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दादी कहतीं कि फूफा बेकुसूर थे. लेकिन पिताजी कहते, सारा दोष उन्हीं का था. उन्होंने ही फर्म से गबन किया था. मैं अब तक समझ नहीं पाई, किसे सच मानूं? हां, इतना अवश्य जानती हूं, दोष चाहे किसी का भी रहा हो, सजा दोनों ने ही पाई. इधर पिताजी ने बहन और जीजा का साथ खोया तो उधर बूआ ने भाई का साथ छोड़ा और पति को हमेशा के लिए खो दिया. निर्दोष बूआ दोनों ही तरफ से छली गईं.

मेरा मन उस अतीत की ओर लौटने लगा, जो अपने भीतर दुख के अनेक प्रसंग समेटे हुए था. दादी के कुल 3 बच्चे थे, सब से बड़े ताऊजी, फिर बूआ और उस के बाद पिताजी. तीनों पढ़ेपलेबढ़े, शादियां हुईं.

उन दिनों ताऊजी और पिताजी ने मिल कर एक फर्म खोली थी. लेकिन अर्थाभाव के कारण अनेक कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा था. उसी समय फूफाजी ने अपना कुछ पैसा फर्म में लगाने की इच्छा व्यक्त की. ताऊजी और पिताजी को और क्या चाहिए था, उन्होंने फूफाजी को हाथोंहाथ लिया. इस तरह साझे में शुरू हुआ व्यवसाय कुछ ही समय में चमक उठा और फलनेफूलने लगा. काम फैल जाने से तीनों साझेदारों की व्यस्तता काफी बढ़ गई थी.

औफिस का अधिकतर काम फूफाजी संभालते थे. पिताजी और ताऊजी बाहर का काम देखते थे. कुल मिला कर सबकुछ बहुत ठीकठाक चल रहा था. मगर अचानक ऐसा हुआ कि सब गड़बड़ा गया. ऐसी किसी घटना की, किसी ने कल्पना भी नहीं की थी.

अचानक ही फर्म में लाखों की हेराफेरी का मामला प्रकाश में आया, जिस ने न केवल तीनों साझेदारों के होश उड़ा दिए बल्कि फर्म की बुनियाद तक हिल गई. तात्कालिक छानबीन से एक बात स्पष्ट हो गई कि गबन किसी साझेदार ने किया है, और वह जो भी है, बड़ी सफाई से सब की आंखों में धूल झोंकता रहा है.

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