पिताजी कहा करते थे कि धीरेधीरे सब का मन जीत लेगी वह. सब सहज हो जाएगा. पर जिस का मन जीतना था वह तो दूसरे ही दिन चला गया था. एक हफ्ते बाद ही फिर दिल्ली से अमेरिका भी.
पहुंच कर पत्र भी आया था तो घर वालों के नाम. उस का कहीं कोई जिक्र नहीं था. रोती आंखों से वह देर तक घंटों पता नहीं क्याक्या सोचती रहती थी. घर में बूढ़े सासससुर थे. बड़ी शादीशुदा ननद शोभा अपने बच्चों के साथ शादी पर आई थी और अभी वहीं थी. सभी उस का ध्यान रखते थे. वे अकसर उसे घूमने भेज देते, कहते, ‘फिल्म देख आओ, बहू, किसी के साथ,’ पर पति से अपनेआप को अपमानित महसूस करती वह कहां कभी संतुष्ट हो पाती थी.
शोभा जीजी को भी अपनी ससुराल लौटना था. घर में फिर वह, मांजी और बाबूजी ही रह गए थे. महीने भर के अंदर ही उस के ससुर को दूसरा दिल का दौरा पड़ा था. सबकुछ अस्तव्यस्त हो गया. बड़ी कठिनाई से हफ्ते भर की छुट्टी ले कर शिखर भी अमेरिका से लौटा था, भागादौड़ी में ही दिन बीते थे. घर नातेरिश्तेदारों से भरा था और इस बार भी बिना उस से कुछ बोले ही वह लौट गया था.
‘मां, तुम अकेली हो, तुम्हें बहू की जरूरत है,’ यह जरूर कहा था उस ने.
शैली जब सोचने लगती है तो उसे लगता है जैसे किसी सिनेमा की रील की तरह ही सबकुछ घटित हो गया था उस के साथ. हर क्षण, हर पल वह जिस के बारे में सोचती रहती है उसे तो शायद कभी अवकाश ही नहीं था अपनी पत्नी के बारे में सोचने का या शायद उस ने उसे पत्नी रूप में स्वीकारा ही नहीं.
इधर सास का उस से स्नेह बढ़ता जा रहा था. वह उसे बेटी की तरह दुलराने लगी थीं. हर छोटीमोटी जरूरत के लिए वह उस पर आश्रित होती जा रही थीं. पति की मृत्यु तो उन्हें और बूढ़ा कर गई थी, गठिया का दर्द अब फिर बढ़ गया था. कईर् बार शैली की इच्छा होती, वापस पिता के पास लौट जाए. आगे पढ़ कर नौकरी करे. आखिर कब तक दबीघुटी जिंदगी जिएगी वह? पर सास की ममता ही उस का रास्ता रोक लेती थी.
‘‘बहूरानी, क्या लौट आई हो? मेरी दवाई मिली, बेटी? जोड़ों का दर्द फिर बढ़ गया है.’’
मां का स्वर सुन कर तंद्रा सी टूटी शैली की. शायद वह जाग गई थीं और उसे आवाज दे रही थीं.
‘‘अभी आती हूं, मांजी. आप के लिए चाय भी बना कर लाती हूं,’’ हाथमुंह धो कर सहज होने का प्रयास करने लगी थी शैली.
चाय ले कर कमरे में आई ही थी कि बाहर फाटक पर रिकशे से उतरती शोभा जीजी को देखते ही वह चौंक गई.
‘‘जीजी, आप इस तरह बिना खबर दिए. सब खैरियत तो है न? अकेले ही कैसे आईं?’’
बरामदे में ही शोभा ने उसे गले से लिपटा लिया था. अपनी आंखों को वह बारबार रूमाल से पोंछती जा रही थी.
‘‘अंदर तो चल.’’
और कमरे में आते ही उस की रुलाई फूट पड़ी थी. शोभा ने बताया कि अचानक ही जीजाजी की आंखों की रोशनी चली गई है, उन्हें अस्पताल में दाखिल करा कर वह सीधी आ रही है. डाक्टर ने कहा है कि फौरन आपरेशन होगा. कम से कम 10 हजार रुपए लगेंगे और अगर अभी आपरेशन नहीं हुआ तो आंख की रोशनी को बचाया न जा सकेगा.
‘‘अब मैं क्या करूं? कहां से इंतजाम करूं रुपयों का? तू ही शिखर को खबर कर दे, शैली. मेरे तो जेवर भी मकान के मुकदमे में गिरवी पड़े हुए हैं,’’ शोभा की रुलाई नहीं थम रही थी.
जीजाजी की आंखों की रोशनी… उन के नन्हे बच्चे…सब का भविष्य एकसाथ ही शैली के आगे घूम गया था.
‘‘आप ऐसा करिए, जीजी, अभी तो ये मेरे जेवर हैं, इन्हें ले जाइए. इन्हें खबर भी करूंगी तो इतनी जल्दी कहां पहुंच पाएंगे रुपए?’’
और शैली ने अलमारी से निकाल कर अपनी चूडि़यां और जंजीर आगे रख दी थीं.
‘‘नहीं, शैली, नहीं…’’ शोभा स्तंभित थी.
फिर कहनेसुनने के बाद ही वह जेवर लेने के लिए तैयार हो पाई थी. मां की रुलाई फूट पड़ी थी.
‘‘बहू, तू तो हीरा है.’’
‘‘पता नहीं शिखर कब इस हीरे का मोल समझ पाएगा,’’ शोभा की आंखों में फिर खुशी के आंसू छलक पड़े थे.
पर शैली को अनोखा संतोष मिला था. उस के मन ने कहा, उस का नहीं तो किसी और का परिवार तो बनासंवरा रहे. जेवरों का शौक तो उसे वैसे ही नहीं था. और अब जेवर पहने भी तो किस की खातिर? मन की उसांस को उस ने दबा दिया था.
8 दिन के बाद खबर मिली थी, आपरेशन सफल रहा. शिखर को भी अब सूचना मिल गई थी, और वह आ रहा था. पर इस बार शैली ने अपनी सारी उत्कंठा को दबा लिया था. अब वह किसी तरह का उत्साह प्रदर्शित नहीं कर पा रही थी. सिर्फ तटस्थ भाव से रहना चाहती थी वह.
‘‘मां, कैसी हो? सुना है, बहुत बीमार रही हो तुम. यह क्या हालत बना रखी है? जीजाजी को क्या हुआ था अचानक?’’ शिखर ने पहुंचते ही मां से प्रश्नों की झड़ी लगा दी.
‘‘मेरी तो तबीयत तू देख ही रहा है, बेटे. बीच में तो और भी बिगड़ गई थी. बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी. बेचारी बहू ने ही सब संभाला. तेरे जीजाजी की तो आंखों की रोशनी ही चली गई थी. उसी समय आपरेशन नहीं होता तो पता नहीं क्या होता. आपरेशन के लिए पैसों का भी सवाल था, लेकिन उसी समय बहू ने अपने जेवर दे कर तेरे जीजाजी की आंखों की रोशनी वापस ला दी.’’
‘‘जेवर दे दिए…’’ शिखर हतप्रभ था.
‘‘हां, क्या करती शोभा? कह रही थी कि तुझे खबर कर के रुपए मंगवाए तो आतेआते भी तो समय लग जाएगा.’’
मां बहुत कुछ कहती जा रही थीं पर शिखर के सामने सबकुछ गड्डमड्ड हो गया था. शैली चुपचाप आ कर नाश्ता रख गई थी. वह नजर उठा कर सिर ढके शैली को देखता रहा था.
‘‘मांजी, खाना क्या बनेगा?’’ शैली ने धीरे से मां से पूछा था.
‘‘तू चल. मैं भी अभी आती हूं रसोई में,’’ बेटे के आगमन से ही मां उत्साहित हो उठी थीं. देर तक उस का हालचाल पूछती रही थीं. अपने दुखदर्द सुनाती रही थीं.