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अनीता नाम बताया था उस ने. उम्र करीब 40 वर्ष, सिंपल साड़ी, लंबी चोटी, चेहरे पर कोई मेकअप नहीं. आंखों में एक अजीब सा कुतुहल जो उसे खास बनाता था.

2-4 दिनों से देख रहा हूं उसे. हमारी यूनिवर्सिटी में मनोविज्ञान की प्रोफैसर बन कर आई है और मैं अर्थशास्त्र पढ़ाता हूं. साहित्य में रुचि होने की वजह से मैं अकसर लाइब्रेरी में 1-2 घंटे बिताता हूं. वह भी अकसर वहीं बैठी दिख जाती.

एक दिन मैं ने पूछ ही लिया, ‘‘क्या आप भी साहित्य में रुचि रखती हैं?’’

‘‘जी हां, बड़ेबड़े कवियों की कविताएं और शायरी पढ़ना खासतौर पर पसंद है. मैं भी छोटीमोटी कविताएं लिख लेती हूं.’’

‘‘वाह तब तो खूब जमेगी हमारी,’’ मैं उत्साहित हो कर बोला.

उस की आंखों में भी चमक उभर आई थी. हमारी बनने लगी. अकसर हम लोग लाइब्रेरी में पुरानी किताबें निकालते और फिर घंटों चर्चा करते. व्याख्याओं के लिए लाइब्रेरी में 2 कमरे अलग थे, जिन में शीशे के दरवाजे थे, ताकि बातचीत से दूसरे डिस्टर्ब न हों.

एक दिन मैं ने सवाल दागा, ‘‘मैं ने अकसर देखा है आप घंटों यहां रुक जाती हैं. घर में पति वगैरह इतंजार...’’ मैं ने जानबूझ कर वाक्य अधूरा छोड़ दिया.

वह हंस पड़ी, ‘‘नहीं, मेरे घर में पति नाम का जीव नहीं जो चाबुक ले कर मेरा इंतजार कर रहा हो.’’

‘‘चाबुक ले कर?’’ मैं हंसा.

‘‘जी हां, पति चाबुक ले कर इंतजार करे या फूल ले कर, मेरे साथ ऐसा कुछ नहीं, क्योंकि मैं कुंआरी हूं.’’

‘‘कुंआरी?’’ मैं चौंका और फिर कुरसी उस के करीब खिसका ली, ‘‘यानी आप ने अब तक शादी नहीं की. मगर क्यों?’’

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