पहले मैं इस भरम में जीता था कि हर इनसान इज्जत के साथ अपनी जिंदगी बिताना चाहता है लेकिन बाद में मेरी इस सोच में बदलाव तब आया जब मुझे अपनी खुद की आंखों से बेइज्जती के साथ जीनेमरने की कसमें खाने वाले धुरंधरों के दर्शन करने का मौका मिला.

भारत की खोज बड़े ही मौज के साथ वास्को डी गामा ने की थी, लेकिन बेइज्जती के बोझ की खोज किस रोज और किस ने की थी, यह बता पाना उतना ही मुश्किल है जितना मुश्किल आम आदमी के लिए बिना रीचार्ज किए स्मार्ट फोन की बैटरी को पूरा दिन चलाना है.

कुछ लोग बेइज्जत होने को अपना बुनियादी हक मानते हैं और इसे पाने के लिए वे लगातार अपनी इज्जत को तारतार करते हुए इसी जद्दोजेहद में लगे रहते हैं. ‘बेइज्जती पिपासु’ लोगों को अपनी पूरी उम्र इज्जत की प्राणवायु हजम नहीं होती है. इज्जत भरी जिंदगी की इच्छा से ही ‘बेइज्जती प्रिय’ लोग सहम जाते हैं और इज्जत जैसी नुकसान पहुंचाने वाली और मारक चीज से उचित दूरी बना कर चलते हैं. बेइज्जत होना इन के लिए रोटी, कपड़ा और मकान जैसी बुनियादी जरूरतों में शुमार होता है.

बेइज्जती के नशेड़ी उलट हालात में भी बेइज्जती का हरण कर उस का वरण करने में कामयाब हो जाते हैं. आम का सीजन हो या केले का, ये लोग हमेशा से ही सरेआम बेइज्जती से गले मिलना पसंद करते हैं ताकि सार्वजनिक जिंदगी में ट्रांसपेरैंसी बनी रहे.

इसी ट्रांसपेरैंसी और ईमानदारी के चलते ये जल्द ही बेइज्जती के वामन रूप से विराट रूप धर लेते हैं. हर देश, काल और हालात में ‘बेइज्जती उपासक’ अपनी निष्ठा और निष्ठुरता से बेइज्जती हासिल कर ही लेते हैं.

बेइज्जती के इस धंधे में कभी मंदी नहीं आती है क्योंकि बेइज्जती में हमेशा नकद से ही आप का कद बढ़ता रहता है और उधार से बेइज्जती की धार कुंद होती चली जाती है.

विजय माल्या और नीरव मोदी ने भले ही बैंक से कर्ज ले कर बैंक को चूना लगा दिया हो, लेकिन देश से भाग कर, बेइज्जत होने की दौड़ में सब को पछाड़ कर ‘बेइज्जती उद्योग’ को चार चांद लगा दिए हैं.

कुछ लोगों में बेइज्जत होने का जुनून ही उन के सुकून की वजह होता है. बेइज्जती का घूंट वे कहीं से भी लूट लेते हैं. गलती से मिली इज्जत की वाह, इन की धमनियों में होने वाली बेइज्जती के नियमित बहाव को नहीं रोक पाती है.

बेइज्जती प्रदेश के मूल निवासी, चाहे अपने निवास पर हों या दूसरी किसी जगह के प्रवास पर, वे बेइज्जती की लौजिंगबोर्डिंग हमेशा अपने शरीर पर धारण किए रहते हैं.

इस प्रदेश के मूल निवासी हमेशा बेइज्जत होने के नएनए मौके और तरीके खोजने की कोशिश करते रहते हैं ताकि बेइज्जती की बोरियत से बचा कर इसे समाज की मुख्यधारा में लाया जा सके.

लगातार बेइज्जत होना भी एक ऐसी कला है जिसे आम आदमी के लिए अंजाम देना मुश्किल होता है. बेइज्जती के फील्ड में पेशेवर फील्डिंग करने वालों की कमी महसूस की जाती रही है.

डिमांड के मुकाबले सप्लाई न होने से बैलैंस गड़बड़ा रहा?है. लेकिन फिर भी देख कर संतोष और कुछकुछ होता है कि कुछ लोगों ने बेइज्जत होने को अपनी जिंदगी का मिशन और सहारा बना लिया है और वे बेइज्जती के सामने मुसाफिर की तरह ट्रैफिक के नियमों का पालनपोषण कर, इस रास्ते पर दांडी मार्च रहे हैं.

इन्हीं लोगों द्वारा उपजी क्वालिटी के चलते क्वांटिटी की कमी महसूस नहीं हो पाती है और क्वांटिटी की कमी के खिलाफ उठने वाली संगठित आवाज बेइज्जती के बोझ के नीचे दब जाती है.

बेइज्जती उद्योग में अभी भी बहुत उम्मीदें हैं जिन पर बेइज्जत हो कर गंभीरता से विचार करना जरूरी है. समाज के फायदे के लिए इस क्षेत्र में लोगों को बढ़ावा देने की जरूरत है क्योंकि आज की गलाकाट होड़ में जहां लोगों को इज्जत और नाम के लिए दरदर भटकने के बाद भी बेइज्जती ही हाथ लगती है, वहीं अगर उन्हें सीधे ही बेइज्जत होने के लिए बढ़ावा दिया जाए तो उन का यह भटकाव काफी हद तक कम होगा और नतीजतन समाज में इज्जत पाने की अंधी दौड़ में भागने वाले, उसेन बोल्ट जैसे धावक की आवक भी कम हो जाएगी.

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