जातीय श्रेष्ठता समाज में विभेद पैदा कर रही है. हीन भावना से ग्रसित लोग अपने को दोयम दर्जे का समझ रहे है. जिसकी वजह से देश की उत्पादकता और प्रशासनिक क्षमता घट रही. देश पिछड रहा है. अभिव्यक्ति की आजादी और सेक्यूलिज्म किताबी बातें हो गई है. बुद्विजीवियो की खेमेबंदी समाज को खतरा पहुंचा रही है.

1990 की बात है. देश में मंडल कमीशन का डंका बज रहा था. उत्तर प्रदेश के सुल्तानपुर के रहने वाले युवा पुष्पेंद्र प्रशान्त श्रीवास्तव दिल्ली में पत्रकारिता करने गये. रिपोर्ट में उनको नाम नहीं जाता था. ऐसे में कुछ समय गुजर गया और एक अच्छी रिपोर्ट में उनका नाम गया. अगले दिन यह चर्चा हुई की रिपोर्ट तो ठीक थी पर इतना बडा नाम अच्छा नहीं लग रहा. कुछ विचार विमर्श के बाद नाम से ‘श्रीवास्तव‘ हट गया. यह किसी एक की बात नहीं बहुत सारे ऐसे उदाहरण मिले जिससे पता चलता है कि बुद्विजीवियांे में उस जमाने में जातीय श्रेष्ठता का चलन नहीं था. लोगो की उनकी जाति और किसके समर्थक है इससे उनके लेखन का पता नही चलता था.

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उस दौर में खबरों को लिखते इस बात का ध्यान रखा जाता था कोई ऐसा शब्द ना लिखा जाये जिससे जातीयता का बोध हो. या कोई ऐसी बात ना लिखी जाये जो संविधान के अनुरूप ना हो. हर लेख और रिपोर्ट में लिखे गये शब्दों को जांचने के लिये संपादन करने वाले लोगों के पास ‘शब्द कोष‘ रखा रहता था. अगर कि शब्द को लेकर कोई शका है तो संपादकीय विभाग में बहस हो जाती थी. बहस के बाद वही शब्द प्रकाशित होता था. जो हर तरह से सही होता था. धीरे धीरे बुद्विजीवियों पर जातीय श्रेष्ठता का रंग गहराने लगा. तकनीकी का जमाना आ गया. ‘शब्द कोष‘ गायब हो गया. अब लेखन से नही नाम से ही पता चलने लगा कि कौन किस विचारधारा का है.

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