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अंत में अशोक चक्रधरजी की सारगर्भित, व्यंग्यात्मक कविताओं का रसास्वादन सभी ने किया. तत्पश्चात विपिन चंद्र ने सभी अतिथियों का धन्यवाद किया व सभा की समाप्ति अपनी कविता के साथ की. सभा समाप्ति के बाद स्मिता ने देखा विपिनजी ने प्रणव को बुलाया. स्मिता उत्सुकतावश वहीं पड़े एक बड़े से टेबल के पीछे छिप गई. उस ने सुना, विपिनजी कह रहे थे, ‘‘प्रणव, विश्वनाथजी तुम्हारे काम की बड़ी तारीफ कर रहे थे. क्या तुम मेरी फैक्टरी में मैंनेजिंग डायरैक्टर का पद संभालना चाहोगे? 80 हजार प्रति माह वेतन के साथ मकान और गाड़ी भी दी जाएगी.’’ प्रणव को अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ. उस ने बड़ी मुश्किल से कहा, ‘‘ये...ये आप क्या कह रहे हैं? क्या यह सच है?’’ स्मिता ने देखा, विपिनजी और विश्वनाथजी दोनों मुसकरा कर हामी भरते हुए सिर हिला रहे थे. विपिनजी ने कहा, ‘‘बिलकुल सच कह रहे हैं. विश्वनाथ को जब तक नया मैनेजर नहीं मिल जाता, तुम इन का कार्यभार भी रोज कुछ समय के लिए आ कर संभाल देना. कंप्यूटर पर भी इन का औफिशियल काम कर सकते हो. हां, यदि तुम्हें कोई आपत्ति है तो बता सकते हो.’’

प्रणव बोला, ‘‘आपत्ति क्या सर, बस, यही लग रहा है कि ऐसा काम पहले कभी किया नहीं है तो...’’ अब विश्वनाथजी ने उस से कहा, ‘‘प्रणव, तुम ने हर तरह का काम किया है. यही तुम्हारी काबिलीयत का सुबूत है. आज तुम्हें अच्छा अवसर मिल रहा है. जाओ, खूब मेहनत करो और अपने परिवार को एक अच्छी जिंदगी दो.’’ प्रणव के कानों में अपनी ही कही बातें गूंजने लगीं, जिंदगी अचानक घटी घटनाओं का क्रम है. उस ने भावातिरेक में विपिन व विश्वनाथजी को झुक कर प्रणाम किया. स्मिता ने देखा पास ही एक दरवाजा है, वह बैठेबैठे ही टेबल के पीछे से दरवाजे तक पहुंच गई और एक ही झटके में दरवाजे से निकल पड़ी. इस के बाद लौबी पार कर वह सीधी होटल के बाहर निकल गई. इधर, थोड़ी देर बाद प्रणव स्मिता को ढूंढ़ते हुए रिसैप्शनिस्ट के पास पहुंचा. रिसैप्शनिस्ट ने बताया, ‘‘स्मिता सहाय, वे मैडम तो अभी 5 मिनट पहले होटल से निकल गई हैं. बहुत जल्दी में लग रही थीं. शायद उन की गाड़ी का समय हो गया होगा.’’

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