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आजकल जिंदगी भी न जाने कैसी हो गई है. भागतीदौड़ती हुई, जिस में किसी को दूसरे के लिए सोचने का वक्त ही नहीं है. हर व्यक्ति केवल अपने तक सीमित रह गया है. वह भाग रहा है तो अपने लिए, रुक रहा है तो अपने लिए. एक मैं हूं कि इस भागती हुई जिंदगी में से भी कुछ लमहे सोचने के लिए निकाल लेती हूं.

एक दिन जब रोज की तरह बस में बैठ कर कालेज जा रही थी तो सामने की सीट पर बैठे हुए एक 15-16 साल के लड़के को देख कर न जाने क्याक्या विचार मन को घेरने लगे. उस लड़के की लंबाई काफी अच्छी थी. वह बहुत सुंदर था, उस के बाल घुंघराले, रंग साफ और होंठ लाल थे. जब तक मेरा कालेज नहीं आया तब तक रहरह कर मैं उसे देखती रही और सोचती रही कि यदि मेरी शादी समय पर हो गई होती तो इतना ही बड़ा मेरा बेटा होता. इतना ही सुंदर, इतना ही भोला, इतना ही मासूम. जब वह मेरे साथ चलता तो मेरा दायां हाथ बन कर मेरे साथ रहता. उसे देख कर ही मैं अपना सारा जीवन बिता देती.

कालेज में भी उसी लड़के का चेहरा मेरी आंखों के आगे घूमता रहा और खुशियां मेरे रोमरोम में समाती रहीं.

‘‘आज कहां खोई हो?’’ मेरी सहेली राधा ने पूछ ही लिया.

‘‘कहीं भी तो नहीं खोई हूं. यहीं तो हूं,’’ मैं ने सकपका कर कहा.

‘‘कुछ तो है यार,’’ वह रहस्यभरे स्वर में बोली, फिर मुसकरा दी.

कालेज से लौटते हुए वह लड़का मुझे फिर मिला. इस बार उसे सीट नहीं मिली थी. वह खड़ा था. मुझे उस समय बड़ा आश्चर्य हुआ जब वह वहां उतरा जहां मुझे उतरना था. ‘तो क्या यह यहीं मेरे महल्ले में रहता है?’ मेरे मन में प्रश्न उठा और एक जिज्ञासा भी जाग उठी कि इस का घर कहां है? वह धीरेधीरे चल रहा था. मैं उस के पीछे चल रही थी. मेरे घर के बाद तीसरे मकान में वह लड़का चला गया.

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