‘‘जरूरी नहीं कि कम उम्र में आंख में मोतियाबिंद नहीं हो सकता. 7 साल के बच्चे को भी यह हुआ है. मां के गर्भ से ही कोई बच्चा अपने साथ यह ला सकता है. इसलिए जितनी जल्दी हो सके, औपरेशन करा लें.’’ नेत्र विशेषज्ञ की इस दोटूक सलाह से मुझ पर मानो वज्रपात सा हुआ. हजार मुसीबतों के दौर में यह मेरे लिए एक नई मुसीबत थी. औपरेशन के लिए पैसों का जुगाड़ और कार्यालय से छुट्टी बड़ी समस्या तो थी ही, औपरेशन की बात सुन कर परिजन कितने परेशान होंगे, यह सोच कर मेरा दिल बैठा जा रहा था. खैर, जैसेतैसे पैसों का जुगाड़ हुआ. वह दिन भी आ गया जब मुझे औपरेशन के लिए अस्पताल में भरती होना पड़ा. जीवन में पहली बार मैं अस्पताल में भरती हो रहा था. वह भी घरपरिवार से काफी दूर, अकेले. इसलिए मारे तनाव के बुरा हाल था. निर्धारित समय पर भयंकर अपराधबोध के साथ मैं दूसरे मरीजों के बीच कतार में खड़ा हो गया.

अस्पताल के एक कर्मचारी ने क्रमांक व नाम के आधार पर सभी मरीजों को उन के केबिन का ठिकाना बता दिया. मुझे जो केबिन मिला उस में 4 बैड थे. बैड पर पहुंचने के कुछ देर बाद 2 काफी वृद्ध मरीज औपरेशन के लिए मेरे बगल वाले बैड पर आए. लेकिन एक बैड देर तक खाली ही पड़ा था. सारे मरीजों में शायद मैं सब से कम उम्र का मरीज था. यह बात मुझे सब से ज्यादा कचोट रही थी. मैं मन ही मन घुटने लगा...आखिर मैं ने किसी का क्या बिगाड़ा था जो समय से काफी पहले ही यह रोग मुझे हो गया, जबकि मैं पहले ही ढेर सारी विकट समस्याओं से जूझ रहा हूं. औपरेशन के बाद परिचितों को जब पता लगेगा कि मेरी आंख का औपरेशन हुआ है तो मेरी दुर्दशा पर वे मन ही मन जरूर खुश होंगे. इस उधेड़बुन में मुझ पर उदासी और अवसाद भयंकर रूप से सवार होने लगे. इस हालत में 2 रात और 1 दिन बिताना मुझे असंभव लगने लगा.

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