Abortion Law : यह उन मुकदमों में से एक था जो अदालतों का ध्यान कानूनी खामियों की तरफ खींचते हैं और उन में सुधार के लिए अदालतों को मजबूर कर देते हैं. इस मामले को थोड़े से में समझना जरूरी है.
इस मामले में याचिकाकर्ता एक 25 वर्षीया युवती, काल्पनिक नाम मान लें सीमा, थी जिसे 22-23 सप्ताह की प्रैग्नैंसी थी. हर समय साथ जीनेमरने की कसमें खाने वाला, सुखदुख में साथ निभाने का वादा करते रहने वाला सीमा का प्रेमी उसे छोड़ कर गायब हो गया था जिस से वह परेशान थी. पार्टनर के साथ छोड़ देने के बाद पेट में पल रहा बच्चा उसे भार लगने लगा था. यह कोई नई बात नहीं थी, ऐसा अकसर होता है कि प्रेमिका या गर्लफ्रैंड के प्रैग्नैंट होते ही प्रेमी के हाथपांव फूलने लगते हैं. हाथपांव युवती के भी फूलते हैं क्योंकि एक अनचाही स्थिति उस के सामने भी होती है. ऐसे में प्रेमी साथ दे तो वह हिम्मत कर भी लेती है अबौर्शन की भी और बच्चे को जन्म देने की भी बशर्ते वक्त रहते शादी हो जाए. यह और बात है कि सहमति अकसर अबौर्शन पर ही बनती है.
सीमा के साथ जो हुआ उस से उस का टूट जाना स्वभाविक था. ऐसी हालत में युवतियों के सामने ज्यादा विकल्प नहीं होते सिवा इस के कि वे दुनिया से छिपछिपा कर बच्चे को जन्म दे कर उसे किसी की मदद से यहांवहां कहीं दे दें और फिर इसे बुरा सपना मानते छुटकारा पा कर सामान्य जिंदगी जीने की कोशिश करें. इस के लिए भी कोई साथ देने को तैयार न हो तो आत्महत्या कर लें. सीमा ने तीसरा रास्ता चुना, वह था गर्भपात का. लेकिन यह आसान न था क्योंकि इस में कानून आड़े आ रहा था.
इस के लिए वह सरकारी अस्पताल गई और मान्यताप्राप्त नर्सिंग होम्स भी गई. लेकिन दोनों ही जगहों पर डाक्टरों ने यह कहते हाथ खड़े कर दिए कि चूंकि प्रैग्नैंसी को 20 सप्ताह से ज्यादा का वक्त हो चुका है इसलिए कानून के मुताबिक वे अबौर्शन नहीं कर सकते. लेकिन सीमा ने हार नहीं मानी, उस ने दिल्ली हाईकोर्ट का रुख किया और अबौर्शन की गुहार लगाई. हाईकोर्ट ने भी गर्भपात के कानून एमटीपी एक्ट का हवाला देते उस की मांग ठुकरा दी. यह मामला एक्स बनाम प्रिंसिपल सैक्रेटरी हैल्थ एंड वैलफेयर डिपार्टमैंट गवर्नमैंट औफ एनसीटी औफ दिल्ली के नाम से चला था. गोपनीयता के मद्देनजर पीड़िता की जगह एक्स लिखा गया था.
अपने 15 जुलाई, 2022 के फैसले में दिल्ली हाईकोर्ट ने स्पष्ट कहा कि चूंकि एमटीपी एक्ट नियम 3 बी (सी) में वैवाहिक स्थिति में बदलाव को केवल विधवा या तलाकशुदा के मामले में माना गया है इसलिए अविवाहित महिला को 20-24 सप्ताह की बीच अबौर्शन की इजाजत नहीं दी जा सकती.
पीड़ा एक अविवाहिता की
प्रैग्नैंसी का यह मामला तकनीकी तौर पर कितना पेचीदा था, इस का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अपनी अपील में सीमा ने कहा था कि वह 15 जुलाई, 2022 तक अबौर्शन की इजाजत चाहती है क्योंकि तब तक प्रैग्नैंसी लगभग 24 सप्ताह की हो चुकी होगी. दिल्ली हाईकोर्ट ने सीमा की मानसिक तकलीफ और दूसरी आने वाली परेशानियों से कोई वास्ता न रखते सीधे एमटीपी एक्ट के नियम के मुताबिक लकीर का फकीर स्टाइल में फैसला दिया. साथ ही, एक हास्यास्पद सुझाव सीमा को यह दे डाला कि अगर वह बच्चे को जन्म देना चाहती है तो उसे बच्चे को किसी को गोद दे देना चाहिए क्योंकि बच्चा गोद लेने वालों की लाइन लगी है. हाईकोर्ट इस बात पर अड़ा रहा कि कानूनी अनुमति नियमों के भीतर ही होनी चाहिए.
सीमा तुरंत सुप्रीम कोर्ट जा पहुंची. इस बार उस के साथ काबिल, तजरबेकार, जोशीले और होनहार वकीलों की टीम थी जिस की अगुआई संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ अपार गुप्ता ने की. इस टीम में नामी मानवाधिकार महिला अधिवक्ता वृंदा ग्रोवर के साथ आकांक्षा मेहरोत्रा, कृतिका अग्रवाल और अपूर्वा अग्रवाल शामिल थीं. इन सभी ने सीमा को उस गुनाह के लिए इंसाफ दिलाने में मदद की जो उस ने किया ही नहीं था.
सीमा की पहली दलील यह थी कि यह फैसला करना उस का हक है कि बच्चे को जन्म दे या न. इस के लिए उस ने संविधान के अनुच्छेद 21 का हवाला देते यह भी जोड़ा कि उस की प्राइवेसी और शारीरिक अखंडता यानी ‘मेरा शरीर मेरा हक’ को ध्यान में रखा जाए. बकौल सीमा, अविवाहित होने का यह मतलब नहीं कि उसे अबौर्शन का हक न मिले. वैवाहिक बदलाव की स्थिति इतनी संकीर्ण नहीं होनी चाहिए कि वह सिर्फ तलाकशुदा और विधवा महिलाओं तक सीमित रहे.
सीमा की इस दलील में भी दम था कि यह भेदभाव संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है जो समानता का अधिकार देता है. यहां तो वैवाहिक स्थिति की बिना पर उस से अलग बरताव किया जा रहा है. तकनीकी खामियों की तरफ सुप्रीम कोर्ट का ध्यान खींचते उस ने दलील दी कि साल 2021 में एमटीपी एक्ट में जो बदलाव हुआ वह यह दिखाता है कि संसद ने लिवइन या अविवाहित महिलाओं को भी इस कानून में शामिल करने का इरादा रखा था. नियमों की व्याख्या की जानी चाहिए बजाय इस के कि उस का शाब्दिक यानी ज्यों का त्यों का पालन किया जाए.
इस के बाद सीमा ने इस बात पर जोर दिया कि एक कुंआरी लड़की का प्रैग्नैंट होना कितना बड़ा सामाजिक कलंक माना जाता है. पार्टनर ने छोड़ दिया जिस के चलते वह अकेली मातृत्व की जिम्मेदारी नहीं उठा सकती. मानसिक, भावनात्मक और सामाजिक रूप से अकेली हो गई युवती के लिए यह सब झेलना मुश्किल है. अगर यह प्रैग्नैंसी जारी रही तो उस की दिमागी सेहत के लिए यह खतरनाक साबित हो सकता है. अगर इस में देरी हुई तो और अदालती कार्रवाई लंबी चली तो प्रैग्नैंसी बढ़ती जाएगी और फिर नियमों के मुताबिक अबौर्शन नहीं हो पाएगा. बकौल सीमा, वह सुरक्षित गर्भपात चाहती है. अबौर्शन के लिए कोई नाजायज या गैरकानूनी तरीका नहीं अपनाना चाहती.
सुप्रीम कोर्ट ने समझा दर्द
यह एक नहीं बल्कि लाखों सीमाओं की दास्तां है जो वजह कुछ भी हो के चलते वक्त पर अबौर्शन नहीं करा पातीं और बाद में कई दिक्कतों से घिर जाती हैं. इन की तकलीफ जस्टिस डी वाय चंद्रचूड़, जस्टिस ए एस बोपन्ना और जस्टिस जे बी पड़ीवाला की बैंच ने समझी और इन दिक्कतों का आंशिक हल सुप्रीम कोर्ट ने हाईकोर्ट का आदेश रद्द करते सीमा को राहत और सहूलियतों की शक्ल में दिया.
उस ने सीमा की हरेक दलील से इत्तफाक रखते पहले तो एम्स दिल्ली को आदेश दिया कि वह तुरंत एक मैडिकल बोर्ड का गठन करे और अबौर्शन अगर सुरक्षित हो तो उसे तुरंत करे जिस से गर्भ और न बढ़े.
आननफानन 22 जुलाई, 2022 को एम्स के 9 विशेषज्ञ डाक्टरों का बोर्ड गठित हुआ जिस ने तय पाया कि सीमा के अबौर्शन में मां और बच्चे को कोई खतरा नहीं. सो, जल्द ही सीमा को अनचाहे हो चले गर्भ से मुक्ति मिल गई. सुप्रीम कोर्ट का विस्तृत फैसला 29 सितंबर, 2022 को आया जिसे नजीर माना जाता है. इस फैसले ने एमटीपी की नए सिरे से व्याख्या भी कर डाली.
बकौल सुप्रीम कोर्ट, अविवाहित महिला के साथ अलग व्यवहार असंवैधानिक है. कानून सभी महिलाओं पर समान रूप से लागू होगा. एमटीपी एक्ट के नियम 3 बी की व्याख्या मकसद के मुताबिक होनी चाहिए. नियम किसी को रोकने नहीं बल्कि सुरक्षा देने के लिए बनाए गए हैं. इस फैसले में अहम और दिलचस्प बात एमटीपी एक्ट 2021 में हसबैंड की जगह पार्टनर शब्द का जिक्र होना थी. इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने माना कि लिवइन, बौयफ्रैंड या किसी भी तरह का संबंध मान्य है. संसद का इरादा साफ़ है कि अविवाहित महिलाओं को भी संरक्षण मिले.
सुप्रीम कोर्ट ने यह भी साफ़ किया कि महिला का मानसिक स्वास्थ्य और सामाजिक दबाव दोनों मैडिकल ग्राउंड हैं. अविवाहित प्रैग्नैंसी सामाजिक कलंक होती है जिसे कानून अनदेखा नहीं कर सकता. इसीलिए प्रैग्नैंसी में देरी से भी कोर्ट ने सहमति जताते तुरंत मैडिकल बोर्ड बनाने का आदेश दिया था. किसी भी महिला को गर्भ रखने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता, यह संवैधानिक तौर पर मंजूर नहीं. सुरक्षित और कानूनी अबौर्शन देने को राज्य की जिम्मेदारी भी सुप्रीम कोर्ट ने अपने आदेश में ठहराई.
इस सब के बावजूद सुप्रीम कोर्ट अबौर्शन के मामलों में अपनी यानी अदालतों की भूमिका पर कुछ नहीं बोला. अगर पहला और आखिरी फैसला मैडिकल बोर्ड को ही लेना है तो अदालती और कानूनी दखल की जरूरत के माने क्या. क्यों सीमा जैसी युवतियों को अदालत जाने को मजबूर होना पड़ता है, इस पर दोबारा विचार किए जाने की जरूरत है. कोई युवती या महिला सीधे सरकारी अस्पताल या रजिस्टर्ड क्लीनिक वगैरह में जाए तो फैसला लेने का हक भी सिर्फ डाक्टरों को होना चाहिए क्योंकि वही बेहतर समझते और तय करते हैं कि अबौर्शन कितना सुरक्षित या कितना असुरक्षित है और इस से जच्चाबच्चा की जान को खतरा तो नहीं.
सीमा को अगर यह सहूलियत या फायदा पहले ही मिल गया होता तो उसे भटकना न पड़ता. इसे एमटीपी एक्ट के मद्देनजर देखें तो तसवीर कुछ यों बनती है कि आजादी के बाद तक भारत में गर्भपात दंडनीय अपराध हुआ करता था. भारतीय दंड संहिता की धारा 312-316 के मुताबिक अबौर्शन करनाकराना और इस की कोशिश करनाकराना भी जुर्म था.
केवल वही गर्भपात क़ानून था जिस में डाक्टर यह साबित कर दे कि मां की जान बचाने के लिए यह करना जरूरी था. नतीजतन, अनचाहे गर्भ, जो आमतौर पर बलात्कार से ठहरता था, से बचने के लिए महिलाएं नीमहकीमी, अप्रिशिक्षित दाइयों और दूसरे देसी तरीकों, जो अवैज्ञानिक ही होते थे, का सहारा लेने को मजबूर होती थीं जो जानलेवा ज्यादा साबित होते थे.
देर से मिली थी अबौर्शन की सहूलियत
60 के दशक में सरकार का ध्यान बढ़ती मातृ मृत्युओं और अवैध तरीकों से होने वाले गर्भपात पर गया तो उस ने 1964 में डाक्टर शांतिलाल शाह की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया. 2 साल बाद 1966 में इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट पेश की जिस में सिफारिश की गई थी कि गर्भपात को नियंत्रित और सुरक्षित ढंग से जायज किया जाए. महिलाओं के स्वास्थ और जीवन को केंद्र में रखते प्रशिक्षित डाक्टरों को गर्भपात करने की इजाजत दी जाए. इस रिपोर्ट की बिना पर साल 1971 में कानून बना जिसे नाम दिया गया मैडिकल टर्मिनेशन औफ प्रैग्नैंसी एक्ट 1971 जो देशभर में 1 अप्रैल, 1972 से लागू हुआ.
इस अधिनियम के मसौदे पर संसद में गरमागरम बहस हुई थी जिस का दकियानूसी, कट्टरपंथी हिंदूवादी सांसदों ने जम कर विरोध किया था (देखें बौक्स). उस वक्त प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी थीं, लिहाजा, महिलाओं को एक और अधिकार देने का श्रेय उन्हें मिला. इस के पहले उन के पिता पंडित जवाहरलाल नेहरू 1956 में ही महिला हित और अधिकारों के कानून लागू कर चुके थे जिन से पहली दफा महिलाओं को वोट देने का हक मिला था. मरजी से दूसरी जाति और धर्म में शादी करने के साथ तलाक का भी अधिकार मिला था, पहली बार महिलाओं को जायदाद पर हक मिला था और बच्चा गोद लेने का हक भी हासिल हुआ था.
ऐसे कई कानूनी अधिकार पहली दफा महिलाओं को मिले थे जो धर्म के राज और मनमानी पर प्रहार थे और जिन्होंने पितृ सत्तात्मक व्यवस्था को कमजोर करते औरतों को बराबरी के हक दिए थे.
महिलाओं का जो अहम अधिकार गर्भपात का रह गया था वह मैडिकल टर्मिनेशन औफ प्रैग्नैंसी एक्ट 1971 के जरिए मिला तो रूढ़िवादियों को एक और झटका लगा था जिन की मंशा गर्भ की आड़ में भी महिलाओं को पारिवारिक और सामाजिक तौर पर दबाए रखने की थी. यह वह दौर था जब महिलाएं शिक्षित हो कर नौकरियों में आ रही थीं. वे अपने अधिकार और फैमिली प्लानिंग की अहमियत भी जानने समझने लगीं थीं. लेकिन प्रैग्नैंसी और अबौर्शन के मामले में पुरुषों की वे मुहताज थीं. काफीकुछ हासिल हो जाने के बाद भी उन्हें यह अधिकार नहीं मिला था कि वे अपनी मरजी से बच्चे पैदा करें या अच्छी सेहत और हिम्मत न होने पर बच्चे को जन्म देने से मना कर सकें. कुलजमा इस दौर में भी वे पैसे कमाने और घरगृहस्थी की जिम्म्मेदारियां संभालने के साथसाथ बच्चा पैदा करने की मशीन थीं.
इस एक्ट में औपचारिक तौर पर महिलाओं को अबौर्शन का हक दिया गया था लेकिन इसे जायज करार देना भी किसी चैलेंज से कम काम समाज के लिहाज से न था. इस की धारा 3 सब से अहम थी जिस में समयसमय पर संशोधन भी किए गए. शुरू में कहा गया था कि अबौर्शन कोई भी एमबीबीएस डाक्टर कर सकता है बशर्ते वह यह महसूस करे कि मां की जिंदगी बचाने और उस के मानसिक व शारीरिक स्वास्थ के लिए यह जरूरी हो. एक्ट की धारा 3 (2) में यह प्रावधान था कि 12 सप्ताह का गर्भ गिराने के लिए एक डाक्टर की ही राय काफी है. धारा 3 (2) (बी) में यह अनिवार्यता कर दी गई कि गर्भ अगर 12 सप्ताह से ज्यादा का हो तो अबौर्शन का फैसला 2 डाक्टर लेंगे.
एक अच्छी और जरूरी बात धारा 3 (3) में जोड़ी गई थी कि नाबालिगों को भी अबौर्शन का हक रहेगा. लेकिन इस के लिए उस के क़ानूनी गार्जियंस की लिखित सहमति जरूरी रहेगी. धारा 3 (4) में प्रावधान था कि कोई भी वयस्क महिला अपनी लिखित सहमति दे कर अबौर्शन करा सकती है. इस धारा में यह प्रावधान भी बतौर स्पष्टीकरण किया गया था कि बलात्कार के मामलों से हुई प्रैग्नैंसी को महिला के मानसिक स्वास्थ के लिए गंभीर कष्ट माना जाएगा और शादीशुदा महिलाओं के मामले में यदि गर्भ निरोधक फेल हो जाता है तो उसे भी मानसिक कष्ट की श्रेणी में गिना जाएगा.
यह सहूलियत विरोधाभासी थी क्योंकि यह स्पष्ट नहीं हो रहा था कि अगर अविवाहित महिला गर्भ निरोधक की विफलता के चलते प्रैग्नैंट हो गई तो उसे यह अधिकार मिलेगा या नहीं. इस से सवाल खड़े होना शुरू हो गए थे कि अविवाहित महिला को इस स्थिति में अबौर्शन का अधिकार क्यों नहीं. क्या शादी न करना कोई गुनाह है और क्यों इस कानून के जरिए नैतिकता थोपी जा रही है.
अविवाहित महिलाओं के साथ बड़ी दिक्कत यह थी कि डाक्टर्स कानून का हवाला देते उन्हें टरका देते थे. हकीकत में वे इसी एक्ट की धारा 5 (2) से डरते थे जो यह कहती थी कि अगर कोई भी इस एक्ट के नियमों की अनदेखी करते अबौर्शन करता है तो यह भारतीय दंड संहिता के मुताबिक 2 से ले कर 7 साल तक की कड़ी सजा का हकदार होगा.
यह भेदभाव हैरतअंगेज तरीके से लंबे समय तक बना रहा जिसे 2021 में संशोधित कर ठीक किया गया. विवाहित महिला को महिला और पति की जगह पार्टनर शब्द इस्तेमाल किया गया जिस का जिक्र सीमा ने अपनी याचिका में किया था. क्योंकि अब तक लिवइन के चलते प्रैग्नैंसी के मामले अदालत जाने लगे थे. इस बदलाव से अबौर्शन कराने वाली महिलाओं और इसे करने वाले डाक्टरों का डर दूर हुआ.
इसी संशोधन में यह प्रावधान भी किया गया कि अगर प्रैग्नैंसी 24 सप्ताह से ज्यादा हो तो भी मैडिकल बोर्ड की इजाजत से अबौर्शन किया जा सकता है. सीमा का मामला इस का भी उदाहरण ही है. एक अच्छा इंतजाम इस बदलाव में यह भी किया गया कि महिला की पहचान मैडिकल रिकौर्ड और अबौर्शन का विवरण किसी तीसरे व्यक्ति को नहीं बताया जाएगा. इस के लिए धारा 5 (ए) बनाई गई जिस में एक साल की सजा का प्रावधान भी किया गया.
लेकिन यह सब यों ही नहीं हो गया था बल्कि इस के लिए सरकार पर चौतरफा दबाव थे. सामाजिक संगठन तो मांग कर ही रहे थे. कई हाईकोर्ट्स ने विवेक का इस्तेमाल करते हुए 20 सप्ताह से ज्यादा की प्रैग्नैंसी को अबौर्शन की इजाजत दी थी. सुप्रीम कोर्ट की 2016 से ले कर 2019 तक की गई टिप्पणियों ने भी सरकार को इस बारे में सोचने को मजबूर किया था कि एमटीपी एक्ट अब बासी और आउटडेटेड हो चला है और 20 सप्ताह की समयसीमा वैज्ञानिक नहीं है.
जब अदालतों ने बलात्कार पीड़िताओं, नाबालिगों और फीटल एब्नौर्मिलटी वाले मामलों में मैडिकल बोर्ड की राय पर अबौर्शन की इजाजत देना शुरू कर दी तो केंद्र सरकार को इस में बदलाव करने को मजबूर होना ही पड़ा.
इस के पहले साल 2003 में जो संशोधन इस एक्ट में किए गए थे उन में अहम था सरकारी अस्पतालों के अलावा प्राइवेट क्लीनिकों को भी अबौर्शन के लिए लाइसैंस देना. इसी वक्त ट्रेंड डाक्टरों के मापदंड निर्धारित किए गए.
एमपीटी एक्ट के बनने का ही नतीजा है कि देश में हर साल औसतन 1.56 करोड़ रजिस्टर्ड अबौर्शन होते हैं जबकि एक साल में पैदा होने वाले बच्चों की तादाद 2.52 करोड़ है. यह तब है जब तरहतरह के कंट्रासैप्टिव उपलब्ध हैं और महिलाएं इन का इस्तेमाल बिना किसी हिचक के कर रही हैं. और जो पार्टनर के शादी के और दूसरे वादों पर एतबार करते वक्त गुजार देती हैं उन की हालत सीमा सरीखी हो जाती है जिन्हें सुप्रीम कोर्ट तक जाने का रास्ता तो पता होता है लेकिन गर्भ निरोधकों के इस्तेमाल से जाने क्यों वे हिचकती हैं जबकि ये आसानी से हर कहीं गांवदेहातों तक में मिल रहे हैं.
इस के बाद भी यह सोचा जाना बेमानी नहीं कि हालात कुछ भी हों, कोई भी महिला अबौर्शन के लिए अदालत की मुहताज क्यों जहां जाने से उस का तनाव, भागादौड़ी और दुश्वारियां और बढ़ जाते हैं. अदालत भी बिना मैडिकल बोर्ड की सलाह के कोई फैसला नहीं ले सकती, इसलिए यह अधिकार मैडिकल बोर्डों और डाक्टरों को दिया जाना कोई हर्ज की बात तो नहीं.
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इन्होंने किया था विरोध
शांतिलाल शाह कमेटी की रिपोर्ट के बाद जब संसद की बारी आई तो इस बिल पर बहस अगस्त 1971 में हुई थी लेकिन अच्छी बात यह थी कि इस का विरोध करने वाले सांसदों की संख्या दहाई का भी आंकड़ा नहीं छू पाई थी क्योंकि हर कोई देख और समझ रहा था कि देशभर की महिलाएं अबौर्शन का अधिकार चाहती हैं.
ऐसे में बिल का विरोध करने का मतलब होगा महिलाओं के वोट गंवाना. इस के बाद भी कुछ सांसद खुद को विरोध करने से रोक नहीं पाए. इन में, हैरत की बात है, सत्तारूढ़ कांग्रेस के भी सांसद शामिल थे. जाहिर है, ये सभी सिरे से दकियानूसी और संकीर्ण धार्मिक मानसिकता वाले थे जिन की नजर में औरत गुलाम और पांव की जूती होती है.
आरएसएस की विचारधारा से प्रभावित भारतीय जनसंघ के सांसद वसंत राव ओक ने इस बिल के विरोध में कहा था कि गर्भ में शिशु की हत्या अधर्म है. भारतीय संस्कृति में गर्भस्थ की रक्षा को धार्मिक व नैतिक कर्तव्य माना गया है, इसलिए कानून द्वारा गर्भपात को जायज बनाना सांस्कृतिक व धार्मिक मूल्यों के विरुद्ध होगा. अनचाहे गर्भ के नाम पर कानून का दायरा बढ़ता जाएगा और समाज में नैतिक पतन बढ़ेगा.
दूसरे कुछ हिंदूवादी सांसदों ने संसद के बाहर वसंत राव का समर्थन किया था. इस बहस से साबित यह हो गया था कि धर्म कोई भी हो, महिलाओं को यह राहत नहीं देना चाहता. ईसाई पृष्ठभूमि वाले निर्दलीय सांसद पी डी स्टीफन ने वसंत राव की बात इन शब्दों में की थी कि ईसाई धर्म शास्त्र के अनुसार गर्भाधान से ही जीवन शुरू हो जाता है, इसलिए गर्भपात को मैडिकल टर्मिनेशन कहना गलत है, यह तो टेकिंग अलाइफ है. अपनी बात में दम लाने के लिए स्टीफन ने बाइबिल का भी हवाला दिया था. जब इस से बात न बनी तो वे कूद कर भारतीय सभ्यता की दुहाई यह कहते नजर आए थे कि भारतीय सभ्यता गर्भस्थ जीवन की पवित्रता को मानती है फिर चाहे वह हिंदू हो ईसाई.
पेशे से वकील कांग्रेस सांसद के पी उन्नीकृष्णन ने भी धार्मिक भाषा और विचारों को महिला हितों से ऊपर रखा. उन्होंने कहा था कि भारत की सभ्यता, चाहे हिंदूबौद्धजैन परंपरा देखें, गर्भस्थ जीवन को पवित्र मानती है, इसलिए गर्भपात को चिकित्सीय प्रक्रिया कहना उचित नहीं. यह समाज की नैतिक दशा पर असर डालेगा. इसे केवल स्वास्थ्य का प्रश्न मानना गलत है. धर्मशास्त्र गर्भस्थ जीवन को जीव मानते हैं.
आजादी के बाद माहौल बदला था, इसलिए यह बिल लगभग सर्वसम्मति से पारित हो गया था. फिर भी, धर्म की बिना पर जिंदगी जीने वाले सांसदों ने अपनी भड़ास तो निकाल ही ली थी जो नक्कारखाने में तूती की आवाज सरीखी साबित हुई थी. Abortion Law





