हमारी पत्नी बहुत दिनों से घर जाने की जिद कर रही थीं, मगर हम हमेशा मना कर देते थे. फिर तो उन्होंने ताना देना शुरू कर दिया कि मैं जानती हूं कि मेरे बिना घर नहीं संभल सकता न, इसीलिए आप मुझे नहीं जाने देते. मेरे बिना भूखे मर जाओगे इसलिए मेरे पैरों में बेड़ियाँ डाल रखी हैं. हाँ हाँ मैं झाड़ू-चौका करने वाली मेहरी जो ठहरी, वगैरा, वगैरा. आखिरकार हमने तंग आकर उन्हें उनके घर जौनपुर भेज दिया और कह दिया कि तुम क्या समझती हो हम घर नहीं संभाल सकते? तुम्हारे बिना भूखे मर जाएंगे? ऐसा कोई ख़याल पाल रखा हो तो दिल से निकाल दो और जाओ मायके, जब तक तुम्हारा मन करे रहो, यहां होटल जिंदाबाद. हमने भी ताव में आकर उनको मायके जाने वाली ट्रेन में बिठा दिया. तय हुआ कि दस दिन रह कर वापस आ जाएंगी. छोटे को साथ ले गयीं. छोटा यानी मेरा आठ साल का लाडला बेटा.

अब तो हम पूरी तरह आज़ाद थे. जितनी देर मन करता रात में टीवी देखते. एक-आध पेग भी लगा लेते. पत्नी के जाने के बाद हम होटल पर खाना खाने लगे थे. जेब ज़रूर थोड़ी हल्की हो रही थी, लेकिन मौज ही मौज थी. कभी कढ़ाई पनीर, कभी रोगन जोश, कभी पिज़्ज़ा, कभी बिरयानी. जब जो दिल किया जाकर आर्डर किया और लुत्फ़ ले ले कर खाया. जब मैं किया फोन पर आर्डर भेज कर घर भी मंगवा लिया. पत्नी को गए अभी हफ्ता ही बीता था कि सर पर आ मरा कोरोना. लॉक डाउन ने सारा मज़ा ही किरकिरा कर दिया. दुकाने बंद, होटल बंद, दारू बंद, दोस्त बंद और हम भी बंद. अब क्या करें. हमने तो कभी इतने सालों में मैगी भी अपने हाथों बना कर नहीं खाई. यहाँ तो बस चाय बनानी आती है.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...