भिन्न राजनैतिक विचारों या विचारधारा के चलते देश में अपवाद स्वरूप ही अलगाव या तलाक के मामले सामने आते हैं. इस का यह मतलब नहीं कि पतिपत्नी के बीच सियासी मतभेद नहीं होते बल्कि होता यह है कि विवाद या बहस की स्थिति में पतिपत्नी में से कोई एक पक्ष या दोनों ही जल्द इसे खत्म करने की कोशिश करते हैं लेकिन अपने पीछे हटने का अफसोस, घुटन या खीझ उन्हें सालते रहते हैं.
26 वर्षीय रुता दुधागरा गुजरात के सूरत शहर के वार्ड नंबर 3 से आम आदमी पार्टी से पार्षद हैं. उन्हें निगम चुनाव में रिकौर्ड 54,754 वोट मिले थे और उन्होंने भाजपा उम्मीदवार को 34,000 से भी बड़े अंतर से पटखनी दी थी. रूता के पास कोई राजनैतिक अनुभव नहीं था उन्होंने कुछ शौकिया और कुछकुछ कर गुजरने की गरज से राजनीति शुरू की थी. आप और अरविंद केजरीवाल से प्रभावित इस सुंदर और आकर्षक युवती को वोटर्स ने हाथोंहाथ लिया था तो इस की एक और अहम वजह उन का आईटी इंजीनियर होना भी थी.
लेकिन यह सियासी कामयाबी उन की घरगृहस्थी और दाम्पत्त्य तोड़ने वाली साबित हुई. रूता की शादी चुनाव से 3 साल पहले पेशे से कंप्यूटर इंजीनियर चिराग दुधागरा से हुई थी. चिराग दिलोदिमाग से भाजपाई है चुनाव के कुछ दिनों बाद ही उस ने रूता पर दबाब बनाना शुरू कर दिया कि वह आप छोड़ भाजपा में शामिल हो जाए. बकौल रूता इस बाबत चिराग को करोड़ों की पेशकश हुई थी लेकिन मैं किसी भी कीमत पर अपनी पार्टी नहीं छोड़ सकती थी क्योंकि मेरी प्रतिबद्धताएं आप और उस की नीतियों के साथ थीं.
कहना और सोचना आसान है कि यह एक असफल पति की कुंठा और सफल पत्नी की अति महत्वाकांक्षा रही होगी कि दोनों में तलाक की नौबत आ गई लेकिन यह पूरा सच नहीं है बकौल. रूता वह भाजपा ज्वाइन करने तैयार नहीं हुई तो चिराग ने उसे मारनापीटना शुरू कर दिया जिस के चलते उन्होंने अलग होने का फैसला कर लिया. चिराग इस पर और आक्रामक हो उठा और उस ने रूता का लेपटाप और पहचान संबंधी अहम दस्तावेज भी अपने पास रख लिए.
कुछ दिनों बाद आपसी सहमति से दोनों का तलाक हो गया लेकिन इस के लिए रूता को चिराग को 7 लाख रुपए नकद और 90 ग्राम के सोने के जेवर देना पड़े. इस विवाद और अलगाव को गुजरे ढाई साल से भी ज्यादा का अरसा हो गया है और यह कहने को ही सूरत और गुजरात तक सिमटा है नहीं तो सियासी मतभेद हर दूसरे कपल में हैं. कैसे हैं और नए दौर के युवा क्यों डेट के पहले अपने पार्टनर के राजनीतिक विचार भी जाननेसमझने को प्राथमिकता देने लगे हैं उस से पहले संक्षेप में यह समझ लेना जरुरी है कि दरअसल में अब महिलाओं की स्वतंत्र सोच विस्तार लेने लगी है.
महिलाओं की राजनीतिक चेतना
अब से कोई 50 साल पहले तक महिलाओं की अपनी कोई स्वतंत्र राजनीतिक सोच नहीं हुआ करती थी. और होती भी होगी तो उस के कोई माने नहीं होते थे. परिवार और समाज में उन की भूमिका बहुत सीमित थी कुल जमा वे एक देह भर होती थीं जिस का काम बच्चे पैदा करना होता था.
70 के दशक से महिलाओं का बड़े पैमाने पर शिक्षित होना और आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होना शुरू हुआ. इस के बाद से उन की राजनीतिक चेतना विकसित होना शुरू हुई जो अब इस मुकाम तक तो आ गई है चिराग जैसे पति उन्हें जबरिया अपनी सोच की पार्टी में लाने प्रताड़ित करने से नहीं चूकते.
यानी वह दौर गया जब महिलाएं पिता और पति के कहने पर वोट डालती थीं. रूता जैसी महिलाएं अपनी राजनीतिक विचारधारा पर इतनी अडिग हैं कि उन्हें अपने कुंठित और जिद्दी पति को छोड़ देना बेहतर लगने लगा है. अच्छा तो यह है कि यह रोग अभी संक्रामक नहीं हुआ है लेकिन कल को हो जाए तो बात कतई हैरानी की नहीं होगी और इस में घर तोड़ने या टूटने का दोषी अकेली महिला को ठहराना ही उन के साथ ज्यादती होगी.
इस मामले में यह कहना एकदम खारिज नहीं किया जा सकता कि अगर पत्नी भाजपाई होने तैयार नहीं थी तो पति ही आप का हो लेता. इस में कहां का पहाड़ टूट पड़ता अगर वह तैयार हो जाता तो गृहस्थी टूटने से बच जाती. लेकिन इन दोनों को ही गृहस्थी और 4 साल पुराने रोमांस से ज्यादा चिंता अपनी अपनी विचारधारा की थी. हर कोई जानता है कि आप और भाजपा की जन्मपत्री का एक गुण भी नहीं मिलता है इसलिए इन दोनों का अहम अड़ गया जो स्वाभाविक भी था.
राजनातिक आरक्षण से महिलाएं सक्रिय हुईं तो पुरुषों की खींची लक्ष्मण रेखा खत्म हो रही है हालांकि अभी भी पार्षद पति और सरपंच पति जैसे शब्द और संबोधन व्यंगात्मक रूप से आम हैं जिन के तहत चुनी गई महिला दर्शनीय हुंडी होती है. उन के हिस्से का सारा काम उन के पति ही करते हैं यह कितना गलत और कितना सही है इस पर बहस की तमाम गुंजाइशें मौजूद हैं.
अब मुद्दा यह है
लेकिन अब बहस का मुद्दा यह होता जा रहा है कि अगर पतिपत्नी के राजनीतिक विचार पूरब पश्चिम और उत्तर दक्षिण जैसे हों तो क्या वैवाहिक जीवन कलहपूर्ण और बोझिल हो जाता है. इस सवाल का जवाब में ही निकलता है. जबाब तो इस दिलचस्प सवाल का भी हां में ही मिलता है कि शादी करने जा रहे युवाओं को डेट पर अपने पार्टनर के राजनीतिक विचार भी जान लेना चाहिए. ऐसा हो भी रहा है फिर भले ही वह लोगों की नजरों और जानकारी में बड़े पैमाने पर न आता हो.
पिछले दिनों 5 राज्यों के विधानसभी चुनाव के दौरान डेटिंग एप बम्बल ने आंकड़े देते हुए बताया था कि 41 फीसदी भारतीय डेटर्स का कहना है कि ऐसा साथी जिस की कोई राजनीतिक सोच है और वह वोट देता है उन के लिए मायने रखता है. 21 फीसदी लोग ऐसे साथी को पसंद करते हैं जो सामाजिक कार्यों में भागीदारी करते हैं. 38 फीसदी लड़कियां ऐसे साथी तलाशती हैं जिन के मूल्य भी समान हों.
एक और डेटिंग एप टिंडल के मुताबिक भारतीय युवा डेटिंग में भी राजनीतिक सोच को महत्व दे रहे हैं. पहली डेटिंग के दौरान उन की बातचीत का महत्वपूर्ण हिस्सा राजनीति होता है. वे एकदूसरे से राजनीति पर बातचीत कर रहे हैं और विचार न मिलने पर ब्रेकअप भी कर रहे हैं. टिंडर के एक सर्वे के मुताबिक 60 फीसदी भारतीय युवाओं का मानना है कि उन के पार्टनर की राजनीतिक सोच कैसी है यह उन के लिए महत्व रखता है.
बम्बल की इंडिया कम्युनिकेशंस की निदेशक समर्पिता समदर के मुताबिक डेट करने वाले भारतीय आजकल ऐसे साथी चुन रहे हैं जिन के पार्टनर की प्राथमिकता और मूल्य सामान हों. टिंडर इंडिया की कम्युनिकेशंस डायरैक्टर अहाना धर की माने तो युवा भारतीयों ने पारंपरिक डेटिंग मान्यताओं को अब पीछे छोड़ दिया है और वे ऐसी चीजें देख रहे हैं जिन में दोनों एकदूसरे की पसंद को पसंद कर रहे हैं.
बेंगलुरु की रिलेशनशिप कोच राधिका मोह्तो के मुताबिक अगर कोई अपनी राजनीतिक विचारधारा में कट्टर है तो वह अच्छा साथी नहीं हो सकता. बिलाशक राधिका एक जटिल बात को बहुत आसान शब्दों में कहती हैं और इस के कई शीर्ष उदाहरण भी उपलब्ध हैं जिन का लघु संस्करण चिराग साबित हुआ जिस ने पत्नी छोड़ दी लेकिन कट्टरता नहीं छोड़ी.
जरुरी है पौलिटिकल डेट
पहली, दूसरी, तीसरी, चौथी और इस के बाद की डेट पर युवा आमतौर पर एकदूसरे को समझने जो बातें करते हैं वे जौब, सेलरी, कम्पनी, शौक, सैक्स और रोमांस के अलावा शादी के तौरतरीके और एक फ्लेट और एक बच्चा प्लान करने तक सिमटी नहीं रही गई हैं. अब वे एकदूसरे के राजनातिक विचार भी जानने लगे हैं जिस से उन का स्वभाव बहुत स्पष्ट रूप से समझ आए और यह तय किया जा सके कि बंदे या बंदी से कितनी पटरी बैठेगी.
धर्म, रिश्तेदारी, समाज और दीगर मामलों पर तालमेल बैठाना अब अपेक्षाकृत आसान हो चला है, भोपाल की एक 24 वर्षीय युवती समीक्षा जैन कहती हैं लेकिन राजनितिक समझ इन सब चीजों का मिक्श्चर्र होती है. इस से संपूर्ण व्यक्तित्व समझने में आसानी हो सकती है. मसलन कोई युवक अगर कट्टर भाजपाई है तो वह अपनी पार्टनर से मुसलमानों से नफरत करने की स्वभाविक अपेक्षा रखेगा.
अगर पार्टनर इस से सहमत नहीं होती तो उन के बीच समझिए असहमति की शुरुआत हो चुकी है. अगर यह जिद या आग्रह बढ़ता है तो वह अलगाव पर जा कर ही खत्म होगा, ऐसी संभावना ज्यादा है फिर कोई युवती क्यों यह रिस्क उठाएगी कि बहुत कुछ दूसरी मेचिंग्स होते हुए भी उसे ही चुने.
कुरेदने पर समीक्षा थोड़ा खुल कर बताती है जो एक तरह से राधिका महतो का ही समर्थन लगता है कि कट्टरता आज के सभी युवाओं को रास नहीं आती है. उन का नजरिया इस मसले पर थोड़ा उदार है लेकिन इस का यह मतलब नहीं कि वह कांग्रेस से या दूसरे भाजपा विरोधी क्षेत्रीय दलों की समर्थक है पर होगा यह कि उस का पार्टनर अपने पूर्वाग्रहों के चलते मतलब यही निकालेगा. इसलिए राजनातिक सोच को ठोक बजा कर आगे की सोचना ज्यादा बेहतर है.
यानी लड़ाई यहां भी कट्टरवाद और उदारवाद की दिखती है जो अमेरिका में 50 के दशक से रिपब्लिकन्स और डैमोक्रेट्स के बीच देखने में आ रही है. ताजा उदाहरण साल 2016 का है जब वेकफील्ड रिसर्च में यह उजागर किया गया था कि डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति चुने जाने के बाद 10 में से 1 जोड़े ने अपने सियासी मतभेदों के चलते रिश्ते खत्म कर लिए थे.
इसी तर्ज पर अब से सौ साल पहले जरमन तानाशाह हिटलर के दौर में भी कपल्स में बड़े पैमाने पर अलगाव हुआ था. आमतौर पर हिटलर और उस के यहूदी विरोधी नाजी राष्ट्रवाद को पसंद करने वाले पुरुष अपनी पार्टनर से भी यही उम्मीद रखते थे जो अगर पूरी नहीं होती थी तो हिटलर में आस्था की गाज रिश्ते पर टूटती थी.
इंदिरा बनाम मोदी
प्रसंगवश पूरी दुनिया में पतिपत्नी के बीच अलगाव बड़े पैमाने पर तभी देखने में आया जब तानाशाही या दक्षिणपंथ हावी हुआ. हमारे देश में इंदिरा गांधी के दौर में पतिपत्नी के बीच विवाद तो नहीं होते थे लेकिन मतभेद जरुर परिवारों में पैदा हुए थे. अधिसंख्यक महिलाएं उदारवादी इंदिरा गांधी को चाहती थी जो पुरुषों खासतौर से हिंदू महासभाइयों और जनसंघियों को रास नहीं आता था.
इस की वजह यह थी कि इंदिरा गांधी अपने उदार और कथित धर्म निरपेक्ष विचारों के प्रति ज्यादा कट्टर होती जा रहीं थीं. दक्षिण भारत में तो वे इंदिराम्मा के नाम और पहचान से देवी की तरह पूजी जाने लगीं थी.
राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों के लिए यह और दिलचस्पी की बात हो सकती है कि आपातकाल के बाद भी कांग्रेस को दक्षिण भारत से लोकसभा की खासी सीटें मिली थीं क्योंकि वहां का हिंदुत्व उत्तर भारत के हिंदुत्व से बहुत अलग है. यह बात नरेंद्र मोदी के दौर में भी समझ आ रही है कि इसी पृथक हिंदुत्व के बने रहने के कारण भाजपा दक्षिण में कुछ खास हासिल नहीं कर पाती.
इन्हीं नरेंद्र मोदी को ले कर घरों में खासतौर से पतिपत्नी में खटपट आम है लेकिन वह अंदरूनी है. वे तय है रिश्ते की अहमियत और जरूरत समझते हैं. उत्तर भारत के अधिकांश सवर्ण पुरुष मोदी के हिन्दू राष्ट्रवाद से सहमत हैं लेकिन महिलाएं पूरी तरह नहीं हैं. हालांकि वे पुरुषों से ज्यादा धार्मिक और कर्मकांडी हैं.
अमेरिका की तरह कभी इस पर कोई शोध हो तो सच शायद सामने आए कि सभी सवर्ण महिलाओं के रोल मौडल मोदी क्यों नहीं बन पा रहे. यहां, यह याद रखना जरुरी है कि इन महिलाओं को मोदी से उजागर तौर पर कोई शिकायत भी नहीं है.
मुमकिन है इस की वजह उन का बिना ठोस कारण पत्नी को त्याग देना रहा हो जिस की उपस्थिति धार्मिक आयोजनों में सनातन धर्म के मुताबिक पति के साथ अनिवार्य होती है.