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‘‘गुरुजी, कई दिनों से एक बात हम लोगों को विचलित कर रही है. वैसे हम उसे कहना नहीं चाहते थे पर लोगों का मुंह भी कैसे रोकें इसलिए मजबूर हो कर आप से पूछना पड़ रहा है. आप के नाम का यश और कीर्ति निरंतर फैलती जा रही है, भक्तों की भी निरंतर वृद्धि हो रही है, किंतु...’’

‘‘किंतु क्या? शंका एवं समस्या क्या है?’’ महाराज बोले, ‘‘आप को इतनी बड़ी भूमिका बांधनी पड़ रही है.’’

‘‘इस वंश बेल को संभालने के लिए भी तो कोई चाहिए...यदि एक बेटा होता तो...आप तो जानते ही हैं कि कई बार लोग कैसे बेहूदे सवाल करते हैं. कहते हैं, यदि बेटा होने का कोई मंत्र या दवा होती तो महाराज का अब तक बेटा क्यों नहीं हुआ. महाराज, इस से पहले कि आप की छवि धूल में मिल जाए कुछ तो कीजिए. आप समझ रहे हैं न, मैं क्या कह रहा हूं.’’

महाराज निशब्द हो गए...जैसे किसी ने उन की दुखती रग पर हाथ रख दिया हो. बात सच भी थी. आखिर इतनी बड़ी संस्था को चलाने के लिए कोई तो अपना होना चाहिए था. महाराज की बेटे की चाहत में पहले से ही 3 बेटियां थीं और इस उम्र में बेटा पैदा करने का रिस्क वह लेना नहीं चाहते थे. महाराजजी देर तक शून्य में देखते रहे फिर कुछ सोच कर बोले, ‘‘सोचा तो मैं ने भी बहुत है पर अब क्या हो सकता है?’’

‘‘क्यों नहीं हो सकता, महाराज. आप की उम्र ही अभी क्या है. फिर पहले के ऋषिमुनि भी तो यही तरीका अपनाते थे.’’

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