कहना था कि बहू ने ढेरों नाम गिनवा दिए.

‘‘चलो, अच्छा है, यहीं खा लेंगे,’’ मानव की स्वीकृति पर वसुधा उत्साह से भर उठी.

हम बाहर लौन में चले आए. बातचीत चलती रही.

‘‘पड़ोस का घर बिक गया है. सुना है कोई बुजुर्ग दंपती आने वाले हैं. उन की बेटी इसी शहर में हैं. उसी की देखरेख में रहेंगे,’’ मानव ने नई जानकारी दी.

‘‘चलो, अच्छा है. सम   झदार बुजुर्ग लोगोें के साथ रह कर आप को नए अनुभव होंगे.’’

‘‘आप को क्या लगता है, बुजुर्ग लोग ज्यादा सम   झदार होते हैं?’’

‘‘हां, क्यों नहीं. लंबी उम्र का उन के पास अनुभव जो होता है.’’

‘‘अनुभव होता है यह सच है, लेकिन वे सम   झदारी से उस अनुभव का प्रयोग भी करते होंगे यह जरूरी नहीं. मैं ने 60-70 साल के ऐसेऐसे इनसान देखे हैं जो बहुत ज्यादा चापलूस और मीठे होते हैं और सामने वाले की भावनाओं का कैसे इस्तेमाल करना है…अच्छी तरह जानते हैं. वे ईमानदार भी होें जरूरी नहीं, उम्र भर का अनुभव उन्हें इतना ज्यादा सिखा देता है कि वे दुनिया को ही घुमाने लगते हैं. कौन जाने मेरे साथ उन की दोस्ती हो पाएगी कि नहीं.’’

मानव की चिंता जायज थी. अच्छा पड़ोसी वरदान है क्योंकि अपनों से पहले पड़ोसी काम आता है.

खाने की मेज पर सभी जुट गए. वसुधा की मेहनत सामने थी. सभी खाने लगे मगर मानव ने सिर्फ रायता और चावल ही लिए. मंचूरियन में सिरका था, चिली चीज में टोमैटो कैचअप था और अंडाकरी में तो अंडा था ही. सूप में भी अंडा था. आंखें भर आईं वसुधा की. मानव ये सब नहीं खा पाएंगे, उसे नहीं पता था. उसे रोता देख कर मानव ने खाने के लिए हाथ बढ़ा दिया.

‘‘नहीं, चाचाजी, आप बीमार हो जाएंगे. रहने दीजिए.’’

‘‘मैं घर पर भी नमकीन चावल ही बना कर खाता हूं. तुम दुखी मत हो बच्ची. फिर किसी दिन बना लेना.’’

वसुधा का सिर थपथपा कर मानव चले गए. वे मेरे सहकर्मी हैं. वरिष्ठ प्रबंधक हैं, इसलिए शहर की बड़ी पार्टियां उन्हें हाथोंहाथ लेती हैं.

‘‘कोई फायदा नहीं साहब, जब तक आप के सारे कागज पूरे नहीं होंगे आप को लोन नहीं मिल सकता. मेरी चापलूसी करने से अच्छा है कि आप कागज पूरे कीजिए. मेरी सुविधा की बात मत कीजिए. मेरी सुविधा इस में है कि जो बैंक मु   झे रोटी देता है कम से कम मैं उस के साथ तो ईमानदार रहूं. मेरी जवाबदेही मेरे अपने जमीर को है.’’

इस तरह की आवाजें अकसर सब सुनते हैं. कैबिन का दरवाजा सदा खुला होता है और मानव क्या कहसुन रहे हैं सब को पता रहता है.

‘‘आज जमाना इतने स्पष्टवादियों का नहीं है, मानव…10 बातें बताने वाली होती हैं तो 10 छिपाने वाली भी.’’

‘‘मैं क्या छिपाऊं और क्यों छिपाऊं. सच सच है और    झूठ    झूठ. जो काम मु   झे नहीं करना उस के लिए आज भी ना है और कल भी ना. कैबिन बंद कर के मैं किसी से मीठीमीठी बातें नहीं करना चाहता. हमारा काम ही पैसे लेनादेना है. छिपा कर सब की नजरों में शक पैदा क्यों किया जाए. 58 का हो गया हूं. इतने साल कोई समस्या नहीं आई तो आगे भी आशा है सब ठीक ही होगा.’’

एक शाम कार्यालय में मानव की लिखी रचना पर चर्चा छिड़ी थी. किसी भ्रष्ट इनसान की कथा थी जिस में उस का अंत बहुत ही दर्दनाक था. मेरी बहू वसुधा मानव की बहुत बड़ी प्रशंसक है. रात खाने के बीच मैं ने पूछा तो सहज सा उत्तर था वसुधा का :

‘‘जो इनसान ईमानदार नहीं उस का अंत ऐसा ही तो होना चाहिए, पापा. ईमानदारी नहीं तो कुछ भी नहीं. सोचा जाए तो आज हम लोग ईमानदार रह भी कहां गए हैं. होंठों पर कुछ होता है और मन में कुछ. कभीकभी तो हमें खुद भी पता नहीं होता कि हम सच बोल रहे हैं या    झूठ. मानव चाचा ने जो भी लिखा है वह सच लिखा है.’’

वसुधा प्रभावित थी मानव से. दूसरी दोपहर कोई कैबिन में बात कर रहा था :

‘‘आप ने तो हूबहू मेरी कहानी लिखी है. उस में एक जगह तो सब वैसा ही है जैसा मैं हूं.’’

‘‘तो यह आप के मन का चोर होगा,’’ मानव बोले, ‘‘आप शायद इस तरह के होंगे तभी आप को लगा यह कहानी आप पर है. वरना मैं ने तो आप पर कुछ भी नहीं लिखा. भला आप के बारे में मैं जानता ही क्या हूं. अब अगर आप ही चीखचीख कर सब से कहेंगे कि वह आप की कहानी है तो वह आप का अपना दोष है. पुलिस को देख कर आम आदमी मुंह नहीं छिपाता और चोर बिना वजह छिपने का प्रयास करता है.’’

‘‘आप सच कह रहे हैं, आप ने मु   झ पर नहीं लिखा?’’

‘‘हमारे समाज में हजारों लोग इस तरह के हैं जो मेरे प्रेरणास्रोत हैं. हर लेखक अपने आसपास की घटनाओं से ही प्रभावित होता है. इसी दुनिया में हम जीते हैं और यही दुनिया हमें जीनामरना सब सिखाती है. लिखने के लिए किसी और दुनिया से प्रेरणा लेने थोड़े न जाएंगे हम. कृपया आप मन पर कोई बो   झ न रखें. मैं ने आप पर कुछ नहीं लिखा.’’

समय बीतता रहा. मानव के पड़ोस में जो वृद्ध दंपती आए उन से भी उन की अच्छी दोस्ती हो गई. बैंक की नौकरी बहुत व्यस्त होती है, इस में इधरउधर की गप मारने का समय कहां होता है. फिर भी कभीकभार उन से मानव की किसी न किसी विषय पर चर्चा छिड़ जाती. अपनी छपी रचनाएं मानव उन्हें थमा देते हैं जिन से उन का समय कटता रहता है.

80-85 साल के दंपती जिंदगी के सारे सुखदुख समेट बस कूच करने की फिराक में हैं. फिर भी जब तक सांस है यह चिंता लगी ही रहती है कि क्या नहीं है जो होना ही चाहिए. मानव उन से 30 साल पीछे चल रहे हैं. कुछ बातें सिर्फ समय ही सिखाता है. मानव को अच्छा लगता है उन के साथ बातें करना. कुछ ऐसी बातें जिन्हें सिर्फ समय ही सिखा सकता है…मानव उन से सीखते हैं और सीखने का प्रयास करते हैं.

2 साल और बीत गए. मानव और मैं दोनों ही बैंक की नौकरी से रिटायर हो गए. अब तो हमारे पास समय ही समय हो गया. बच्चों के ब्याह कर दिए, वे अपनीअपनी जगह पर खुश हैं. जीवन में घरेलू समस्याएं आती हैं जिन से दोचार होना पड़ता है. रिश्तेदारी में, समधियाने में, ससुराल वालों के साथ अकसर मानव के विचार मेल नहीं खाते फिर भी एक मर्यादा रख कर वे सब से निभाते रहते हैं. कभी ज्यादा परेशानी हो तो मु   झ से बात भी कर लेते हैं. बेटी की ससुराल से कुछ वैचारिक मतभेद होने लगे जिस वजह से मानव ने उन से भी दूरी बना ली.

‘‘मैं तो वैसे भी मर्यादा से बाहर जाना नहीं चाहता. आजकल लड़की के घर जाने का फैशन है. वहां रह कर खानेपीने का भी. मु   झे अच्छा नहीं लगता इसलिए मैं मीना को भी वहां जाने नहीं देता. ऐसा नहीं कि हमारे वहां बैठ कर खानेपीने से उन के घर में कोई कमी आ जाती है, लेकिन हमें यह अच्छा नहीं लगता कि वे हमें खाने पर बुलाएं और हम वहां डट कर बैठ कर खाएं.

‘‘हमारे बुजुर्गों ने कहा था कि बेटी के घर कम से कम जाओ. जाओ तो खाओ मत, 4 घंटे के बाद इनसान को भूख लग जाती है. भाव यह था कि 4 घंटे से ज्यादा मत टिको. बातचीत में ऐसा न हो कि कोई बात हमारे मुंह से निकल जाए… लाख कोई दावा करे पर लड़की वालों को कोई दोस्ती की नजर से नहीं देखता. लड़की वाला छींक भी दे तो अकसर कयामत आ जाती है.

‘‘मानसम्मान जितना दिया जाना चाहिए उतना अवश्य देता हूं मैं लेकिन मेरे अपने घर की मर्यादा में किसी का दखल मु   झे पसंद नहीं. मेरे घर में वही होगा जो मु   झे चाहिए. आप के घर में भी वही होगा जो आप चाहें. हम दुनिया को नहीं बदल सकते लेकिन अपने घर में अपने तौरतरीकों के साथ जीने का हमें पूरापूरा हक होना चाहिए.’’

एक दिन परेशान थे मानव, आंखों में बसी चिरपरिचित सी शक्ति कहीं खो गई थी.

‘‘आप को क्या लगता है, मैं लड़ाका हूं, सब से मेरा    झगड़ा लगा रहता है. मैं हर जगह सब में कमियां ही निकालता रहता हूं. वसुधा बेटा, जरा सम   झाना. 2 रातों से मैं सो नहीं पा रहा हूं.’’

मानव के मन की पीड़ा को जान कर मैं व वसुधा अवाक् थे. ऐसा क्या हो गया. पता चला कि मानव ने उस वृद्ध दंपती से अपनी रचनाओं के बारे में एक ईमानदार राय मांगी थी. 2 दिन पहले उन के घर पर कुछ मेहमानों के साथ मानव और मीना भाभी भी थीं.

‘‘मानव, आप की रचनाएं तो कमाल की होती हैं. आप के पात्रों के चरित्र भी बड़े अच्छे होते हैं मगर आप स्वयं इस तरह के बिलकुल नहीं हैं. आप की आप के रिश्तेदारों से लड़ाई, आप की आप के समधियों से लड़ाई इसलिए होती है कि आप सब में नुक्स निकालते हैं. आप तारीफ करना सीखिए. देखिए न हम सदा सब की तारीफ ही करते रहते हैं.’’

85 साल के वृद्ध इनसान का व्यवहार चार लोगों के सामने मानव को नंगा सा कर गया था.

‘‘मेरी रचनाओं के पात्रों के चरित्र बहुत अच्छे होते हैं और मैं वैसा नहीं हूं… वसुधा, क्या सचमुच मैं एक ईमानदार लेखक नहीं…अगर मैं ने कभी उन्हें अपना बुजुर्ग सम   झ उन से कोई राय मांग ही ली तो उन्होंने चार लोगों के सामने इस तरह कह दिया. अकसर वहां मैं वह सब नहीं खाता जो वे मेहमान सम   झ कर परोस देते हैं… मु   झे तकलीफ होती है… तुम जानती हो न… हैरान हूं मैं कि वे मु   झे 3 साल में बस इतना ही सम   झे. क्या मेरे लिए अपने मन में इतना सब लिए बैठे थे. यह दोगला व्यवहार क्यों? कुछ सम   झाना ही चाहते थे तो अकेले में कह देते. अब उस 85-87 साल के इनसान के साथ मैं क्या माथा मारूं कि मैं ऐसा नहीं हूं या मैं वैसा हूं. क्या तर्कवितर्क करूं?

‘‘मैं चापलूस नहीं हूं तो कैसे सब की तारीफ करता रहूं. जो मु   झे तारीफ योग्य लगेगा उसी की करूंगा न. और फिर मेरी तारीफ से क्या बदलेगा? मेरी समस्याएं तो समाप्त नहीं हो जाएंगी न. मु   झे किसी की    झूठी तारीफ नहीं करनी क्योंकि मु   झे किसी से कोई स्वार्थ हल नहीं करना. क्या सचमुच मैं जो भी लिखता हूं वह सब    झूठ होता है क्योंकि मेरे अपने चरित्र में वह सब है ही नहीं जो मेरे संदेश में होता है.

‘‘मैं ने उस पल तो बात को ज्यादा कुरेदा नहीं क्योंकि 4-5 लोग और भी वहां बैठे थे. मैं ने वहां सब के साथ कौफी नहीं पी, जूस नहीं पिया. पकौड़ों के साथ चटनी नहीं खाई, क्योंकि मैं वह ले ही नहीं सकता. वे जानते हैं फिर भी कहते रहे मैं किसी का मान ही नहीं रखता…जरा सा खा लेने से खिलाने वाले का मन रह जाता है. अपनी कहानियों में तो मैं क्षमा कर देता हूं जबकि असल जिंदगी में मैं क्षमा नहीं करता. क्या ऐसा सच में है, वसुधा?’’

मानव की आंखें भर आई थीं.

‘‘मैं अपने उसूलों के साथ कोई सम   झौता नहीं करता…क्या यह बुरी बात है? मीना कहती है कि आप को अपने घर की बात उन से नहीं करनी चाहिए थी. क्या जरूरत थी उन से यह कहने की कि आप के रिश्तों में तनाव चल रहा है तभी तो उन्हें पता चला.

‘‘अरे, तनाव तो लगभग सभी घरों में होता है…कहीं कम कहीं ज्यादा…इस में नया क्या है. मेरा दोष इतना सा है कि मैं ने बुजुर्ग सम   झ कर उन से राय मांग ली थी कि मु   झे क्या करना चाहिए…उस का उत्तर उन्होंने इस तरह चार लोेगों के सामने मु   झे यह बता कर दिया कि मैं अपनी रचनाओं से मेल ही नहीं खाता.’’

मानव परेशान थे. वसुधा उन की बांह सहला रही थी.

‘‘चाचाजी, हर इनसान के पास किसी को नापने का फीता अलगअलग है. हो सकता है, जो समस्या आप के सामने है वह उन्होंने न    झेली हो, लेकिन यह सच है कि उन्होंने सम   झदारी से काम नहीं लिया. आप स्पष्टवादी हैं और आज का युग सीधी बात करने वालों का नहीं है और सीधी बात आज कोई सुनना भी नहीं चाहता.’’

‘‘उन्होंने भी तो सीधी बात नहीं की न.’’

‘‘सीधी बात 3 साल की जानपहचान के बाद की. अरे, सीधी बात तो इनसान पहली व दूसरी मुलाकात में ही कर लेता है. 3 साल में भी अगर वे यही सम   झे तो क्या समझे आप को?’’

दूसरी सुबह मैं ने मानव को फोन किया था और पूछा था कि रात आप क्या कहना चाहते थे. जरा खुल कर सम   झाइए.

तब मानव ने बस इतना ही कहा कि मु   झे सब की तारीफ करनी चाहिए. हर इनसान ठीक है. कोई भी गलत नहीं होता.

‘‘चाचाजी, आप परेशान मत होइए. मन की हम से कह लिया कीजिए क्योंकि नहीं कहने से भी आप बीमार हो सकते हैं. वैसे भी बाहर की दुनिया हम ने नहीं बनाई इसलिए सब के साथ हम एक जैसे नहीं रह सकते. आप के भीतर की दुनिया वह है जो आप लिखते हैं…सच में आप वही हैं जो आप लिखते हैं. आप ईमानदार हैं. आप का चरित्र वैसा है जैसा आप लिखते हैं.’’

‘‘सम   झ नहीं पा रहा हूं बेटी, क्या सच में…अपनेआप पर ही शक हो रहा है मु   झे. 2-3 साल की हमारी जानपहचान में उन्होंने यही निचोड़ निकाला कि मैं वह नहीं हूं जो रचनाओं में लिखता हूं…तो शायद मैं वैसा ही हूं.’’

‘‘वे कौन होते हैं यह निर्णय लेने वाले…आप गलत नहीं हैं. आप वही हैं जो आप अपनी रचनाओं में होते हैं. जो इनसान आप को सम   झ ही नहीं पाया उन से दूरी बनाने में ही भलाई है. शायद वही आप की दोस्ती के लायक नहीं हैं. 60 साल जिन सिद्धांतों के साथ आप जिए और जिन में आप ने अपनी खुशी से किसी का न बुरा किया न चाहा, वही सच है और उस पर कहीं कोई शक नहीं है मु   झे. अपना आत्म- विश्वास क्यों खो रहे हैं आप?’’

सहसा मानव का हाथ पकड़ कर वसुधा बोली, ‘‘चाचाजी, जो याद रखने लायक नहीं, उसे क्यों याद करना. उन्हें क्षमा कर दीजिए.’’

‘‘क्षमा तो उसी पल कर दिया था लेकिन भूल नहीं पा रहा हूं. अपना सम   झता रहा हूं उन्हें. 3 साल से हम मिल रहे हैं इस का मतलब इतना अभिनय कर लेते हैं वे दोनों.’’

‘‘3 साल आप की तारीफ करते रहे और आप सम   झ ही नहीं पाए कि उन के मन में क्या है…अभिनय भी अच्छा करते रहे. पहली बार ईमानदार सलाह दी और सम   झा दिया कि वे आप को पसंद ही नहीं करते. यही ईमानदारी आप नहीं सह पाए. आप के रास्ते सिर्फ 2 हैं ‘हां’ या ‘ना’…उन का रास्ता बीच का है जो आज का रास्ता है. जरूरत पड़ने पर दोनों तरफ मुड़ जाओ. चाचाजी, आप मु   झ से बात किया करें. मैं दिया करूंगी आप को ईमानदार सलाह.’’

वसुधा मेरी बहू है. जिस तरह से वह मानव को सम   झा रही थी मु   झे विश्वास नहीं हो रहा था. 30-32 साल की उम्र है उस की, मगर सम   झा ऐसे रही थी जैसे मानव से भी कहीं बड़ी हो.

सच कहा था एक दिन मानव ने. ज्यादा उम्र के लोग जरूरी नहीं सम   झदारी में ईमानदार भी हों. अपनी सम   झ से दूसरों को घुमाना भी सम   झदार ही कर सकते हैं. मानव आज परेशान हैं, इसलिए नहीं कि वे गलत सम   झ लिए गए हैं, उन्हें तो इस की आदत है, बल्कि इसलिए क्योंकि सिद्धांतों पर चलने वाला इनसान सब के गले के नीचे भी तो नहीं न उतरता. उन्हें अफसोस इस बात का था कि जिन्हें वे पूरी निष्ठा से अपना सम   झते रहे उन्होंने ही उन्हें इस तरह घुमा दिया. इतना कि आज उन्हें अपने चरित्र और व्यक्तित्व पर ही संदेह होने लगा.

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