फिल्म इंडस्ट्री में जो हैसियत जानी लीवर की है वही हैसियत कविता और साहित्य में कुमार विश्वास की है. बिलाशक काका हाथरसी और सुरेन्द्र शर्मा के बाद उन्होंने मंचीय कविता को जिंदा रखा है पर इसका मतलब यह नहीं कि कुमार विश्वास कोई नई बात कहते हैं या श्रीलाल शुक्ल सरीखा करारा और तीखा व्यंग व्यवस्था पर कर पाते हैं. दरअसल में वे भी तुकबंदी के विशेषज्ञ हैं और चलताऊ और हंसोड़ बातें कर मंच लूट ले जाते हैं जो आज की मांग भी है, इस नाते वे निसंदेह एक कामयाब कवि हैं जो श्रोताओं की नब्ज पकड़कर बात कहता है.

कुमार विश्वास को सुनकर कहा जा सकता है कि लोकप्रिय होने के लिए प्रतिभाशाली होना जरूरी नहीं है, जरूरी यह है कि आप फूहड़ और भोंडेपन को अभिजात्य तरीके से पेश करने की कला जानते हों, इससे आप को आलोचक और समीक्षक सहित श्रोता भी बुद्धिजीवी होने का तमगा पहना देते हैं. कुमार विश्वास पूरे आत्मविश्वास के साथ भोपाल में थे, उन्हें सुनने ठीक ठाक तादाद में लोग रवींद्र भवन के मुक्ताकाश मंच पर आंख और कान लगाए मौजूद थे. आयोजन भी सामयिक और जज्बाती किस्म का था जिसका नाम था, एक शाम शहीदों के नाम.

चुनावी सभाओं में हेमा मालिनी शोले फिल्म का बसंती की इज्जत और धन्नो वाला डायलोग जब तक नहीं बोल देतीं तब तक भीड़ उन्हें हेमा मालिनी नहीं मानती, यही हाल विश्वास का है कि, कोई दीवाना कहता है, कोई पागल समझता है... वाली अपनी चर्चित कविता सुनने के बाद ही तालियां बजीं और भीड़ चैतन्य हुई. इसके बाद , बीबी हो जिसकी बी ए वो काम क्या करेगी , वो तो  लक्स से नहाकर खुशबू में तर रहेगी जैसी तर्ज पर उन्होने कई शिष्ट और आक्रामक कवितायें सुनाईं जिनमें इश्क के आंसू भी थे और नायिका की झील सी आंखें भी थीं. चूंकि आए लोगों का मन बहलाने राजनीति पर लीक से हटकर भी कुछ कहना जरूरी था, इसलिए राहुल गांधी के बारे में उन्होंने कहा, इस अधूरी जवानी का क्या फायदा...इसी तुक को आगे बढ़ाते अरविंद केजरीवाल पर उन्होंने तंज़ कसा कि बिना कथानक कहानी का क्या फायदा और नरेंद्र मोदी को निशाने पर लेते कहा, जिसमें घुलकर नजर भी न पावन बनें, आंख में ऐसे पानी का क्या फायदा.

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