चुनाव का माहौल बनते ही हर दल व हर छोटेबड़े नेता को मुसलमानों की फिक्र सताने लगती है. बिहार विधानसभा के चुनाव जैसेजैसे नजदीक आते जा रहे हैं, वैसेवैसे मुसलमानों को रिझाने की कवायद भी परवान चढ़ने लगी है. बिहार में हर चुनाव की तरह इस बार भी मुसलमान कशमकश की हालत में हैं. इस बार लालू और नीतीश के एकसाथ होने से मुसलिम वोटरों की मजबूरी है कि इसी गठबंधन को वोट दें. मुसलमानों ने साल 1990 से ले कर 2005 तक लालू प्रसाद यादव का साथ दिया था. 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश ने लालू के मुसलिम वोटबैंक में सेंध लगाने की पुरजोर कोशिश की पर उस में वे खास कामयाबी नहीं पा सके. मुसलिम संगठनों की यही शिकायत है कि उन के नाम पर हर दल सियासत तो करता रहा है लेकिन आबादी के लिहाज से मुसलमानों को टिकट देने में हर दल कन्नी काटता रहा है. भारतीय जनता पार्टी पर मुसलमानों को टिकट न देने का आरोप लगाने वाले और खुद को मुसलमानों का सब से बड़ा रहनुमा बताने वाले कांगे्रस, राजद, जदयू, लोजपा जैसे दल उन्हें टिकट देने में कंजूसी करते रहे हैं.

बिहार में मुसलमानों की आबादी 1 करोड़ 67 लाख 22 हजार 48 है. सूबे के किशनगंज में 78, कटिहार में 43, अररिया में 41, पूर्णियां में 37, दरभंगा में 23, पश्चिम चंपारण में 21, पूर्वी चंपारण में 19, भागलपुर और मधुबनी में 18-18 व सिवान में 17 फीसदी मुसलिम आबादी है. इस के बाद भी उन की अनदेखी की जाती रही है. चुनावी डुगडुगी बजते ही सारे दल मुसलिम वोट, मुलिम वोट का खेल खेलना शुरू कर देते हैं. चुनाव के खत्म होने के बाद वे सभी मुसलमानों को भूल जाते हैं. राजनीतिक दल मुसलमानों के कितने बड़े पैरोकार हैं, इस का नमूना यही है कि राज्य में 33.6 फीसदी मुसलमान बच्चे ही हायर सैकंडरी तक की पढ़ाई कर पाते हैं. बीए, एमए, ऊंची पढ़ाई, तकनीकी पढ़ाई आदि 2.4 फीसदी ही मुसलमान बच्चे कर पाते हैं. शहरी स्कूलों में 3.2 फीसदी और ग्रामीण स्कूलों में 4.1 फीसदी ही मुसलिम बच्चे हैं. ग्रामीण मदरसों में 24.1 फीसदी और शहरी मदरसों में कुल 9 फीसदी मुसलमान बच्चे पढ़ाई कर रहे हैं.

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