अकसर बचपन में भी सुनते थे और अब भी सुनते हैं कि गांधीजी ने कहा था कि कोई एक गाल पर चांटा मारे तो दूसरा भी आगे कर देना चाहिए. समय के उस दौर में शायद एक गाल पर चांटा मारने वाले का भी कोई ऐसा चरित्र होता होगा जिसे दूसरा गाल भी सामने पा कर शर्म आ जाती होगी.

आज का युग ऐसा नहीं है कि कोई लगातार वार सहता रहे क्योंकि वार करने वालों की बेशर्मी बढ़ती जा रही है. उस युग में सहते जाना एक गुण था, आज के युग में सहे जाना बीमारी बनता जा रहा है. ज्यादा सहने वाला अवसाद में जाने लगा है क्योंकि उस का कलेजा अब लक्कड़, पत्थर हजम करने वाला नहीं रहा, जो सामने वाले की ज्यादती पर ज्यादती सहता चला जाए.

पलट कर जवाब नहीं देगा तो अपनेआप को मारना शुरू कर देगा. पागलपन की हद तक चला जाएगा और फिर शुरू होगा उस के इलाज का दौर जिस में उस से कहा जाएगा कि आप के मन में जो भी है उसे बाहर निकाल दीजिए. जिस से भी लड़ना चाहते हैं लड़ लीजिए. बीमार जितना लड़ता जाएगा उतना ही ठीक होता जाएगा.

अब सवाल यही है कि इतना सब अपने भीतर जमा ही क्यों किया गया जिसे डाक्टर या मनोवैज्ञानिक की मदद से बाहर निकलना पड़े? पागल होना पड़ा सो अलग, बदनाम हुए वह अलग.

हर इनसान का अपनाअपना चरित्र है. किसी को सदा किसी न किसी का मन दुखा कर ही सुख मिलता है. जब तक वह जेब से माचिस निकाल कर कहीं आग न लगा दे उस के पेट का पानी हजम नहीं होता. इस तरह के इनसान के सामने अगर अपना दूसरा गाल भी कर दिया जाएगा तो क्या उसे शर्म आ जाएगी?

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...