शादी के 5 साल बाद नन्हा पैदा हुआ तो मुझे लगा कि प्रकृति का इस से बड़ा उपहार और क्या हो सकता है. मैं उस का चेहरा एकटक निहारती पर दिल तक उस की सूरत उतरती ही नहीं थी. उस का चेहरा बस आंखों में ही बस जाता था. मेरे पति मदन हंसते, ‘‘आभा, तुम इस के चेहरे को किताब की तरह एकटक क्यों देखती हो? कलंदरा सा है, न शक्ल न रंग. बस, बेटा पा कर धन्य हुई जा रही हो. जैसे आज तक हमारे यहां बच्चे पैदा ही नहीं हुए हों. बस, गोद ही लिए जाते रहे हों.’’

मदन की बात से मेरे सर्वांग में चिनगारियां उड़ने लगतीं, ‘‘ओहो, तुम तो बड़े गोरे हो जैसे. बेटा तुम्हारे पर गया है. तुम जलते हो. अभी तक घर के एकमात्र पुरुष होने का गौरव था, सो ओछेपन पर उतर आए.’’

‘‘पर मां कहती हैं कि मैं बचपन में बहुत गोरा था. इस की तरह नहीं था.’’

‘‘रहने दो,’’ मैं ने बात काटी, ‘‘यह बड़ा होगा, शेव वगैरह करेगा तो अपनेआप ही इस का रूप निखर आएगा.’’

मदन को भले ही दलील दी पर नन्हे को हलदी, बेसन के उबटन से नहलाती थी, ‘हाय, मेरा बेटा सांवला क्यों हो?’

नन्हा बैठने लगा तो मैं बलिहारी हो गई. नन्हे ने खड़े हो कर एक कदम उठाया तो मैं खुशी से नाच उठी. नन्हे ने अभी तुतला कर बोलना शुरू ही नहीं किया था पर उस से बोलने के लिए मैं ने तुतलाना शुरू कर दिया.

मदन के लिए नन्हा आम बच्चों सा बच्चा था. शायद मां के तन से नहीं मन से भी शिशु का सृजन होता होगा तभी तो मेरे दिलोदिमाग में हर पल बस नन्हा ही समाया रहता.

नन्हा बोलने लगा. शिशु कक्षा में जाने लगा. उस के लिए एक नई दुनिया के दरवाजे खुल गए. अब वह बदल रहा था स्वतंत्र रूप से. मुझ से दूर हो रहा था. उस की आंखों में इतने चेहरे समा रहे थे आएदिन कि मेरा चेहरा अब धूमिल पड़ने लगा था.

मैं पति से कहती, ‘‘देखो, यह नन्हा कितना बदल रहा है…’’

मदन बीच में ही बात काट कर कहते, ‘‘तुम क्या चाहती हो, वह हमेशा तुम्हारे आंचल में मुंह छिपाए लुकाछिपी ही खेलता रहे? अब वह शिशु नहीं रहा, बड़ा हो गया है. कल को किशोर होगा. और भी बहुत तरह के बदलाव आएंगे. तुम भी हद करती हो, आभा.’’

नन्हे को मुझे किसी भी बात के लिए टोकनारोकना नहीं पड़ा. स्कूल से आ कर कपड़े बदल कर खाना खाता और अपनेआप ही गृहकार्य करने बैठ जाता था. मेरी मदद की जरूरत उसे किसी चीज में नहीं थी. स्कूल के साथियों की बातें वह मुझ से नहीं, मदन से करता था. दूसरे बच्चों को नखरे, फरमाइशें करते देखती तो मुझे नन्हे का बरताव और भी खल जाता.

मैं मदन से कहती, ‘‘नन्हा और बच्चों की तरह क्यों नहीं है?’’

लापरवाही के अंदाज में वे कहते, ‘‘शुक्र करो कि वैसा नहीं है. मुझ से तो शैतान बच्चे बिलकुल सहन नहीं होते, बच्चों के लिए बाहर के बजाय अपने भीतर के अनुशासन में रहना ज्यादा अच्छा है. फिर तुम खुद ही उस के लिए पहले से ही सबकुछ तैयार कर के रखती हो तो वह मांगे क्या? तुम अपनी तरफ से मस्त हो जाओ, नन्हा बिलकुल ठीक है.’’

एक बार मुझे बहुत तेज बुखार हो गया. मदन ने छुट्टी ले ली. नन्हे को स्कूल भेजा. फिर डाक्टर को बुला कर मुझे दिखाया. दवा, फल आदि लाए फिर उन्होंने खिचड़ी बनाई. मुझे यों मदन का काम करना अच्छा नहीं लग रहा था. घर की नौकरानी भी छुट्टी पर चली गई. मैं दुखी हो कर बोली, ‘‘अब बरतन भी धोने होंगे.’’

मदन मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए बोले, ‘‘बरतन भी साफ कर लेंगे. तुम निश्ंिचत हो कर आराम करो. फिर नन्हा भी तो अब मदद कर देता है.’’

छुट्टी का दिन था. कमजोरी की वजह से आंखें बंद कर के मैं निढाल सी पड़ी थी. पास ही नन्हा और मदन कालीन पर बैठे थे. अचानक नन्हा बोला, ‘‘पिताजी, घर में मां की क्या जरूरत है?’’

‘‘क्यों, तुम्हारी मां पूरा घर संभालती हैं, तुम्हें कितना प्यार करती हैं, खाना बनाती हैं. अब देखो, हम दोनों से ही घर नहीं संभल रहा.’’

‘‘क्यों, आप खाना बना सकते हैं. मैं सफाई कर सकता हूं, बरतन भी धो सकता हूं. वह काम वाली बाई आ जाएगी तो फिर हमें ज्यादा काम नहीं करना पड़ेगा. हमें मां की क्या जरूरत है फिर?’’

एक पल को मदन चुप रहे. मेरे भीतर हाहाकार सा मच रहा था. मदन ने पूछा, ‘‘नन्हे, तुम मां को प्यार नहीं करते?’’

ये भी पढ़ें- अगले जनम मोहे बिटिया ही कीजो

‘‘मैं आप को ज्यादा प्यार करता हूं.’’

‘‘मां बीमार हैं, तुम्हें बुरा नहीं लगता? मां तुम्हारा कितना खयाल रखती हैं, तुम्हें कितना प्यार करती हैं.’’

‘‘मां मुझे छोटा बच्चा समझती हैं, लेकिन मैं छोटा नहीं हूं. अब मैं बड़ा हो गया हूं,’’ नन्हा लापरवाही से बोला.

मेरी बंद आंखों से आंसू लगातार बह रहे थे. अंदर ही अंदर कुछ पिघल रहा था.

‘‘तो तुम बड़े हो गए हो, देवाशीष. ये पैसे लो और नुक्कड़ वाली दुकान से डबलरोटी और मक्खन ले कर आओ. हिसाब कागज पर लिखवा कर लाना. बचे पैसे संभाल कर जेब में रखना,’’ मदन ने नन्हे को भेज कर मेरे सिराहने बैठ धीरे से पुकारा, ‘‘आभा, आभा.’’

पर मैं चुप पड़ी रही. मदन ने मेरे चेहरे पर हाथ फेरा, ‘‘अरे, तुम रो रही हो? क्या हुआ?’’

बस, उन के इतना पूछते ही मेरा आंसुओं का दबा सैलाब पूरी तरह बह निकला.

‘‘पगली हो, यों भी कोई रोता है,’’ मदन ने भावुक होते हुए कहा, ‘‘लो, ग्लूकोज का गिलास, एक सांस में खाली कर दो.’’

मैं प्रतिरोध करती रही पर मदन ने गिलास खाली होने पर ही मेरे मुंह से हटाया.

‘‘तुम ने सुना, वह क्या कह रहा था कि मेरी कोई जरूरत नहीं है इस घर में,’’ कहते हुए मेरी आंखें फिर छलकने लगीं.

‘‘तुम भी क्या उस की बात पकड़ कर बैठ गईं. ये उम्र के बदलाव होते हैं,’’ मदन ने सेब काट कर आगे बढ़ाया, ‘‘लो, खाओ और जल्दी से अच्छी हो कर हमें अच्छा सा खाना खिलाओ. यार, मैं तो खिचड़ी, दलिया और नहीं खा सकता, बीमार हो जाऊंगा, तुम खा नहीं रही हो, चाटमसाला छिड़क दूं, स्वाद बदल जाएगा.’’

मदन उठ कर चाटमसाला रसोई से लाए. तभी नन्हा भी अंदर आया. बिलकुल मदन के अंदाज में उस ने सामान मेज पर रखा और जेब से पैसे निकाल कर बिल के साथ मदन को दिए.

मदन ने बिल और पैसे मुझे दिखाते हुए कहा, ‘‘देखो, तुम्हारा बेटा बड़ा हो गया है. बाजार से अकेले सामान ले कर आया है.’’

‘‘अरे वाह,’’ मेरा मन अंदर से उमड़ रहा था. मैं उस का सिर सहला कर ढेर सा प्यार करना चाहती थी पर मैं ने अपने को रोक लिया. बोली, ‘‘अब तो अच्छा हो गया, जब तुम घर पर नहीं रहोगे, नन्हा मेरा बाजार का काम कर देगा.’’

एक गर्वीली सी मुसकान नन्हे के चेहरे पर खिल उठी.

मदन ट्रे में दूध के 3 गिलास ले कर आए और बोले, ‘‘चलो नन्हे, जल्दी से अपना दूध खत्म करो. फिर हम दोनों मिल कर खाना बनाएंगे.’’नन्हे ने आज्ञाकारी बेटे की तरह गटागट दूध खत्म किया और फिर पिता के संग रसोई में चला गया. उसे जाते देख कर मैं सोच रही थी, ‘अभी पूरे 4 साल का भी नहीं हुआ है पर कितना जिम्मेदार है. आम बच्चों जैसा नहीं है तभी तो इतना अलग है.’

मैं स्वस्थ होते ही घर के कामकाज में पहले की तरह लग गई. इसी बीच नन्हे को फ्लू हो गया. 3-4 दिन में बुखार उतरा. हम दोनों आंगन में धूप सेंक रहे थे. पड़ोस की ज्योति और रमा बुनाई का डिजाइन सीखने आ गईं.

ज्योति अपने घर से बगीचे की मूलियां लेती आई थी. उस ने उन्हें छीला और टुकड़े कर के प्लेट में नमकमिर्च छिड़क कर ले आई. हम तीनों बहुत स्वाद से खा रही थीं. नन्हे का दिल भी खाने के लिए मचल गया. वह बोला, ‘‘मां, मिर्च हटा कर हमें भी दो.’’

मैं बोली, ‘‘नहीं, मुन्ना, अभी तो तुम्हारा बुखार ही उतरा है. कितनी खांसी है, अभी तुम्हें मूली नहीं खानी.’’

नन्हा ललचाया सा देखता रहा. फिर बोला, ‘‘मां, एक टुकड़ा दे दो.’’

‘‘नन्हीं, बेटा, खांसी और बढ़ जाएगी.’’

‘‘नहीं, मां, जरा सा, बस छोटा सा टुकड़ा दे दो,’’ नन्हा मिन्नतें करने पर उतर आया.

मुझे तरस आया. मैं ने पास रखी पानी की बोतल से मूली धो कर उसे दे दी. पर जैसा स्वाद उसे हमें मूली खाते देख कर महसूस हो रहा था शायद वैसा स्वाद उसे नहीं आया.

फिर भी मूली का टुकड़ा खत्म कर के अनमना सा खड़ा रहा, ‘‘आप ने हमें मूली खाने को क्यों दी?’’

ज्योति उस की नकल करती बोली, ‘‘हमें मूली खाने को क्यों दी? अभी गिड़गिड़ा कर मंगते से मांग रहे थे इसीलिए दी.’’

नन्हा नाराजगी से मुझे देखता हुआ बोला, ‘‘हम तो छोटे बच्चे हैं, आप तो बड़ी हैं. आप को पता है न, बच्चों की बात नहीं मानते. मैं पिताजी को बताऊंगा कि मुझे खांसी है फिर भी आप ने मुझे मूली खाने को दी.’’

‘‘क्या मैं ने अपनी मरजी से दी थी?’’ मैं हैरान सी नन्हे को देख रही थी, ‘‘तू किस तरह गिड़गिड़ा कर मांग रहा था.’’

ये भी पढ़ें- क्योंकि वह अमृत है

‘‘मांगने से क्या होता है… आप देती नहीं तो मैं खाता कैसे? अब खांसी होगी तो मैं पिताजी को बता दूंगा, आप ने मुझे मूली दी थी इसी से खांसी बढ़ी,’’ वह अडि़यल घोड़े सा अड़ा था.

रमा ने उस का कान धीमे से पकड़ा, ‘‘तुम्हारे जैसे बच्चे की तो पिटाई होनी चाहिए, समझे? आने दो भैया को, मैं उन्हें बताऊंगी कि तुम भाभी को कितना तंग करते हो.’’

नन्हे ने अपना कान छुड़ाया और आंगन में उड़ आई तितली के पीछे भाग गया.

रमा मुझ से बोली, ‘‘सच भाभी, मैं ने ऐसा दूसरा बच्चा कहीं नहीं देखा. तुम्हें तो यह किसी गिनती में नहीं गिनता.’’

मैं मन ही मन सोच रही थी कि बेटा है तो क्या हुआ, है तो मेरा दुश्मन. नन्हा सा, प्यारा दुश्मन.

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...