कहानी के बाकी भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें

स्त्री सुलभ गुणों को ले कर क्या करेगी वह अब. स्त्री सुलभ लज्जा, संकोच, सेवा,

ममता जैसे भावों से मुक्त हो जाना चाहती है, कठोर हो जाना चाहती है. उस के प्रिय जनों ने उस की अवहेलना की. आज उस की सफलता, उपलब्धियां, सम्मान देख उस के सहयोगी, उस के मातहत सहम जाते हैं. फिर भी वह संतुष्ट क्यों नहीं? शायद इसलिए कि उस की सफलता का जश्न मनाने उस के साथ कोई नहीं.

उसे याद है उस के मन में भी उमंग उठी थी, सपने संजोए थे. आम भारतीय नारी की तरह एक स्नेहमयी बेटी, बहू, पत्नी और मां बनना चाहती थी. वह अपना प्यार, अपनी ममता किसी पर लुटा देना चाहती थी. रात के अकेलेपन में पीड़ा से भरभरा कर कई बार रोई है. एक आधीअधूरी जिंदगी उस ने खुद वरण की है... उसे भरोसा ही नहीं रहा है रिश्तों पर.

ढेरों रिश्ते आ रहे थे. मांबाप विवाह के लिए जोर डाल रहे थे कि वह विवाह के लिए हां कर दे. वह नकार देती, ‘‘मां, इस विषय पर कभी बात न करना और फिर तुम देख ही रही हो मुझे फुरसत ही कहां है घरगृहस्थी के लिए... मैं ऐसे ही खुश हूं... विवाह करना जरूरी तो नहीं?’’

किस्सेकहानियों और सिनेमा की तर्ज पर वास्तविक जिंदगी में भी ऐसे संयोग आ सकते हैं. विश्वास करना पड़ता है. देशप्रदेश के दौरे नमिता के पद के आवश्यक सोपान थे. ऐसे ही एक कार्य से नमिता दिल्ली जा रही थी. अपनी सीट पर व्यवस्थित हो उस ने पत्रिका निकाली और टाइम पास करने लगी.

गाड़ी चलने में चंद क्षण ही शेष थे कि अचानक गहमागहमी का एहसास हुआ. नमिता की पास वाली सीट पर सामान रखने में एक सज्जन व्यस्त थे. नमिता ने पत्रिका को हटा कर अपने सहयात्री पर ध्यान केंद्रित किया, तो उस के आश्चर्य की सीमा न रही. वे प्रांजल थे. क्षणांश में उस ने निर्णय ले लिया कि सीट बदल लेगी.

आगे की कहानी पढ़ने के लिए सब्सक्राइब करें

डिजिटल

(1 साल)
USD10
 
सब्सक्राइब करें

डिजिटल + 24 प्रिंट मैगजीन

(1 साल)
USD79
 
सब्सक्राइब करें
और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...