लेखिका- आशा शर्मा

दादी अकसर दादाजी से कहा करती थीं कि जिंदगी में एक यार तो होना ही चाहिए. सुनते ही दादाजी बिदक जाया करते थे. “किसलिए?” वे चिढ़ कर पूछते. “अपने सुखदुख साझा करने के लिए,” दादी का जवाब होता, जिसे सुन कर दादाजी और भी अधिक भड़क जाते.“क्यों? घरपरिवार, मातापिता, भाईबहन, पतिसहेलियां काफी नहीं हैं जो यार की कमी खल रही है. भले घरों की औरतें इस तरह की बातें करती कभी देखी नहीं. हुंह, यार होना चाहिए,” दादाजी देर तक बड़बड़ाते रहते. यह अलग बात थी कि दादी को उस बड़बड़ाहट से कोई खास फर्क नहीं पड़ता था. वे मंदमंद मुसकराती रहती थीं.मैं अकसर सोचा करती थी कि हमेशा सखीसहेलियों और देवरानीजेठानी से घिरी रहने वाली दादी का ऐसा कौनसा सुखदुख होता होगा जिसे साझा करने के लिए उन्हें किसी यार की जरूरत महसूस होती है.

ये भी पढ़ें- Womens Day Special: पहचान-वसुंधरा ननद की शादी से इतनी ज्यादा

“दादी, आप की तो इतनी सारी सहेलियां हैं, यार क्या इन से अलग होता है?” एक दिन मैं ने दादी से पूछा तो दादी अपनी आदत के अनुसार हंस दीं. फिर मुझे एक कहानी सुनाने लगीं.

“मान ले, तुझे कुछ पैसों की जरूरत है. तू ने अपने बहुत से दोस्तों से मदद मांगी. कुछ ने सुनते ही बहाना बना कर तुझे टाल दिया. ऐसे लोगों को जानपहचान वाला कहते हैं. कुछ ने बहुत सोचा और हिसाब लगा कर देखा कि कहीं उधार की रकम डूब तो नहीं जाएगी. आश्वस्त होने के बाद तुझे समयसीमा में बांध कर मांगी गई रकम का कुछ हिस्सा दे कर तेरी मदद के लिए जो तैयार हो जाते हैं उन्हें मित्र कहते हैं. और जो दोस्त बिना एक भी सवाल किए चुपचाप तेरे हाथ में रकम धर दे, उसे ही यार कहते हैं. कुछ समझीं?” दादी ने कहा.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...