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लेखक- निरंजन धुलेकर

पोस्टमैन ने हाथ में पकड़ा दिया एक भूरा लिफ़ाफ़ा. तीसचालीस साल पहले इसे सरकारी डाक माना जाता था. लिफ़ाफ़ा किस दफ़्तर से आया? कोने में एक शब्द 'प्रेषक' लिखा दिखाई दे रहा था. आगे कुछ लिखा तो है पर अस्पष्ट है.

सरकारी मोहर ऐसी ही होती थी. उस के मजमून से ही भेजने वाले दफ्तर का पता चलता. उत्सुकता से लिफ़ाफ़ा खोला औऱ खुशी से उछल पड़ा.

सुदूर गांव की प्राइमरी पाठशाला में मुझे शिक्षक की नियुक्ति और तैनाती देने की बाबत आदेश था और अब भूरा सरकारी लिफ़ाफ़ा मुझे रंगीन नज़र आने लगा.

'गांव की पाठशाला...' एक पाठ था बचपन में. साथ में अनेक चित्र दिए थे उस पाठशाला के ताकि  शहर के बच्चों को पाठ की वस्तुस्थिति सचित्र दिखाई जा सके. वे सभी चित्र अब मेरी आंखों के सामने आ गए...

साफसुथरा स्कूल.  छोटा सा मैदान. उस में खेलतेदौड़ते बच्चे. 2 झूले भी, जिन पर बालकबालिकाएं झूलती दिख रही होतीं. वहीं सामने लाइन से बने खपरैल वाले क्लास के 4 कमरे, अंदर जूट की लंबीलंबी रंगीन टाटपट्टियां. ऊपर घनी छांव डालते नीम और आम के पेड़. ध्यान से देखने पर एकदो चिड़िया भी बैठी दिख गईं डाल पर. एक क्लास तो पेड़ के नीचे ही लगी थी.

तिपाये पर ब्लैकबोर्ड था. मोटे चश्मे में सदरी डाले माटसाब पढ़ा रहे थे.स्कूल का घंटा पेड़ की एक डाल से ही लटका था जिसे एक सफेद टोपी लगाए चपरासी बजा रहा होता. ईंटों पर रखा मटका और पानी पीती एक बच्ची.

कक्षा के दरवाज़े से अंदर दिखतेपढ़ाते गुरुजी और ध्यान लगा कर पढ़ते बच्चे. कमीजनिक्कर में लड़के और लाल रिबन लगाए बच्चियां, सब गुलगोथने और लाललाल गाल वाले प्यारेप्यारे.

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