मौजूदा राष्ट्रपति चुनाव में अब देखने समझने को कुछ बाकी नहीं रह गया है, सिवाय इसके कि एनडीए के उम्मीदवार रामनाथ कोविंद कितने वोटों के अंतर से यूपीए की प्रत्याशी मीरा कुमार को हराते हैं, हां यह जरूर साफ हो गया है कि राष्ट्रपति दलित समुदाय का होगा.

रामनाथ कोविंद की उम्मीदवारी निसंदेह चौंका देने वाली इस लिहाज से है कि किसी को अंदाजा नहीं था कि भगवा खेमा दलित उम्मीदवार पर दांव खेलने का जोखिम उठाएगा. भाजपा और आरएसएस का दलित प्रेम छद्म ही सही शबाब पर है, जिसका ताल्लुक देश के मौजूदा सामाजिक और जातिगत समीकरणों से है. यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बहुत बड़ी दिक्कत है कि वे यदि किसी सवर्ण को इस पद का उम्मीदवार बनाते तो उन पर सीधा आरोप यह लगता कि दलित क्यों नहीं और अब एक दलित उम्मीदवार को राष्ट्रपति भवन पहुंचा रहे हैं तो पूछा जा रहा है कि दलित ही क्यों.

दलित शब्द मूलतः अंग्रेजों की देन है, वे जब भारत आए तो यह देख कर हैरान रह गए थे कि एक बहुसंख्यक आबादी ऐसे तबके की है जिसमे कोई बल, बुद्धि या विवेक नहीं है. इसे अंग्रेजों ने अपनी भाषा में डिप्रेस्ड कहा, यानि हिन्दी में दलित जो ऊंची जाति वालों के इशारों पर नाचती है. आज भी हालत अपवाद स्वरूप ज्यों की त्यों है, कोविंद खुशी खुशी भाजपा के और मीरा कुमार कांग्रेस के इशारों पर नृत्य कर रहीं हैं, उन्हें अपनी तयशुदा हार का कोई मलाल नहीं है. उनके पिता बाबू जगजीवन राम नेहरू गांधी परिवार के दरबार में ठीक वैसे ही बैठा करते थे जैसे राम दरबार में हनुमान बैठता था.

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