‘जो जैसा बोता है वैसी ही फसल काटता है,’ बड़े भैया आज दुखी थे. उन का घर उजड़ गया था. बेटे अपनी मां का मरा मुंह देखने भी न आए. क्या इस सब के लिए अप्रत्यक्ष रूप से वही दोषी नहीं थे?
सुबह 6 बजे का समय था. मैं अभी बिस्तर से उठा ही था कि फोन घनघना उठा. सीतापुर से बड़े भैया का फोन था जो वहां के मुख्य चिकित्सा अधिकारी थे.
वह बोले, ‘‘भाई श्रीकांत, तुम्हारी भाभी का आज सुबह 5 बजे इंतकाल हो गया,’’ और इतना बतातेबताते वह बिलख पड़े. मैं ने अपने बड़े भाई को ढाढ़स बंधाया और फोन रख दिया.
पत्नी शीला उठ कर किचन में चाय बना रही थी. उसे मैं ने भाभी के मरने का बताया तो वह बोली, ‘‘आप जाएंगे?’’
‘‘अवश्य.’’
‘‘पर बड़े भैया तो आप के किसी भी कार्य व आयोजन में कभी शामिल नहीं होते. कई बार लखनऊ आते हैं पर कभी भी यहां नहीं आते. इतने लंबे समय तक मांजी बीमार रहीं, कभी उन्हें देखने नहीं आए, उन की मृत्यु पर भी नहीं आए, न आप के विवाह में आए,’’ शीला के स्वर में विरोध की खनक थी.
‘‘पर मैं तो जाऊंगा, शीला, क्योंकि मां ऐसा ही चाहती थीं.’’
‘‘ठीक है, जाइए.’’
‘‘तुम नहीं चलोगी?’’
‘‘चलती हूं मैं भी.’’
हम तैयार हो कर 8 बजे की बस से चल पड़े और साढ़े 10 तक सीतापुर पहुंच गए. बाहर से आने वालों में हम ही सब से पहले पहुंचे थे, निकटस्थ थे, अतएव जल्दी पहुंच गए.
भैया की बेटी वसुधा भी वहीं थी, मां की बीमारी बिगड़ने की खबर सुन कर आ गई थी. वह शीला से चिपट कर रो उठी.
‘‘चाची, मां चली गईं.’’
शीला वसुधा को सांत्वना देने लगी, ‘‘रो मत बेटी, दीदी का वक्त पूरा हो गया था, चली गईं. कुदरत का यही विधान है, जो आया है उसे एक दिन जाना है,’’ वह अपनी चाची से लगी सुबकती रही.
इन का रोना सुन कर भैया भी बाहर निकल आए. उन के साथ उन के एक घनिष्ठ मित्र गोपाल बाबू भी थे और 2-3 दूसरे लोग भी. भैया मुझ से लिपट कर रोने लगे.
‘‘चली गई, बहुत इलाज कराया पर बचा न सका, कैंसर ने नहीं छोड़ा उसे.’’
मैं उन की पीठ सहलाता रहा.
थोड़ा सामान्य हुए तो बोले, ‘‘तन्मय (उन का बड़ा बेटा) को फोन कर दिया है. फोन उसी ने उठाया था पर मां की मृत्यु का समाचार सुन कर दुखी हुआ हो ऐसा नहीं लगा. कुछ भी तो न बोला, केवल ‘ओह’ कह कर चुप हो गया. एकदम निर्वाक्.
‘‘मैं ने ही फिर कहा, ‘तन्मय, तू सुन रहा है न बेटा.’
‘‘ ‘जी.’ फिर मौन.
‘‘कुछ देर उस के बोलने की प्रतीक्षा कर के मैं ने फोन रख दिया. पता नहीं आएगा या नहीं,’’ कह कर भैया शून्य में ताकने लगे.
बेटी वसुधा बोल उठी, ‘‘आएंगे… आएंगे…आखिर मां मरी है भैया की. मां…सगी मां, मां की मृत्यु पर भी नहीं आएंगे.’’
वह बोल तो गई पर स्वर की अनुगूंज उसे खोखली ही लगी, वह उदासी से भर गई.
इतने में चाय आ गई. सब चाय पीने लगे.
भैया के मित्र गोपाल बाबू बोल उठे, ‘‘कैंसर की एक से एक अच्छी दवाएं ईजाद हो गई हैं. तमाम डाक्टर दावा करते हैं कि अब कैंसर लाइलाज नहीं रहा…पर बचता तो शायद ही कोई मरीज है.’’
भैया बोल उठे, ‘‘आखिरी 15 दिनों में तो उस ने बहुत कष्ट भोगा. बहुत कठिनाई से प्राण निकले. वह तन्मय से बहुत प्यार करती थी उस की प्रतीक्षा में आंखें दरवाजे की ओर ही टिकाए रखती थी. ‘तन्मय को पता है न मेरी बीमारी के बारे में,’ बारबार यही पूछती रहती थी. मैं कहता था, ‘हां है, मैं जबतब फोन कर के उसे बतलाता रहता हूं.’ ‘तब भी वह मुझे देखने…मेरा दुख बांटने क्यों नहीं आता? बोलिए.’ मैं क्या कहता. पूरे 5 साल बीमार रही वह पर तन्मय एक बार भी देखने नहीं आया. देखने आना तो दूर कभी फोन पर भी मां का हाल न पूछा, मां से कोई बात ही न की, ऐसी निरासक्ति.’’
कहतेकहते भैया सिसक पड़े.
‘भैया, ठीक यही तो आप ने किया था अपनी मां के साथ. वह भी रोग शैया पर लेटी दरवाजे पर टकटकी लगाए आप के आने की राह देखा करती थीं, पर आप न आए. न फोन से ही कभी उन का हाल पूछा. वह भी आप को, अपने बड़े बेटे को बहुत प्यार करती थीं. आप को देखने की चाह मन में लिए ही मां चली गईं, बेचारी, आप भी तो निरासक्त बन गए थे,’ मैं मन ही मन बुदबुदा उठा.