देश बहुत मुश्किल दौर से गुजर रहा है. आम लोगों को सम?ा नहीं आ रहा कि दिक्कत कहां और कैसी है. ऐसे में राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा लोगों को एक आश्वासन देने में सफल रही है. इस यात्रा की पौलिटिक्स क्या है और यह कितनी प्रभावी रही, जानें आप भी.

दिनांक 3 जनवरी, 2023. स्थान- गाजियाबाद. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता व लोकसभा सदस्य राहुल गांधी की ‘भारत जोड़ो’ यात्रा एक ब्रेक के बाद उत्तर प्रदेश में दाखिल हुई तो वहां पार्टी के कई नेता व कार्यकर्ता यात्रा का स्वागत करने को खड़े थे. उन में प्रियंका गांधी भी थीं, जिन्हें देख राहुल भावुक हो गए. मंच पर राहुल अपनी इकलौती छोटी बहन के प्रति लाड़ छिपा न पाए और उन्हें प्यार से चूम लिया.

इसी दौरान वे प्रियंका से बात करते, उन से हंसीमजाक भी करते रहे. आखिर, बहुत दिनों बाद जो मिल रहे थे. किसी और के लिए यह कुछ भी हो लेकिन कांग्रेसियों के लिए यह बहुत ही जज्बाती दृश्य था. थकेहारे बड़े भाई ने अपनी छोटी लाड़ली बहन के प्रति प्यार जता कर कौन सा गुनाह कर दिया था, इसे सम?ाने के लिए कुछ भाजपा नेताओं के बयानों पर गौर करना जरूरी है ताकि यह पता चल सके कि नफरत में गलेगले तक डूबे लोग किस हद तक गिर सकते हैं.

विकृत और दूषित मानसिकता क्या होती है और किस किस्म के लोगों में पाई जाती है, इस का नमूना पेश किया उत्तर प्रदेश के एक मंत्री दिनेश प्रताप सिंह ने, जिन्होंने कहा, ‘‘अनजान बच्चे कर सकते हैं, दोचार साल के बच्चे इस तरह से चुंबन कर सकते हैं लेकिन आप 50 साल की उम्र में ऐसा कर रहे हैं. यह सब भारतीय संस्कार, संस्कृति में नहीं है कि कोई भाई अपनी बहन का इस तरह से भरी सभा में चुंबन ले. सनातन संस्कृति में हर चीज के नियम निर्धारित हैं. मैं कहता हूं, आरएसएस कौरव है तो आप किसी दशा में पांडव नहीं हो सकते.’’

कभी रायबरेली में गांधीनेहरू परिवार के करीबी रहे इस नेता के मुंह से जो सड़ांध निकली उस से कई बातें सम?ा आईं. उन में पहली यह है कि भारत जोड़ो यात्रा की कामयाबी भगवा गैंग को हजम नहीं हो रही थी जो उस ने अपने दिमाग में भरी गंदगी को शब्द देने को इस पूर्व कांग्रेसी को चुना. दूसरी बात यह कि सनातनी नियम/धरम आप पर यह बंदिश भी लगाते हैं कि अपनी बहन, मां, बेटी के प्रति प्यार जताने के तौरतरीके उन के संविधान से सीखें. तीसरी अहम बात यह कि आप अगर आरएसएस पर उंगली उठाने की जुर्रत करेंगे तो आप पर किसी भी तरह का कीचड़ उछालने से गुरेज परहेज नहीं किया जाएगा. कुछ भी बोलने या कहने से पहले संस्कृति के इन ठेकेदारों की इजाजत जरूरी है, वरना अंजाम भुगतने को तैयार रहिए.

ये सज्जन शायद ही बता पाएं कि वे हिंदू या सनातनी संस्कृति के ठेकेदार हैं या भारतीय संस्कृति के जो विविध धर्मों वाली है और शायद ही यह बात भी स्पष्ट कर पाएं कि राहुल गांधी किस एंगल से अब उन्हें सनातनी नजर आने लगे हैं जो उस के कायदेकानूनों का पालन करने के लिए बाध्य हों.

गौरतलब है कि भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल का अपनी बहन प्रियंका को चूमते हुए फोटो अलगअलग कैप्शनों के साथ वायरल किया गया था जिन का सार यह था कि हिंदुओं में ऐसा नहीं होता. ईसाइयों या मुसलमानों में होता होगा.

गंदगी भाईबहन के इस निश्च्छल प्यार वाले फोटो में नहीं थी, गंदगी उन विकृत दिमागों में है जो रिश्तेनातों का दम भरते अघाते नहीं लेकिन जब गरज पड़े तो इन्हीं पवित्र रिश्तों को भी बदनाम करने से नहीं चूकते. इस फोटो को जिन लोगों ने वायरल किया उन्हें ही सोशल मीडिया पर अपने वालों का विरोध ?ोलना पड़ा कि ‘यार, इस हद तक मत गिरो.’ राहुल गांधी का विरोध करना हो करो, मजाक उड़ाना है खूब उड़ाओ पर अपनी सीमाओं का तो खयाल रखो. कल को यही बात हमारेतुम्हारे बारे में कोई कहे तो कैसा लगेगा?

क्या वास्तव में पौलिटिक्स में भाईबहन के पवित्र रिश्ते पर कीचड़ उछालना भी जायज होता है? कोई वजह नहीं कि इस सवाल का जवाब कोई भी हां में देगा. पौलिटिक्स को घटिया और नफरत से रोकने का अहम मकसद लिए भारत जोड़ो यात्रा को ले कर तरहतरह के कयास लगाए गए जिस से साहित्य में जरा सी भी दिलचस्पी रखने वालों को तो तुरंत याद आ गया होगा कि ‘तुम्हारी पौलिटिक्स क्या है पार्टनर.’

60-70 के दशक के ख्यातिनाम साहित्यकार गजानन माधव मुक्तिबोध की चर्चित कविता का शीर्षक है यह. मुक्तिबोध परंपराओं और आधुनिकता में तालमेल बैठाने के लिए भी जाने जाते हैं. तुम्हारी पौलिटिक्स क्या है पार्टनर, बाद में जुमला बन गया था और आम बातचीत में इफरात से इस्तेमाल होने लगा था. जिन लोगों का साहित्य से कोई वास्ता नहीं था और जो मुक्तिबोध को नहीं जानते थे वे भी कोई चीज सम?ा न आने पर सवाल करने लगे थे कि ‘पार्टनर, तुम्हारी पौलिटिक्स क्या है.’

राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा को ले कर अब यह सवाल फिर मौजूं हो गया है. अधिकतर लोग उन की मंशा और मकसद नहीं सम?ा पा रहे थे और जो सम?ो वे हलकान और यह सोचते दहशत में भी हैं कि कहीं राहुल गांधी की यह ‘पौलिटिक्स’ चल गई तो लेने के देने भी पड़ सकते हैं. आम लोगों को भी यह एहसास इस यात्रा से हुआ कि यह थोड़ी डिफरैंट है और इस में कोई हर्ज नहीं, आखिर राहुल गांधी गलत या बेजा तो कुछ कह नहीं रहे.

राहुल गांधी की मंशा या यात्रा का उद्देश्य बहुत कम शब्दों में कोई विस्तार से सम?ा पाया तो वे लंदन स्कूल औफ इकोनौमिक्स की प्रोफैसर मधुलिका बनर्जी हैं. ब्रिटेन के प्रतिष्ठित अखबार ‘द गार्डियन’ के हवाले से एक लेख में उन्होंने लिखा, ‘यह पूरा अभियान किसी अहिंसक सेना के विशाल सैन्य अभियान जैसा था, अलगअलग भाषाई समुदायों और पृष्ठभूमियों के लोगों को इस मार्च में शामिल होते देखना काफी दिलचस्प था. मैं ने इस यात्रा में चलते हुए भी राहुल गांधी को काफी विनम्र और तेज बुद्धि का शख्स पाया है.’

बकौल मधुलिका बनर्जी, राहुल गांधी को चुनौती देना और उन से असहमत होना संभव था जो कई भारतीय नेताओं के साथ संभव नहीं था. नरेंद्र मोदी के साथ ऐसा करना संभव नहीं है क्योंकि वे तो प्रैस कौन्फ्रैंस ही नहीं करते हैं. मोदी की सभाओं में वैभव के दर्शन होते हैं लेकिन इस से इतर राहुल गांधी की बढ़ी हुई दाढ़ी और आम लोगों के साथ तसवीरें एक अच्छी राजनीतिक छवि गढ़ती हैं.

बदली है इमेज

भारत जोड़ो यात्रा के दौरान राहुल गांधी की इमेज वाकई बदली है. वे यात्रा में नाचे भी, वर्जिश भी की और लोगों से बिंदास अंदाज में बेतकल्लुफ होते मिले. पिछले 15 साल और पिछले ही 5 महीनों में काफी फर्क है. अभी तक उन की इमेज एक शौकिया राजनीति करने वाले नेता की थी पर अब उन की गंभीरता और परिपक्वता जब लोगों को सम?ा आई तो लोग उन से प्रभावित भी हुए.

5 महीने की 3,750 किलोमीटर की यात्रा में वे आम हिंदुस्तानी से बेहद अंतरंगता से मिले हैं और लोगों व उन की परेशानियों को नजदीक से सम?ा. लोग भी उन्हें नजदीक से देख प्रसन्न नजर आए कि कोई तो है जो उन की तकलीफें और परेशानियां सुनने निकला है. वह हल कर पाए या न कर पाए, यह बाद की बात है.

इंदौर के नजदीक बडवाह कसबे की 26 वर्षीया मानसी केसरी, जो हैदराबाद में एक सौफ्टवेयर कंपनी में जौब करती हैं, कहती हैं, ‘‘यह जरूरी नहीं कि इस यात्रा का मकसद यह सम?ा जाए कि राहुल गांधी खुद को नरेंद्र मोदी के विकल्प के तौर पर पेश कर रहे हैं. मु?ो तो लगता है कि वे देश के मौजूदा हालात को ले कर चिंतित हैं और यह बात कई जगह उन्होंने कही भी है.’’

कुरेदने पर मानसी कहती हैं, ‘‘कुछ वर्षों पहले तक मु?ो भी लगता था कि राहुल गांधी पैराशूट टाइप के नेता हैं लेकिन अब उन्हें तमिलनाडु से कश्मीर तक जमीन पर पैदल चलते देखना एक अलग अनुभव है. आम लोगों से उन का यह जुड़ाव काफी माने रखता है. वे अपने कहे के मुताबिक सब से प्यार से मिले और एक ईमानदार आत्मीयता से मिले. इस का फायदा निश्चित ही उन्हें मिलेगा, हालांकि लगता नहीं कि वे कोई महत्त्वाकांक्षा ले कर चले होंगे. उन की प्यार और मोहब्बत की बातों ने हम युवाओं को एक अलग फीलिंग दी है जिस का सीधा संबंध मानवता से होना लगता है.’’

अपनी इमेज के बारे में राहुल गांधी ने यात्रा के दौरान कई बार कहा कि भाजपा ने उन की इमेज बिगाड़ने में हजारों करोड़ रुपए फूंक दिए लेकिन वे इसे नुकसानदेह की जगह फायदेमंद बताते रहे. उन्होंने जोर दे कर यह बात कही कि बड़ी शक्तियों से लड़ने में पर्सनल अटैक होते हैं जो मु?ो ताकत देते हैं. आरएसएस और भाजपा की मानसिकता को गहराई से सम?ाने का दावा करते हुए उन्होंने कहा कि हमारी और उन की दिशाएं व रास्ते अलगअलग हैं लेकिन बावजूद इस के, मैं उन से नफरत नहीं करता.

एक वक्त था जब भगवा गैंग ने उन की पप्पू वाली इमेज को खूब हवा दी थी. सोशल मीडिया पर उन का गंदे से गंदा और घटिया से घटिया मजाक बनाया गया लेकिन उन की सेहत पर कोई फर्क नहीं पड़ा. फर्क तो तब भी उन की सेहत पर नहीं पड़ा जब यात्रा के दौरान भी मजाक बनाबना कर उन्हें हतोत्साहित करने की कोशिश की गई. यह सनातनवादियों की नफरत कह लें या डर कि उन्हें गधा तक कहा गया. 17 जनवरी को वायरल हुए एक वीडियो में सूर्य कुमार नाम का तांत्रिक प्रतीकात्मक रूप में उन्हें गधा कहता नजर आया.

उन की पप्पू वाली इमेज पर रिजर्व बैंक औफ इंडिया के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने राजस्थान से भारत जोड़ो यात्रा में हिस्सा लेते हुए सटीक बात यह कही कि राहुल गांधी पप्पू नहीं हैं. उन को ले कर जो धारणा बनाई गई है वह बिलकुल गलत है. उन्हें काफी जानकारी है. वे काफी स्मार्ट, नौजवान और जिज्ञासु शख्स हैं. मोदी सरकार की आर्थिक और सामाजिक नीतियों पर चिंता जाहिर करते रहने वाले रघुराम राजन का भारत जोड़ो यात्रा से जुड़ना कम चौंका देने वाली बात नहीं थी क्योंकि उन की गिनती तटस्थ लोगों में होती है.

ये वही रघुराम राजन हैं जिन्होंने मोदी सरकार की नोटबंदी को गैरजरूरी करार देते हुए उस की बहुत ही तार्किक व तथ्यात्मक आलोचना की थी. राहुल गांधी की कौपी करते हुए उन्होंने कहा कि वे नफरत खत्म करने और प्यार, समानता व न्याय के लिए भारत जोड़ो यात्रा से जुड़े. लेकिन उन का यह कहना ज्यादा अर्थपूर्ण था कि, ‘मैं उन प्रतिबद्ध नागरिकों को अपना समर्थन देने के लिए कुछ मील पैदल चला जो समय के साथ भारतीयता का सम्मान करते हुए राष्ट्रीय एकता और सांप्रदायिकता, सद्भाव को मजबूत करने के लिए भारत को आगे बढ़ा रहे हैं.’ यानी राजनीति से हट कर भी विविध क्षेत्रों की हस्तियों ने इस यात्रा में शिरकत की. सो, जाहिर है, मोदी सरकार और उस की नीतियोंरीतियों के प्रति भड़ास लोगों के दिलों में भरी पड़ी है.

इन्होंने भी की कदमताल

रघुराम जैसे नामी और विशेषज्ञ अर्थशास्त्री ही नहीं बल्कि कला, फिल्म, खेल, पत्रकारिता और समाजसेवा सहित दूसरे क्षेत्रों की भी जानीमानी हस्तियां इस यात्रा से जुड़ीं और सभी ने अपनी बात सोशल मीडिया के जरिए सा?ा की (क्योंकि मुख्य मीडिया तो कवरेज देने से जितना हो सके, बचने की कोशिश कर रहा था).

इन हस्तियों में उल्लेखनीय नाम मराठी रंगमंच के परिपक्व अभिनेता अमोल पालेकर का भी है जो बीती 20 नवंबर को अपनी फिल्मकार और लेखिका पत्नी संध्या गोखले सहित भारत जोड़ो यात्रा से महाराष्ट्र के जलगांव-जामोद में शामिल हुए थे. इन्होंने 70 के दशक में ‘गोलमाल’, ‘रजनीगंधा’ और ‘चितचोर’ जैसी कोई दर्जनभर हिट हिंदी फिल्में दे कर अपनी अभिनय प्रतिभा का लोहा मनवा लिया था.

अमोल पालेकर तो कुछ ज्यादा नहीं बोले लेकिन भगवा गैंग को मिर्ची उस वक्त लगी जब कांग्रेस ने उन के हाथ में हाथ डाले अपनी तसवीर शेयर करते हुए लिखा, ‘देश के प्रति अपनी जिम्मेदारी को सम?ाते हुए इस का निर्वहन करने के लिए प्रसिद्ध अभिनेता और फिल्म निर्देशक अमोल पालेकरजी अपनी पत्नी के साथ भारत जोड़ो यात्रा में शामिल हुए. देश की आवाज बुलंद करने के लिए आप का धन्यवाद.’’

इस शेयरिंग के बाद सोशल मीडिया पर अमोल पालेकर को जम कर ट्रोल किया गया. मानो, उन्हें अपनी मरजी से कुछ ऐसा करने का हक नहीं जिस से नरेंद्र मोदी की साख पर बट्टा लगता हो या उन की तथाकथित शान में गुस्ताखी होती हो. किसी यूजर ने इसे अमोल पालेकर की जिंदगीभर की मेहनत को मिट्टी में मिल जाना बताया तो किसी ने अपनी कुंठा यह कहते जाहिर की कि भारत जोड़ो यात्रा हारे हुए और अप्रासंगिक लोगों का मंच बन गया है जो किसी न किसी रूप में प्रचार चाहते हैं. भगवा गैंग के समर्थक फिल्म अभिनेता अशोक पंडित ने तो ‘घरौंदा’ फिल्म में अमोल पालेकर पर ही फिल्माए गए इस हिट गाने की ही मिसाल दे डाली कि ‘दो दीवाने शहर में रात में और दोपहर में आब ओ दाना ढूंढ़ते हैं, एक आशियाना ढूंढ़ते हैं…’

ऐसे सैकड़ों यूजर्स ने तंज कसते यह साबित कर दिया कि जो राहुल गांधी के साथ चलेगा, हम उस का भी मजाक बनाते रहेंगे और घटिया व बचकाने कमैंट्स करते रहेंगे. दरअसल यह सब वेबजह नहीं था क्योंकि इस से पहले अभिनेत्री पूजा भट्ट, रिया सेन, रश्मि देसाई, आकांक्षा पुरी, मोना अंबेगांवकर और अभिनेता सुशांत सिंह के अलावा भगवा नजरों में खटकती रहने वाली मशहूर समाजसेवी नर्मदा बचाओ आंदोलन की मुखिया मेघा पाटकर भी राहुल गांधी के साथ कदमताल कर चुकी थीं.

मेघा पाटकर उन गिनीचुनी हस्तियों में से हैं जिन से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी निजी तौर पर बेइंतहा चिढ़ते हैं. गुजरात विधानसभा चुनावप्रचार के दौरान उन्होंने सभाओं में मंच से मेघा पाटकर को पानी पीपी कर कोसा था, मानो वे समाजसेवी नहीं बल्कि कोई कांग्रेसी नेता हों. यह मेघा की खूबी ही कही जाएगी कि उन्होंने तमाम दुश्वारियां ?ोलते कभी न केवल इन के बल्कि कांग्रेस सरकारों के आगे घुटने नहीं टेके. वे विस्थापितों की लड़ाई आज भी शिद्दत से लड़ रही हैं चाहे कोई उन्हें टुकड़ेटुकड़े गैंग का सदस्य कहे या फिर विदेशी एजेंट. उन के तेवर और इरादों पर कोई फर्क नहीं पड़ता.

आग में शुद्ध घी तो दिसंबर की पहली तारीख को और डला था जब वामपंथी कही जाने वाली अभिनेत्री स्वरा भास्कर उज्जैन में भारत जोड़ो यात्रा में शामिल हुईं. उन्होंने अपने अनुभव यह कहते सा?ा किए कि, ‘आज मैं भारत जोड़ो यात्रा में शामिल हुई और राहुल गांधी के साथ पदयात्रा की. यह समय ऊर्जा, प्रतिबद्धता और प्रेम प्रेरित करने वाला था. गर्मजोशी से लबरेज आम लोगों और उत्साह से भरे कांग्रेस कार्यकर्ताओं का इस में शामिल होना और राहुल गांधी का सभी के प्रति ध्यान देना व अपनेपन का भाव रखना काफी प्रभावशाली पहलू है.’

बस, इतने में ही भगदड़ मच गई और भगवाइयों ने आसमान सिर पर उठा लिया. जिस के मुंह में जो आया वह उस ने बका. इतने पर भी तसल्ली नहीं हुई तो तबीयत से राहुल गांधी और स्वरा भास्कर पर कीचड़ उछाला गया. इस से और कुछ हुआ न हुआ हो लेकिन यह जरूर साबित हो गया कि किस नफरत की बात राहुल गांधी पूरी यात्रा में करते रहे. स्वरा सहित तमाम अभिनेत्रियों और आम महिलाओं के फोटो सोशल मीडिया पर सा?ा करते यह बतानेजताने की कोशिश की गई कि भारत जोड़ो यात्रा में अंतरंगता से बात करना, दोस्तों की तरह एकदूसरे का हाथ पकड़ना, हंसनामुसकराना, बातचीत करना और कदम से कदम मिला कर चलना भी चरित्रहीनता है. लेकिन जब यही सब मोदी, योगी, शाह और शिवराज करें तो यह सचरित्रता होती है.

मध्य प्रदेश के गृहमंत्री पंडित नरोत्तम मिश्रा ने अपना सनातनी प्रैसनोट पढ़ दिया कि ये सब टुकड़ेटुकड़े गैंग के मेंबर हैं और देश तोड़ना चाहते हैं. शायद उन्हें यह बात अखर रही होगी कि कोई सुंदर और सैक्सी अभिनेत्री उन्हें क्यों कभी गुलाब का फूल नहीं देती, चूंकि नहीं देती इसलिए वह देशद्रोही है.

इन सनातनियों से स्वस्थ मानसिकता की उम्मीद करना हमेशा से ही एक बेकार की बात रही है जो विरोधियों, खासतौर से राहुल गांधी और उन की भारत जोड़ो यात्रा, से इतने घबराए हुए थे कि बहुत निचले स्तर पर आ कर भड़ास और कुंठा निकाल रहे थे. उन के दिमाग की गंदगी निकालने को कोई तैयार नहीं. उलटे, राहुल गांधी का स्वागत करने वालों का जरूर हुजूम उमड़ पड़ता है.

प्यार और नफरत असल मुद्दा

यात्रा के प्रारंभ में ही इसे गैरराजनीतिक बता चुके राहुल गांधी ने यह भी प्रमुखता से स्पष्ट कर दिया था कि वे नफरत की नहीं, प्यार की राजनीति करते हैं. जबकि, राजनीति का यह उसूल जगजाहिर है कि दुनिया के किसी भी देश में नफरतविहीन राजनीति नहीं की जा सकती और न ही आप उस के बगैर सत्ता के शीर्ष तक पहुंच सकते हैं. बहुत आसान शब्दों में राजस्थान के अलवर में उन्होंने बड़ी मासूमियत से कहा था कि, ‘नफरतों के बाजार में प्यार की दुकान लगा रहा हूं.’

यह कहनेसुनने में साधारण बात है लेकिन बहुत गहरे दर्शन की है जिस का इशारा धर्म, जाति, संप्रदाय, क्षेत्र, भाषा और रंग की राजनीति की तरफ था. ऐसे में यह सोचना थोड़ा अटपटा और अव्यावहारिक लगता है कि फिर वह राजनीति कहां रह गई. या तो राहुल प्रधानमंत्री पद का दावेदार खुद को नहीं मानते या फिर पूरी शिद्दत से यह साबित करने पर तुले हुए हैं कि प्यार की राजनीति ‘आज नहीं तो कल’ सफल होगी.

अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप का आना और जाना यह बताता है कि लोकतंत्र में नफरत की राजनीति की एक तयशुदा मियाद होती है. जो लोग बहकावे में आ कर किसी नेता विशेष या पार्टी से जुड़ते हैं, उन्हें वोट दे कर सत्ता सौंपते हैं, एक दिन ऐसा आता है कि वे खुद ही उन से डरने लगते हैं क्योंकि नफरत की आंच उन की देहरी तक भी आ जाती है.

इस आग का स्रोत धर्मग्रंथ हैं, वे चाहे ईसाइयों के हों, मुसलमानों के हों या हिंदुओं के. उन के बारे में बिहार के शिक्षा मंत्री प्रौफेसर चंद्रशेखर ने बिना किसी लिहाज के नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में कहा था कि- ‘मनुस्मृति में समाज की 85 फीसदी आबादी वाले बड़े तबके को गालियां दी गईं.’

रामचरितमानस के उत्तरकांड में लिखा गया है कि नीच जाति के लोग शिक्षा ग्रहण करने के बाद सांप की तरह जहरीले हो जाते हैं. यह नफरत को बोने वाले ग्रंथ हैं. एक युग में मनुस्मृति, दूसरे युग में रामचरितमानस और तीसरे युग में गुरु गोलवलकर का बंच औफ थौट, ये सभी देश व समाज में नफरत बांटते हैं. नफरत देश को कभी महान नहीं बनाएगी, देश को केवल मोहब्बत महान बनाएगी.

बहुत साफ दिख रहा है कि यह वही बात है जो राहुल गांधी यात्रा के दौरान कहते रहे. चंद्रशेखर ने तो उसे विस्तार दिया और धर्मग्रंथों का हवाला दे डाला. इस के लिए उन्होंने शबरी के ?ाठे बेर खाने वाले प्रसंग का हवाला दिया कि आज पूर्व सीएम जीतनराम मां?ा मंदिर जाते हैं तो पाखंडी उसे छुआछूत के विचार से धोते हैं. हालांकि उन की जम कर खिंचाई और छिलाई हुई लेकिन वे अपने बयान से टस से मस नहीं हुए.

जब इफरात से कीचड़ उछालने के बाद भी तसल्ली नहीं हुई तो राहुल गांधी की टीशर्ट पर ही बातों के बताशे फोड़े जाने लगे. राहुल गांधी को ठंड क्यों नहीं लगती, इस पर भी फूहड़ रिसर्च हुई और इतनी हुई कि खुद राहुल गांधी को अपनी ठंड और टीशर्ट को ले कर व्याख्यान देना पड़ा. अब कांग्रेस को यह बताने की जरूरत नहीं रह गई थी कि यात्रा कितनी सफल है जिसे मीडिया कोई भाव नहीं दे रहा क्योंकि उस पर दबाब था या अधिकतर मीडिया हाउसों की इमारतें भगवा रंग में बहुत पहले से रंगी हुई थीं.

टीशर्ट हो या नजदीकी रिश्ता, इन पर भी फिकरे कसना ही वह अंतहीन नफरत है जो धर्म का सब से ज्यादा बिकने वाला प्रोडक्ट है. लेकिन राजनीति से होते समाज और घरों में यह नफरत जो, दरअसल विकृति होती है, आने लगती है. तो, खुद धार्मिक लोग ही उस का बहिष्कार शुरू कर देते हैं, जिस का आसान तरीका अमेरिका की तर्ज पर सरकार बदल देने का होता है.

भगवा गैंग ऐसी चीजों और घटनाओं पर चाह कर भी (मुमकिन यह भी है कि यह गलतफहमी हो) कुछ नहीं बोल सकता क्योंकि अगर बोलेगा तो वही विकृत दिमाग वाले भस्मासुर उस पर यह कहते चढ़ाई कर देंगे कि जब इतनी ही मोहब्बत या हमदर्दी राहुल गांधी से थी तो दुनियाभर के पाप हम से क्यों करवाए, हमें शह ही क्यों दी थी. ये वे लोग हैं जिन की नजर में धर्म और अधर्म में कोई फर्क ही नहीं होता.

ऐसे घटियापन पर राहुल गांधी कुछ नहीं बोले, जिस से कांग्रेसियों को सम?ा आ गया कि इस तरह के ओछेछिछोरे हथकंडे यात्रा में अड़ंगे डालने के लिए डाले जा रहे हैं. लिहाजा, वे अपने नेता की तरह शांत और प्रतिक्रियाहीन रहे. राजनीति में मानअपमान आम होते हैं लेकिन वे जब हदें तोड़ देते हैं तो किसी न किसी को जोड़ने की पहल करनी ही पड़ती है. इस बार राहुल गांधी ने कर दी, तो हल्ला मच गया कि यह भारत तोड़ो यात्रा है.

लड़ाई विचारधाराओं की

राहुल गांधी यात्रा के दौरान पूरी तरह संभल कर बोले, कई बार वे भावुक भी हुए. दार्शनिकों जैसी बातें करते रहे. इस युवा नेता ने कई बार विचारधाराओं की लड़ाई का भी जिक्र किया, जो फसाद की असल जड़ है. लेकिन यह लड़ाई वामपंथ बनाम दक्षिण पंथ जैसी सिद्धांतवादी नहीं है, बल्कि, भविष्य में इस यात्रा को उदार दक्षिणपंथ और संकरे या कट्टर दक्षिणपंथ के तौर पर भी देखा और सम?ा जाएगा.

आरएसएस की विचारधारा बेहद स्पष्ट है कि देश किसी भी कीमत पर हिंदू राष्ट्र बनना चाहिए जिस में सारे अधिकार और राज सवर्ण हिंदुओं का रहेगा. दूसरे धर्मों की बात तो अलग है, छोटी जाति वाले हिंदू भी मनुस्मृति के निर्देशों के मुताबिक रहेंगे. हालांकि संघ खेमे से इस बात का खंडन पिछले 8 साल से होने लगा है कि सभी जातियों के लोग हिंदू हैं और हम हिंदू एकजुट हो कर नहीं रहेंगे तो खतरे सिर पर खड़े हैं. लेकिन यह कितना बनावटी है, यह छोटी जाति वाले हिंदुओं से बेहतर कोई नहीं जानता.

इन काल्पनिक खतरों से हर कोई वाकिफ है. लेकिन जमीनी तौर पर शूद्र, आदिवासी और पिछड़े कहां खड़े हैं, यह भी हर कोई जानता है. यात्रा के दौरान इसी भेदभाव का जिक्र बारबार राहुल गांधी ने किया जिस का गहरा ताल्लुक देश के मौजूदा बिगड़ते हालात से है और यही वह फलसफा है जिस से भगवा गैंग खौफजदा है कि अगर छोटी जाति वाले, जिन्हें बड़ी मुश्किल से बहलाफुसला कर राष्ट्रवाद के नाम पर और मुसलमानों का डर दिखा कर इकट्ठा किया गया था, अगर फिसल गए तो हाथ में 6 करोड़ सवर्ण वोट ही रह जाएंगे.

पर क्या राहुल गांधी ऐसा कर पाएंगे, इस में शक है क्योंकि इस के लिए उन्हें पेरियार, ज्योतिबा फुले या एक हद तक कांशीराम बनना पड़ेगा क्योंकि दिक्कत यह है कि वंचितों ने ही यह मान लिया है कि वे जहां हैं वहीं ठीक हैं. लेकिन यह स्थिति बहुत विस्फोटक है. यह कहना और सोचना भी निराशा वाली बात होगी कि आखिर राहुल के पास इस सनातनी रोग का इलाज क्या है. अगर प्यार है, जैसा कि वे पूरी यात्रा में कहते रहे तो यह निष्कर्ष जरूर निराशाजनक है कि इस कैंसर का हालफिलहाल तो कोई इलाज नजर नहीं आता.

पिछले 8 वर्षों में न केवल कांग्रेस की, बल्कि तमाम छोटेबड़े क्षेत्रीय दलों की धर्मनिरपेक्ष वाली विचारधारा और भाषा का कोई जिक्र ही नहीं हुआ. इस से सम?ा आता है कि देश किस विस्फोटक स्थिति में अंदरूनी तौर पर पहुंच चुका है. भगवा गैंग का गुस्सा तरहतरह से राहुल गांधी पर इसे ले कर फूटा तो सम?ा यह भी आता है कि खोट उन की विचारधारा में है. इस बहुसंख्यवाद का खात्मा कहां जा कर और कैसे होगा, इस का सहज अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, फिर भी प्यार की पौलिटिक्स को मिला रिस्पौंस बताता है कि अभी सबकुछ अनियंत्रित नहीं है और लोग जाग रहे हैं.

यात्रा, युवा और बौखलाहट

भारत जोड़ो यात्रा की एक उल्लेखनीय बात- इस में युवाओं की भागीदारी होना ज्यादा रही. ये युवा जाहिर है, भगवा गमछाधारी नहीं थे बल्कि जातिधर्म और वर्गविहीन थे जिन्हें भरपूर उत्साह और समर्थन राहुल से मिला. कन्याकुमारी से ले कर कश्मीर तक के युवा राहुल की नजदीकी पाने को बेताब दिखे. यह महज जिज्ञासावश नहीं, बल्कि उन के पास राहुल से कहने और सुनने को काफीकुछ था. मसलन, बिगड़ता माहौल और फैलती नफरत के अलावा खुद से जुड़े मुद्दे भी.

यह सिलसिला पहले दिन 7 सितंबर को कन्याकुमारी से ही शुरू हो गया था जब बड़ी संख्या में युवा इस यात्रा से जुड़े थे और उन की टीशर्ट पर लिखा था- ‘मैं नौकरी के लिए चल रहा हूं.’ उस वक्त राहुल ने इस मुद्दे को उठाते हुए कहा था कि देश में 42 फीसदी युवा बेरोजगार हैं जिन्हें नौकरी और रोजगार की व्यवस्था करना कांग्रेस की प्राथमिकता रहेगी.

इस प्राथमिकता के ऐलान को सुन कर हर राज्य के युवा यात्रा से जुड़े जिन की न केवल रोजगार बल्कि दीगर समस्याओं को भी हल करना कांग्रेस की जिम्मेदारी होती जा रही है. क्यों युवा राहुल गांधी में अपना भविष्य देख रहे हैं और कैसेकैसे उन की आजादी पर हमले हुए हैं, इस सवाल का जवाब अब भाजपा को देना चाहिए लेकिन इस के लिए उसे राहुलफोबिया से उबर कर ईमानदारी से बात करनी होगी.

ऐसा तो कुछ होता दिखा नहीं, उलटे, बौखलाहट में भाजपा ने 16 जनवरी को दिल्ली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का बेमौसम रोड शो आयोजित कर डाला. लोगों को इसलिए भी हैरानी हुई थी कि कोई चुनाव भी आसपास नहीं था. 15 मिनट का यह रोड शो पटेल चौक से संसद मार्ग तक की महज 350 मीटर की दूरी का था जिस के लिए जरूरत से ज्यादा ताम?ाम किए गए थे जिन्हें देख हर किसी ने यही कहा कि आखिर आना ही पड़ा सड़क पर.

वरिष्ठ कांग्रेसी जयराम रमेश ने इस पर तंज कसते हुए कहा कि राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से आतंकित भाजपा पीएम मोदी का इस्तेमाल करते बारबार रोड शो कर रही है. राहुल के पैदल मार्च को पीएम मोदी की तरह टीवी चैनलों ने कवर नहीं किया लेकिन इस के बावजूद राहुल इस यात्रा के जरिए जनमानस पर छा गए हैं.

इस के पहले कर्नाटक के हुबली में 12 जनवरी को भी नरेंद्र मोदी एक रोड शो में बड़े नाटकीय अंदाज में दिखे थे और हाथ उठाउठा कर लोगों का अभिवादन कर रहे थे लेकिन उन की बौडी लैंग्वेज बता रही थी कि वे सहज नहीं हैं क्योंकि उन के शो में भारत जोड़ो यात्रा जैसी स्वस्फूर्त भीड़ नहीं है. मुमकिन है यह भारत जोड़ो यात्रा का खौफ हो जिस ने उन्हें सड़क पर आने को मजबूर कर दिया था.

इसी तरह की हड़बड़ाहट मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने भी यह घोषणा करते दिखाई कि सरकार 1 फरवरी से 15 फरवरी तक प्रदेश में विकास यात्राएं आयोजित करेगी. ये वही शिवराज सिंह हैं जो भारत जोड़ो यात्रा की प्रासंगिकता को ले कर सवाल खड़े करते रहे थे. हालांकि उन का डर जायज है क्योंकि 2018 का नतीजा उन्हें याद है और राज्य में फिर इसी साल विधानसभा चुनाव हैं. मध्य प्रदेश में भारत जोड़ो यात्रा को किसान और आदिवासियों ने भी हाथोंहाथ लिया था. शिवराज सिंह और भाजपा को हड़काते राहुल ने भविष्यवाणी सी कर दी थी कि इस साल उस का सूपड़ा साफ हो जाएगा.

असल में राहुल की भारत जोड़ो यात्रा और भाजपा की यात्राओं में एक बड़ा और मौलिक फर्क यह है कि भाजपा के साथ अधिकतर अधेड़ और बूढ़े नजर आते हैं जबकि राहुल की यात्रा में कन्याकुमारी से ले कर कश्मीर तक युवाओं का सैलाब उमड़ा रहा और उन में भी युवतियों की तादाद खासी थी जिसे ले कर राहुल गांधी पर भद्दे कमैंट्स किए गए.

महिलाएं भाजपा की यात्राओं में भी नजर आती हैं लेकिन वे सहज या स्वतंत्र नहीं होतीं बल्कि उन के सिर पर कलश ढोने की जिम्मेदारी और भार होता है. वे भाजपा नेताओं से अपने दुखड़े नहीं रोतीं क्योंकि उन की ड्यूटी भजन गाने में लगाई गई होती है. ऐसा क्यों, वजह साफ है कि भाजपा की यात्राएं पूजापाठियों को मंदिर तक ले जानी होती हैं. असल मंजिल से उन का कोई वास्ता नहीं होता. भाजपा की यात्राएं चारधाम, कांवड़ या फिर जगन्नाथ रथ यात्राओं जैसी होती हैं जिन में भजनकीर्तन हो रहे होते हैं, जयजय श्रीराम और हरहर महादेव के नारे लग रहे होते हैं और ये यात्राएं, हर कोई जानता है कि, सवर्णों के लिए होती हैं जो एक तबके को दूसरे तबके से तोड़ने का काम करती हैं.

अपनी यात्रा के दौरान राहुल गांधी ने भी धर्मस्थलों पर जा कर माथा टेका लेकिन वे रास्ते में पड़ने वाले हर धर्म के स्थल पर गए और यह जताने की कोशिश करते रहे कि वे सभी धर्मों व धर्मस्थलों का सम्मान करते हैं. इस बाबत उन्होंने अपनी विविध धर्मों वाली पारिवारिक पृष्ठभूमि का हवाला भी दिया.

इस पूरी यात्रा के दौरान सब से दिलचस्प वाकेआ 17 जनवरी को हुआ जब चचेरे भाई वरुण गांधी की कांग्रेस में आने की अटकलों को ले कर उन्होंने साफ कर दिया कि जो एक बार आरएसएस के दफ्तर चला गया वह कांग्रेस में नहीं आ सकता. बकौल राहुल, ‘वरुण बीजेपी में हैं, मेरी विचारधारा उन से नहीं मिलती. मैं आरएसएस के दफ्तर नहीं जा सकता चाहे मेरा गला काट दिया जाए. मैं वरुण से मिल सकता हूं, उन्हें गले लगा सकता हूं.’

यह सही है कि न केवल वरुण गांधी बल्कि उन के जैसे कईयों की भाजपा और राजनीति में कोई हैसियत नहीं रह गई है. इसलिए वे भाजपा के आलोचक होते जा रहे हैं. अब उन का भविष्य अंधेरे में है, कांग्रेस में उन के लिए कोई जगह नहीं. यह इस यात्रा के दौरान ही स्पष्ट हो गया. वरुण के बहाने अगर बारीकी से देखें तो राहुल गांधी भाजपा से ज्यादा आरएसएस पर बरसे. शायद वे नफरत की असल जड़ आरएसएस को ठहराना चाह रहे थे. भाजपा और भाजपाई सरकार तो उस के रिमोट से औपरेट होते हैं. इस बात के अगले लोकसभा चुनाव में अपने अलग माने भी होंगे.

कितनी सफल रही यात्रा

देश में ऐसा क्या टूट गया जिसे जोड़ने को यह यात्रा आयोजित की गई, इस सवाल का जवाब 19वां पुराण रच सकता है क्योंकि 8 सालों में ही बीएसएनएल जैसे दर्जनभर सार्वजनिक उपक्रमों से ले कर रेलवे स्टेशन तक बिक गए हैं, युवाओं के सपने टूटे हैं, महिलाओं का आत्मसम्मान टूटा है जिन की हिम्मत तो रोज बढ़ती महंगाई तोड़ ही चुकी है, बलात्कारियों के खिलाफ कोई कारगर कार्रवाई नहीं होती, इस से भी महिलाएं टूटी हैं, नोटबंदी ने आम लोगों की कमर तोड़ी थी तो जीएसटी ने व्यापारियों का सुखचैन लूटा. सामाजिक तौर पर हिंदूमुसलिम एकता टूटी है. अगर कुछ बना है तो वे अरबोंखरबों के मंदिर और मूर्तियां हैं और जो टूट रहा है वह लोगों का विधायिका और कार्यपालिका पर भरोसा है. (सरित प्रवाह भी देखें)

यह टूटन तो मंडल कमीशन से ही शुरू हो गई थी जिस ने पिछड़े वर्ग में जबरदस्त जोश पैदा किया था. यह एक लिहाज से जरूरी भी था. फिर कमंडल ने समाज और देश को और तोड़ा लेकिन एक उन्माद भी लोगों में भर दिया और अब तो टूटन के ये हाल हैं कि कुछ भी साबुत नहीं बचा है. राहुल गांधी कोई फैविकोल ले कर नहीं निकले हैं जो यह सब जोड़ देंगे, न ही वे कोई चमत्कारी शख्स हैं, वे तो सिर्फ बता रहे हैं कि जोड़ने के उन के मकसद के माने क्या हैं.

भारत जोड़ो यात्रा पिछले साल की और इस साल की भी अहम घटना रही जिसे मीडिया ने भले ही मुनासिब जगह न दी हो लेकिन भगवा खेमे की बौखलाहट बताती है कि यह यात्रा खासी और इतनी कामयाब रही जिस की उम्मीद खुद कांग्रेसियों और राहुल गांधी को भी न रही होगी. हिम्मत खोते कांग्रेसियों में आस बंधी है कि अगर ईमानदारी, मेहनत और लगन से लड़ा जाए तो मौके खत्म नहीं हुए हैं. भोपाल के नजदीक सीहोर के युवा कांग्रेसी नेता बलबीर सिंह तोमर कहते हैं, ‘‘इस से एक बड़ा मैसेज हम कांग्रेसियों में यह गया है कि हमें चुनाव अब आम लोगों से जुड़ कर, विचारधारा के आधार पर लड़ना है और किसी से डरना

नहीं है.’’

भाजपा ने एक बड़ी गलती बहुत हलके स्तर पर इस यात्रा का मजाक उड़ाते यह कहते हुए की कि- ‘इस यात्रा का कोई मकसद ही नहीं है.’ यह सच है कि शुरू में आम लोगों को कुछ सम?ा नहीं आ रहा था लेकिन कश्मीर पहुंचतेपहुंचते यह यात्रा उत्तरोत्तर गंभीर होती गई. भाजपाई शासन में लोग चूंकि हैरानपरेशान हैं, इसलिए वे खुद से भारत जोड़ो यात्रा से जुड़े वरना तो जाहिर है ऐसी यात्राओं में भीड़ प्रायोजित रहती है, लोग ढो कर लाए जाते हैं जिन्हें आयोजन के मकसद से कोई लेनादेना नहीं होता.

भारत जोड़ो यात्रा इस रिवाज का अपवाद रही. यह बात खामोशी से भाजपाई भी मानते हैं. क्योंकि, इस पौलिटिक्स का मतलब एकदम अलग है जिस का जवाब उन की पार्टी नहीं दे पा रही. मुक्तिबोध होते तो यही कहते कि इस पौलिटिक्स के माने बहुत गहरे हैं क्योंकि इस से आम लोगों को आस बंधी है कि सबकुछ विकल्पहीन

नहीं है.

 

और कहानियां पढ़ने के लिए क्लिक करें...