किशोरावस्था में किशोरों के मन में रोमांस, रोमांच, मौजमस्ती और कैरियर से भी पहले देशभक्ति का जज्बा होता है. यह बात अलग है कि अन्य इच्छाओं की तरह वे इसे खुल कर व्यक्त नहीं करते. इसी उम्र में वे सिस्टम यानी व्यवस्था के बारे में सोचते हैं, उस का विश्लेषण करते हैं और इस के प्रति अपनी राय कायम करते हैं.

यह राय आमतौर पर अच्छी नहीं होती. देश के प्रति तो कतई नहीं, क्योंकि जब उन्हें अपने चारों ओर भाईभतीजावाद, भ्रष्टाचार, पाखंड, घूसखोरी, जातिगत व धार्मिक भेदभाव, शोषण, अपराध और घोटाले इफरात में होते दिखते हैं तो वे देश चलाने वालों के प्रति आक्रोशित हो उठते हैं. किसी भी स्कूल या कालेज में देखें छात्रों के बीच बहस का एक बड़ा मुद्दा मौजूदा सिस्टम ही होता है. ‘मैं अगर प्रधानमंत्री होता तो यह कर डालता, वह कर डालता,’ जैसे जुमले बोलने से शायद ही कोई छात्र अपनेआप को रोक पाता हो. ये बातें और जोश नादानी नहीं, बल्कि आने वाले कल के देश के आधार लेते विचार हैं.

इन टीनएजर्स को नजरंदाज करने की स्थिति में कोई नहीं है खासतौर से वैचारिक संगठन, राजनीतिक दल तो कतई नहीं, इसलिए तरहतरह के टोटकों से छात्रों को अपने पाले में खींचने की कोशिशें लोकतंत्र की स्थापना के बाद से ही होती रही हैं. ये कोशिशें अब शबाब पर हैं, क्योंकि छात्र लोकतंत्र के सही माने समझने लगे हैं कि इस में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार है और इसे जो भी हम से छीनेगा वह हमारा और देश का दुश्मन ही होगा.दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में बीते दिनों जो हाई वोल्टेज ड्रामा हुआ वह छात्रों के लिहाज से बहुत बुरा था. शिक्षण संस्थानों में क्या हो रहा है यह इस मामले से पता चला कि कैसे प्रतिभाशाली नेताओं की कमी से जूझ रहे राजनीतिक दल  और वैचारिक संगठन छात्रों की ऊर्जा पर अपनी रोटियां सेंक रहे हैं और इन सरकारी एजेंसियों का बेजा इस्तेमाल भी कर रहे हैं.

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