कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

‘‘अज्ञात ऐडवैंचर. मैं लगातार घूमती हूं. अपना खुद का तकिया और चादर भी साथ रखती हूं, ताकि देह जहां तक हो, बनी रहे लेकिन जानती हूं कि मेरे हाथ में कल नहीं है.’’

वह मुसकराया, ‘‘इस क्षण मेरे लिए क्या सोचती हैं आप?’’

मैं हंसी, ‘‘इतना तो तय हो ही सकता है कि मैं अपने खाएपिए के अपने हिस्से का हिसाब चुकता करूं…तुम्हें ‘आप’ कह कर तुम से मिला हुआ परिचय तुम्हें लौटाऊं और हम अपनाअपना रास्ता लें.’’

‘‘ऐसा रास्ता है क्या, जिस पर सामने ठिठक जाने वाले लोग मिलते ही नहीं? ऐसा परिचय होता है क्या जिसे समूचा पोंछा जा सके? और अनाम रिश्तों में ‘तुम’ से ‘आप’ हो जाने से क्या होता है?’’

‘‘कुछ लोग बाहर से भी और भीतर से भी इतने सुंदर क्यों होते हैं…और साथ में इतने अद्भुत कि हर पल उन का ही ध्यान रहता है? और इतने अपवाद क्यों?…कि या तो किताबों में मिलें या ख्वाबों में…या मिल ही जाएं तो बिछड़ जाने को ही मिलें?’’ वह बोला.

मैं उस की आंखों में उभरती तरलता को देखती रही. वह कहता रहा…

‘‘हम जब किसी से मिलते हैं तो उस मिलन की उमंग को धीरेधीरे फीका क्यों कर देते हैं? जिंदा रहते भी उसे मार क्यों देते हैं?’’

‘‘अधिक निकटता और अधिक दूरी हमें एकदूसरे को समझने नहीं देती…’’ मैं उस से एक गहरा संवाद करने के मूड में आ गई, ‘‘हमें एक ऐसा रास्ता बने रहने देना होता है, जो खत्म नहीं होता, वरना उस के खत्म होते ही हम भी खत्म हो जाते हैं और हमारा वहम टूट जाता है.’’

उस ने मेरी आंखों में देखा और कहना शुरू किया, ‘‘जिन्हें जीना आता है वे किसी रास्ते के खत्म होने से नहीं डरते, बल्कि उस के सीमांत के पार के लिए रोमांचित रहते हैं. भ्रम तब तक बना रहता है जब तक हम आगे के दृश्यों से बचना चाहते हैं…सच तो यह है कि रास्ते कभी खत्म नहीं होते…न ही भ्रम…अनदेखे सच तक जाने के लिए भ्रम ही तो बनते हैं. किश्तियों के डूबने से पता नहीं हम डरते क्यों हैं?’’

मैं उसे ध्यान से सुनने लगी.

‘‘सुखी, संतुष्ट बने रहने के लिए हम औसत व्यक्ति बन जाते हैं, जबकि चाहतें अनंत हैं…दूरदूर तक.’’

‘‘कभीकभी हम सहमत हो कर भी अलग तलों पर नजर आते हैं…मैं तुम्हारी इस बात को शह दूं तो कहूंगी कि मैं वहां खत्म नहीं होना चाहती जहां मैं ‘मुझ’ से ही मिल कर रह जाऊं…मुझे अपनी हर हद से आगे जाना है. अपने कदमों को नया जोखिम देने के लिए अपनी हर पिछली पगडंडी तोड़नी है…’’

वह हंसा. कहने लगा, ‘‘पर इस लड़खड़ाती खानाबदोशी में हम जल्दबाज हो कर अपने को ही चूक जाते हैं. इसी में हमारी बेचैनियां आगे दौड़ने की लत पाल लेती हैं. क्या ऐसा नहीं?’’

मैं सोचने लगी कि अब हम एकदूसरे के साथ भी हैं और नहीं भी.

मुझे चुप देख कर उस ने पूछा, ‘‘विवाह को आप कैसे देखती हैं?’’

‘‘अनचाही चीज का पल्ले पड़ जाने वाली एक वाहियात रस्म.’’

वह फिर हंस कर बोला, ‘‘विवाहित या अविवाहित होना मुझे बाहर की नहीं, भीतर की घटना लगती है. जीना नहीं आता हो तो सारी इच्छाएं पूरी हो जाने पर भी बेमतलब के साथ से हम नहीं बच पाते. ज्यादातर लोग विवाहित हो कर ही इस से बच सकते हैं…या दूसरे को बचा सकते हैं, ऐसे ही किसी संबंध में आ कर. हालांकि मैं नहीं मानता कि मनुष्य नामक स्थिति की अभी रचना हो भी सकी है…मनुष्य जिसे कहा जाता है वह शायद भविष्य के गर्भ में है, वरना विवाह की या किसी भी स्थापित संबंध की जरूरत कहां है? हम अकसर अपने से ही संबंधित हो कर आकाश खोजते रह जाते हैं…’’

फिर हम झील में बदलते नजारों में डूबने का अभिनय सा करते रहे.

चुप्पी लंबी हो गई तो मैं ने कहा, ‘‘उस रोज तुम ने मेरी पुकार नहीं सुनी और चले गए…मुझ से बचना चाहा तुम ने…मगर आज क्यों तुम ने मुझे पुकारा?’’

वह मेरे चेहरे को देखता रहा, फिर बोला, ‘‘आप अकेली बैठी थीं. कितनी ही देर से आप के चेहरे पर अकेलेपन की मायूसी देखता रहा, कैसे न पुकारता? पुकारने से बचना और किसी मायूस से बच कर भागना एक ही बात है. कैसी विडंबना है…अब सोच रहा हूं, आप से यह भी नहीं पूछा कि आप करती क्या हैं?’’

मैं यह सोच कर हंसी कि फंस गए बच्चू, इस दुनिया में बहुत कुछ तय नहीं किया जा सकता. अगर किया भी जा सके तो अगले ही पल वह होता है जिस की कल्पना भी नहीं की जा सकती.

वह चुप रहा. काफी देर के बाद उस ने पूछा, ‘‘घर से निकलते वक्त आप के मन में क्या होता है?’’

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...