इसमें कोई शक नहीं कि बेटी का रिश्ता तय करते वक्त मां बाप इस बात पर ज्यादा गौर करते हैं कि कहीं लड़के की बड़ी बहन अविवाहित तो नहीं. इसकी वजह भी बेहद साफ है कि घर में चलती उसी की है. सास अब पहले की तरह ललिता पवार जैसी क्रूर नहीं रह गई है, लेकिन बड़ी अविवाहित ननद बिन्दु, अरुणा ईरानी और जयश्री टी जैसी हैं, जिसके हाथ में घर की न केवल चाबियां बल्कि सत्ता भी रहती है, इसीलिए उसे डेढ़ सास के खिताब से नवाजा जाता है. छोटे भाई को वह बेटा भी कहती है और दोस्त भी मानती है. ऐसे में बेटी शादी के बाद उससे तालमेल बैठा पाएगी इसमें हर मां बाप को शक रहता है.
बेटी भले ही रानी बनकर राज न करे चिंता की बात नहीं, लेकिन ससुराल जाकर ननद के इशारों पर नाचने मजबूर हो यह कोई नहीं चाहता क्योंकि भाई का स्वभाविक झुकाव कुंवारी बड़ी बहन की तरफ रहता ही है. हालांकि इसके पीछे उसकी मंशा यह रहती है कि दीदी को एक अच्छी सहेली और छोटी बहन मिल जाएगी, लेकिन अधिकतर मामलों में ऐसा होता नहीं है क्योंकि पत्नी और बहन दोनों उस पर बराबरी से हक जमाते कुछ दिनों बाद बिल्लियों की तरह लड़ती नजर आती हैं.
भोपाल के 32 वर्षीय बैंक अधिकारी विवेक की बड़ी बहन 36 वर्षीय प्रेरणा की शादी किन्हीं वजहों के चलते नहीं हो पाई थी. मां की इच्छा और असशक्ता के चलते तीनों ने फैसला यह लिया लिया कि विवेक ही शादी कर ले. पिता थे नहीं, इसलिए विवेक की तरफ से शादी के सारे फैसले प्रेरणा ने लिए. शुचि के मां बाप ने भी मन में खटका लिए ही सही शादी कर दी. शुरू में प्रेरणा का रवैया बेहद गंभीर और परिपक्व था उसने पूरे उत्साह और जिम्मेदारी से शादी सम्पन्न कराई और शुचि को भाभी के बजाय छोटी बहन ही कहा.
दो चार महीने ठीक ठाक गुजरे. शुचि भी बैंक कर्मी थी लिहाजा हनीमून से लौटने के बाद वह अपनी नौकरी में लग गई. एक बात उसने न चाहते हुये भी नोटिस की कि पूरे हनीमून के दौरान विवेक दीदी की बातें ज्यादा करता रहा था कि पापा के असामयिक निधन के बाद मम्मी बिलकुल टूट गईं थी और बिस्तर से लग गईं थीं तो उनकी देखभाल के लिए दीदी ने शादी नहीं की क्योंकि उस वक्त वह पढ़ रहा था.
विवेक की नजर में दीदी का यह त्याग अतुलनीय था. शुचि उसकी भावनाओं को समझ रही थी लेकिन यह बात उसे खटक रही थी कि नैनीताल वे दीदी के त्याग का पुराण बांचने आए हैं या फिर रोमांस करते एक दूसरे को समझने आए हैं.
भोपाल लौटते ही बात आई गई हो गई और चारों अपनी दिनचर्या में बांध गए. बहू बेटा और बेटी साथ खाने बैठते थे तो मां खुश हो जातीं थीं और बार बार हर कभी शुचि की तारीफों में कसीदे गढ़तीं रहतीं थीं कि उसके आने से घर में रौनक आ गई है, उलट इसके विवेक का पूरा ध्यान प्रेरणा पर रहता था कि ऐसी कोई बात न हो जो दीदी को बुरी लगे. हर बात में दीदी उसकी प्राथमिकता में रहती थीं. वह जो भी शुचि के लिए खरीदता था वही प्रेरणा के लिए भी खरीदता था ताकि उसे बुरा न लगे.
शुचि को इस पर कोई एतराज नहीं था हालांकि कभी कभी उसे यह सब बुरा लगता था लेकिन मम्मी की दी यह सीख उसे याद थी कि ऐसा शुरू शुरू में हो सकता है इसलिए उसे इन बातों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए, बल्कि पति का सहयोग करना चाहिए फिर धीरे धीरे सब ठीक हो जाएगा और मुमकिन है अब प्रेरणा की भी शादी हो जाये.
लेकिन ऐसा हुआ नहीं उल्टे दिक्कत उस वक्त शुरू हो गई जब दिन भर घर में खाली बैठी रहने वाली प्रेरणा शुचि के कामों में मीनमेख निकालने लगी और विवेक दीदी के लिहाज में चुप रहा. यहां तक भी शुचि कुछ नहीं बोली लेकिन ननद का व्यवहार और घर में एकछत्र दबदबा उसे अखरने लगा था. घर में क्या आना है, रिश्तेदारी कैसे निभाना है जैसी बातें प्रेरणा ही तय करती थी. और तो और आज सब्जी कौनसी बनेगी यह फैसला भी वही लेती थी.
शुरू में जब शुचि बैंक से आती थी तो प्रेरणा उसे चाय बनाकर दे देती थी, इस परिहास के साथ कि मेरी भाभी कम बहन ज्यादा थक गई होगी लेकिन वक्त के साथ घर में पैदा हुआ यह सौहाद्र छू हो रहा था. थकी हारी शुचि या तो खुद चाय बनाकर पी लेती थी या फिर बिना पिये ही रह जाती थी. इस और ऐसे कई बदलावों पर प्रेरणा पहले तो खामोश रही पर जल्द ही उसने शुचि को महारानी के खिताब से नवाजते एक दिन विवेक को कह दिया कि बेहतर होगा कि वह अलग रहने लगे.
इस धमाके से सभी भौंचक्क रह गए खासतौर से विवेक जिसने कभी ऐसी स्थिति की उम्मीद ही नहीं की थी. अब घर में स्थायी रूप से कलह पसर गई है और शुचि का मुंह भी खुल गया गया है.
यह सच्चा वाकिया हर उस घर का है जहां डेढ़ सास है. रिश्तों को समझने और निभाने में कहां किससे कितनी चूक हुई है, इसे हर किरदार के लिहाज से देखा जाना जरूरी है जिससे यह समझ आए कि इस अप्रिय और अप्रत्याशित स्थिति की वजह क्या है.
विवेक – विवेक की गलती यह है कि उसने पत्नी के मुकाबले बहन को ज्यादा तरजीह दी, जबकि उसे शुचि की भावनाओं का भी खयाल बराबरी से रखते दोनों के बीच तालमेल बैठाना चाहिए था. शादी के बाद उसे बहन पर निर्भरता कम करनी चाहिए थी और शुचि को भी हर छोटे बड़े फैसले में महत्व देना चाहिए था. दीदी अकेली है, बड़ी है और अब हमें ही उसका ध्यान रखना है जैसी बातों से साफ है कि वह शुचि को प्रेरणा का प्रतिस्पर्धी मानने की गलती कर रहा था. उसकी मंशा गलत नहीं थी लेकिन हालातों को ओपरेट करने का तरीका गलत था.
शुचि – ससुराल आते ही शुचि के मन में यह बात बैठ गई थी कि घर में उसकी भूमिका एक सदस्य की नहीं बल्कि मेहमान की की है लिहाजा उसने अपने अधिकार न तो हासिल किए और न ही इस्तेमाल किए. उसने यह भी मान लिया कि जब सब कुछ प्रेरणा ने ही करना है तो वह क्यों खामखा किसी मामले में टांग अड़ाये. एक तरह से विवादों और जिम्मेदारियों से बचने वह डिफेंस में रही, लेकिन प्रेरणा के ताने सुन आपा खो बैठी और विवेक से दीदी के लगाव के चलते हर ज्यादती बर्दाश्त करती रही.
प्रेरणा – शुरू में प्रेरणा की भूमिका अभिभावक की थी लेकिन असुरक्षा के चलते वह खुद की तुलना शुचि से करने की गलती कर बैठी. खासी पढ़ी लिखी प्रेरणा यह नहीं समझ पाई कि विवेक और शुचि को एक दूसरे को समझने नजदीकियां और एकांत चाहिए और इसमें उसे आड़े नहीं आना चाहिए. उसे यह काल्पनिक चिंता सताने लगी थी कि शुचि घर की बहू है इस नाते वह उसके अधिकार छीन लेगी इस गलतफहमी के चलते वह लगातार आक्रामक होती गई. अलावा इसके खुद के अकेलेपन का दंश भी उसे सालने लगा था जो निरधार था. उसने शुचि को न भाभी समझा और न ही बहिन मान पाई.
मां – मां की तटस्थ भूमिका का खामियाजा सभी भुगत रहे हैं जिन्होंने हालातों को भांपने के बाद भी दखल नहीं दिया जो जरूरी था. बेटी की परेशानी के सामने उन्हें बहू की परेशानी समझ नहीं आई और आई भी तो वे चुप रहीं. जरूरी तो यह था कि वे तीनों को अलग अलग और इकट्ठा बैठाकर भी समझातीं, खासतौर से विवेक को कि उसे कैसे बहन और पत्नी के बीच में संतुलन बैठालना है.
अब शुचि प्रेगनेंट है और मायके में रह रही है, उसके मम्मी पापा को भी समझ नहीं आ रहा है कि ऐसी हालत में क्या किया जाये. अगर विवेक को ज्यादा समझाएंगे तो वह भड़क भी सकता है, हालांकि वह हर सप्ताह शुचि से मिलने आता है और उसे समझाता है कि कुछ दिनों में सब ठीक हो जाएगा. दीदी ने तो गुस्से में अलग होने की बात कह दी है.
लेकिन शुचि को लगता है कि अब कुछ ठीक नहीं होगा और होगा तो तभी जब डेढ़ सास की शादी हो जाये.