जाने कब कब क्या क्या इल्जाम सहता हूं

खता इतनी सी है मेरी, बस सच कहता हूं

मेरा इरादा तो नहीं रहा तकलीफ देने का

चुभ जाता है बस, सच जो तीखा कहता हूं

खुदा और खुद के रास्ते पर यकीन है मुझे

तरकीब यही है वो जिससे पुर-सुकूं रहता हूं

न इंतजार है, न किसी के जाने का मलाल

किनारों से बंधा नहीं फिर भी साथ बहता हूं

सूरज से लड़ना, जहां बदलना मेरी जिद नहीं

बात इतनी सी है, हवाओं के भरोसे नहीं रहता हूं

न रात से कोई गिला न धूप से कोई शिकवा

ए मरूधर, हर हाल में खुद के जैसा रहता हूं...

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...