कमरे का वातावरण बाहर के मौसम की ही तरह गरम था. मेरी बहू द्वारा लिया गया एक निर्णय मुझे बिलकुल नागवार गुजरा था. मैं इस बात से ज्यादा नाराज थी कि मेरे बेटे की भी इस में मूल सहमति थी. ऐसा नहीं था कि मैं पोंगापंथी विचारधारा की कोई कड़क सास थी. परंतु बात ही कुछ ऐसी थी कि आधुनिक विचारधारा तथा स्त्री स्वतंत्रता का हिमायती मेरा मन मान ही नहीं पा रहा था. ‘‘मम्मी आप समझ नहीं रही हैं...’’
‘‘मैं नहीं समझ रही हूं, यह सही कह रही हो तुम. मुझे यह समझ नहीं आ रहा कि तुम्हें अकेले ही क्यों घूमने जाना है? सप्तक नहीं जाना चाहता तो अगले महीने स्नेहल और अपनी बाकी दोस्तों के साथ चली जाना.’’ ‘‘मम्मी, स्नेहल या कोई और ट्रेकिंग पर जाना पसंद नहीं करती.’’
‘‘तो तुम्हें क्यों जाना है? वैसे भी शादी के बाद यह सब ठीक नहीं है. अनजान लोगों के साथ रातरात भर अकेले रहने में भला कौन सी समझदारी है.’’ ‘‘मधु एकदम ठीक कह रही है.’’ सुमित, मेरे पति बोल पड़े थे.
‘‘पापाजी, मेरी जानपहचान का गु्रप है. ग्रुप के सदस्यों के साथ पहले भी गई हूं मैं.’’ ‘‘बात जानपहचान की नहीं है, अलीना. मैं ने क्या कभी तुम्हें किसी भी काम के लिए मना किया है? परंतु बच्चे, शादी के बाद कुछ चीजें सही नहीं लगतीं. सप्तक साथ होता तो बात अलग होती. मैं तो तुम्हें रजामंदी नहीं दूंगी, बाकी तुम खुद समझदार हो अपने निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र हो, वयस्क हो.’’
‘‘मम्मी, शादी का क्या अर्थ होता है?’’ काफी देर से शांत हो कर हमारी बातें सुन रहा मेरा बेटा सप्तक अचानक बोला. ‘‘अर्थ...’’