गंवार सिर्फ गांवों में रहते हैं और गंवार शब्द गांव से ही उद्धृत है, ऐसा कहा व माना जाता है, परंतु शहरों में भी आप के आसपास गंवारों की कमी नहीं है. ट्रेन, बस, अस्पताल, बिल्ंिडग, रास्ते हर जगह यहां तक कि किराने की दुकान, मौल, सिनेमाहौल में भी आप की रोज कई गंवारों से मुलाकात हो ही जाएगी. ये पढ़ेलिखे, व्हाइट कौलर, जौब वाले हो सकते हैं पर इन की हरकतें होती हैं गंवारों जैसी अनपढ़, असभ्य, अपनी हांकने वाले, लड़ने पर उतारू.

मुंबई की लोकल ट्रेन को अगर आप लें तो वहां रोज भीड़भरी ट्रेन में से एक या दो जने प्लेटफौर्म पर अचानक गिरते हुए दिखाई पड़ेंगे. इन में औरतें भी होती हैं. होता यों है कि भीड़भाड़ वाली ट्रेन जिस में पांव रखने की भी जगह नहीं, ऐसे में लोग उस पर पांव रखने की कोशिश करते हैं जब ट्रेन प्लेटफौर्म छोड़ने वाली होती है.

जब वे भाग कर जल्दी से ट्रेन में चढ़ने की कोशिश करते हैं तो अंदर से धक्का खा कर या तो प्लेटफौर्म पर या फिर ट्रेन के नीचे जा कर अपनी इहलीला समाप्त कर डालते हैं. जबकि मुंबई में ट्रेन हर 3 मिनट या 5 मिनट बाद आती है अगर ऐसे में थोड़ा रुक कर अपनी ट्रेन पकड़ ली जाए तो ऐसा कभी भी न हो.

ट्रेन में ही दूसरे गंवार लोग, जो सीट पर बैठते हैं, अगर सामने की सीट खाली हो तो पैर पसार कर बैठ जाते हैं. किसी ने टोक दिया तो उस की शामत आ गई सम?ा. ट्रेन में बैठ कर मूंगफली या भेलपुरी या वड़ापाव कुछ भी खाया व कचरा सीट के नीचे फेंक दिया. किसी ने कुछ कह दिया तो ?ागड़ा शुरू.

इन गंवारों को कौन सी भाषा सम?ा आएगी, सम?ा में नहीं आता. आगे चले तो प्लेटफौर्म पर ये गंवार जहां खड़े हैं वहीं थूक दिया. थूकदान, पीकदान तो आसपास पड़े हैं पर वहां जाए कौन. सम?ाने पर पढ़ेलिखे व्यक्ति आप की तरफ ऐसे ताकेंगे मानो उन्हें हमारी भाषा सम?ा में नहीं आ रही. कोविड के दिनों में ये थोड़े कंट्रोल में रहे, मास्क लगे रहे. पर जैसे ही ढील मिली, फिर गंवारपन चालू.

अगला कदम बस की तरफ बढ़ाते हैं. बस के लिए कतार में खड़े लोग ज्यों ही बस आई भागमभाग, आगे चढ़ने और सीट में बैठने की होड़. ऐसे में न तो जल्दी चढ़ने को मिलता है और न ही सीट बैठने को मिलती है. जल्दी चढ़ने के चक्कर में आपस में धक्कामुक्की, मारपीट, यह गंवारपंथी का एक और नमूना. यह तो मुंबई का सीन है जहां थोड़ा अनुशासन है, देश के दूसरों शहरों में तो हालात और बुरे हैं.

इस तरह अगले गंवार वे हैं जो बड़ेबड़े ऊंचे टावरों में रहते हैं, पर जिन्हें फ्लैट में रहना नहीं आता. अगर वे ऊपर की मंजिल में रहते हैं तो वहीं से सीधा कचरा नीचे फेंक देते हैं. अगर उन्हें कुछ कहा जाता है तो वे बड़ी ही आसानी से कहते हैं कि उन के फ्लैट में भी ऊपर वाले फ्लैट से कचरा आता है. मतलब यह हुआ कि वे भी उन गंवारों के समूह में शामिल हो गए.

अगर सुरक्षा या कोविड से बचने के लिए कोई नियम निकाले गए तो वे सीना ठोक कर उन का विरोध करते हैं जबकि वे भी गंवारों में शामिल हो चुके हैं.

इतना ही नहीं, किराने की दुकान पर हर किसी को हायतोबा मची है. हर किसी को जल्दबाजी है. सब अपना हाथ आगे कर देंगे. ऐसे में दुकानदार भी एक का सामान किसी को कभी दूसरे किसी को भी दे देता है. कुछ बेकार खड़े रह जाते हैं. किसी को भी जल्दी कोई सामान नहीं मिल रहा है, पर इसे सम?ो और सम?ाए कौन, सारे ही गंवार हैं.

ऐसा मान लेना ही ठीक है जो काम 5 मिनट में हो सकता है वह 15 मिनट में हो रहा है. सुपर मार्केटों में बड़ी मुश्किल से लाइन न तोड़ने का अनुशासन सिखाया जा सकता है.

गंवारों की नई पौध

स्कूल में जब बच्चों को लेने मातापिता स्कूल के बाहर खड़े होते हैं तो पहले वे लाइन में खड़े रहते हैं, ज्यों ही बच्चों की छुट्टी हुई, बच्चे बाहर निकलने लगे, हर कोई आगे बढ़ कर अपने बच्चे को लेने की होड़ में लग जाता है. फलस्वरूप, बच्चों को निकालने में परेशानी तो होती है साथ ही मातापिता अपने बच्चे को खोजने में भी परेशान हो जाते हैं. एक बार तो एक मां को अपना बेटा ही नहीं मिल रहा था. मिले तो कैसे, रोल नंबर के अनुसार बच्चे निकल रहे थे पर भागदौड़ में वह पीछे रह गया. गंवारों का यह उदाहरण भी आम है.

कालेज में गंवारों की श्रेणी दूसरे तरह की है. वहां सब से पहले ‘रैगिंग’ होती है. इस में सभी पढ़ेलिखे वे उच्च कोटि के गंवार आते हैं, जो थोड़े दिनों बाद हमारे देश और समाज के कर्णधार बनेंगे. ‘रैंगिग’ के नाम पर हर काम गंवारों जैसा करेंगे. कपड़े उतारना, एक पांव पर खड़े करवाना, भद्दी गालियां निकालना और गंदे आचरण का प्रयोग करना. इस के बाद क्लासरूम में बैठे छात्रशिक्षकों से बदसलूकी करना, उन की खिल्लियां उड़ाना. अभी एक वीडियो वायरल हुआ है जिस में कई लड़कों के सिर मुंड़ा कर, हाथ बांध कर परेड कराई गई.

अब बारी है पांचसितारा होटलों में जाने वाले गंवार, जो बूफे लेते समय खाने की मेज पर ऐसे खाएंगे कि उन का जूठा खाना आप की प्लेट पर आ गिरे या फिर यहां काम करने वाले वेटरों को सीटी या किसी अद्भुत आवाज से अपने पास बुलाना. सिनेमाघरों में गंवार आप को देखने को अवश्य मिलेंगे. अपनी सीट पर वे अवश्य बैठेंगे पर पांव आप की सीट के किनारे रखेंगे. अगर आप ने कुछ कहा, तो ?ागड़ा शुरू- ‘क्या टिकट के साथसाथ सीट भी खरीद ली है?’

ट्रेन की सीट का भी यही हाल है. आप ने 3 महीने पहले से टिकट बुक करवाई है. आप जब अपनी सीट पर जाते हैं तो पहले से कुछ गंवार बैठे हुए दिखेंगे. आप ने खुद बैठने की इच्छा जाहिर की तो उन का उत्तर होगा कि ‘अगले स्टेशन पर उतर जाऊंगा.’

पता चला, सीट आप की है पर मरजी उन की. आप उन गंवारों के आगे हार मान कर कहीं धक्के खा कर खड़े हो जाएंगे. नियम और नियमावली इन गंवारों को रास नहीं आती. हवाई जहाज में ये गंवार विंडो सीट ले लेंगे पर 3 बार टौयलेट जाएंगे या ऊपर केबिन से अपना बैग निकालेंगे, रखेंगे, कुछ तो लगातार आगे की सीट पर पैर मारते रहेंगे.

आगे मोबाइल फोन वाले भी हैं. ये मुआ हमेशा ही बजता रहता है बैंक, थिएटर, हौल या सिनेमाघरों या फिर किसी कौन्फ्रैंस में. विनती कर बंद या फिर साइलैंट मोड पर रखने को कहा जाता है, पर जब कार्यक्रम जोरों पर होता है तो शुरू होती है मोबाइल की घंटी. कभी इस कोने से कभी उस कोने से, आप शांति से कुछ देख या सुन नहीं पाते हैं. ये एक अलग तरीके के गंवार होते हैं जिन्हें कोई बात या अनुरोध का कोई असर नहीं होता. जूम मीटिंग में ऐसों की कमी नहीं जो अपने पीछे के शोर से बेखबर रहते हैं, जो सब को परेशान करता है.

पार्क तो आजकल बड़े शहरों के लिए बहुत जरूरी हैं जहां सभी को छोटेछोटे फ्लैट्स में रहना पड़ता है. ऐसे पार्क में कुत्तों को हाथ में लिए लोग टहलाते फिरते हैं. कुत्ते को तो जहां जगह मिलेगी वहीं अपना पेट साफ कर लेता है. गलती उस की नहीं, गलती तो उस के मालिक की है क्योंकि बड़े बोर्ड पर बड़े अक्षरों में लिखा होता है- ‘कुत्ते को पार्क में लाना मना है, पार्क को साफ रखें.’ फिर भी वे उसे नजरअंदाज करने से बाज नहीं आते. आप ही बताएं इन गंवारों का क्या किया जाए.

इस तरह हर दिन जब आप थोड़ा ‘अलर्ट’ रहेंगे और गंवारों की गिनती करेंगे तो पता नहीं कितने ही ऐसे गंवार आप को मिल जाएंगे, जिन की एक लंबी सूची होगी. ऐसे गंवार दिल्ली, मुंबई, कोलकाता, चेन्नई से ले कर हर बड़े शहर में मिलते हैं. इन को कैसे शिक्षित किया जाए, इस विषय पर विचार जरूरी है, वरना ये किसी संक्रमण से कम नहीं.

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