लेखक - डा. विजय नारायण भारद्वाज 

मेरे एक लेक्चरर दोस्त ने कहा, ‘‘चार अक्षर पढ़ लिए, दोचार लेख अखबारों, पत्रिकाओं में छप गए तो किसी को कुछ समझते ही नहीं. अरे, स्वामी सदाचारी, सत्यनिकेतन मोतीबाग, दिल्ली से मिलते ही तुम्हारी आंखें खुल जाएंगी, अंतर की सोई कुंडलियां जाग जाएंगी और सब चौकड़ी भूल जाओगे. मैं 2 बार मिला हूं. बिना पूछे नाम व समस्या न बता दें तो तुम मेरा नाम बदल देना.’’

मैं अपने खयालों में खोया उन की बातें भी सुन रहा था. मुझे लगा जैसे मेरे दोस्त कह रहे हों कि तुम मेरे नाम का कुत्ता पाल लेना, सो मैं ने चौंक कर उन की ओर देखा तो वह कह रहे थे, ‘‘मैं ने एक परचे पर अपना नाम व समस्या लिखी और घड़े में डाल दी. स्वामी सदाचार 6 मीटर दूर बैठे थे. फिर भी मेरी समस्या बता दी और उपाय के लिए इलायची, लौंग मंगाई है. कल सुबह चलना.’’

तेरे बिन : क्या हर्षा को कोई और मिल गया था या बात कुछ और थी

अगले दिन हम दोनों मोतीबाग पहुंचे. एक महिला, जो मनोहर मेकअप में थी और जिस के शरीर से सेंट की भीनीभीनी खुशबू आ रही थी, ने ड्राइंगरूम में बिठाया. पानी पिलाया और बोली, ‘‘मैं देखती हूं कि स्वामीजी हवन कर चुके या नहीं. आप का नाम व काम?’’

मैं बोला, ‘‘अपना नाम व काम दोनों मैं स्वामीजी को ही बताऊंगा.’’

वह इतरा कर बोली, ‘‘स्वामीजी तो बिना बताए ही बता देंगे, सर्वज्ञ हैं.’’

उस के बारबार आग्रह पर मैं ने कहा, ‘‘लेंटिकुलर ओपेसिटी है (मोतिया बिंद).’’

‘‘वह क्या होता है?’’

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