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‘क्यों? क्या कमी है यहां जो दोनों को काम करने की आवश्यकता पड़ रही है. भरापूरा घर है. तेरे बाबूजी भी अच्छा कमाते हैं. सबकुछ ठीक चल रहा है. हम कौन सा तुम से कुछ मांग रहे हैं,’ मांजी का स्वर तेज हो गया, ‘फिर भी तू बहू से काम करवाना चाहता है तो तेरी मरजी.’

मैं खामोश ही रही. पर इस तरह नीरज का बोलना मुझे अच्छा नहीं लगा था. भीतर जा कर मैं ने नीरज से कहा, ‘नौकरी मुझे करनी है. मांजी को अच्छा नहीं लगता तो मैं नहीं जाऊंगी. बस.’

‘नहीं, तुम नौकरी करने जरूर जाओगी. मैं ने जो कह दिया सो कह दिया,’ नीरज ने कठोर स्वर में कहा.

मन के झंझावात में मैं अंतत: कोई निर्णय नहीं ले पाई. मैं ने हार कर मां से पूछा, ‘मैं क्या करूं, मां?’

‘जो नीरज कहता है वही कर,’ मां ने सीधासपाट सा उत्तर दिया.

उस दिन काम पर तो चली गई किंतु मां के मूक आचरण से एहसास हो गया था कि उन को यह सब ठीक नहीं लगा.

मैं, मां और बाबूजी को खुश करने के लिए हरसंभव प्रयास करती रही. नीरज को भी समझाया कि यह सब उन को ठीक नहीं लगता पर उन के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया. क्या पता था कि ऊपर से इतने मृदुभाषी और हंसमुख इनसान अंदर से इतने अस्वाभाविक और सख्त हो सकते हैं.

इस प्रपंच से जल्दी ही मुझे मुक्ति मिल गई. मेरा पांव भारी हो गया और आफिस न जाने का बहाना मिल गया. इस में मां ने मेरी तरफदारी की तो अच्छा लगा.

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