नीतीश कुमार ने इंसाफ के साथ तरक्की के नारे के बूते भले ही एक बार फिर बिहार की कमान थाम ली हो, पर गांवों में इंसाफ, ग्राम कचहरी, सरपंच और पंच तमाशा बन कर रह गए हैं. पंचायती राज के तहत बनाई गई ग्राम कचहरी का मकसद गांव वालों को गांव में ही इंसाफ दिलाना था, लेकिन पूरे 5 साल ग्राम कचहरियां ही इंसाफ के पेंच में फंसी रह गईं. सरपंचों और पंचों को हक और पद तो मिला, लेकिन वे दफ्तर, मेज, कुरसी और कलमकागज के लिए तरसते रह गए.

जिन सरपंचों ने अपने घरों पर ही कचहरी लगानी शुरू की, तो उन्हें लोकल पुलिस और प्रशासन ने ही काम नहीं करने दिया और उलटे उन्हें ही कई मुकदमों में फंसा डाला. ग्राम कचहरियों के सफेद हाथी बनने और सरपंचों को काम करने का मौका नहीं मिलने के बाद यह हालत है कि इस बार के पंचायत चुनाव में कोई भी सरपंच और पंच का चुनाव लड़ने को तैयार नहीं है. ग्राम कचहरी को सही तरीके से चलाने और उन्हें तमाम सुविधाएं मुहैया कराने के लिए सरपंचों ने सरकार से कई बार गुहार लगाई, विधानसभा और मुख्यमंत्री का घेराव तक किया, पर आम जनता को इंसाफ देने और दिलाने की रट लगाने वाली सरकार इस मसले की अनदेखी करती रही.

इंसाफ के इंतजार में पंचायतों के 5 साल का कार्यकाल खत्म हो गया और ग्राम कचहरियां फाइलों से बाहर नहीं निकल सकीं. ‘अखिल भारतीय सरपंच संघ’ के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश बाबा कहते हैं कि सरपंचों को हकों का झुनझुना तो थमा दिया गया, पर उन्हें अपने हक के इस्तेमाल के लिए जगह और माहौल ही मुहैया नहीं कराया गया. ग्राम कचहरियां कागजों पर ही चलती रह गईं और छोटेमोटे झगड़ों के लिए लोग जिला अदालतों में जाने को मजबूर रहे. इस से गांव वालों का समय और पैसा काफी खर्च हुआ और जिला अदालतों पर मुकदमों का बोझ भी बढ़ा. ग्राम कचहरियों को 10 हजार रुपए तक की चोरी और जमीन के झगड़े को देखने का हक मिला हुआ है. अपनी ताकत का इस्तेमाल करने की ललक से कुछ सरपंचों ने जब अपने घर पर ही कचहरी लगानी शुरू की, तो पुलिस शांति भंग होने को ले कर सरपंचों के खिलाफ ही धारा 107 के तहत मामला दर्ज कर देती है.

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