लेखक: अशोक गौतम

मैं ने उन की फाइल निकालने के सौ सगर्व ले माया के कीटाणुओं से तुरंत छुटकारा पाने के लिए सेनिटाइजर से हाथ धोते उन से पूछा, ‘‘बरखुरदार, तुम ने अपने मोबाइल से वीडियो वगैरह तो नहीं बनाई न?’’ तो वे सहजता से बिना किसी हड़बड़ाहट के दोनों हाथ जोड़ बोले, ‘‘साहब, वीडियो बना कर अपने पांव पर कुल्हाड़ी मारनी है क्या? मैं ने भोलाराम की जीवनी पढ़ी है. बेचारे को आज तक पैंशन की दमड़ी नहीं मिली है. और जो चालीस में आप ये बाल देख रहे हो न, ये ऐसे ही सफेद नहीं हुए हैं. दफ्तरदफ्तर में रिश्वत बांट कर ही सफेद हुए हैं. उन के बहकावे में आ सदियों से चली आ रही परंपरा को मैं खत्म करने वालों में से नहीं हूं.’’ यह कह वे सादर बाहर निकले ही थे कि एकाएक वे आ धमके और आते ही मुझ से पूछा, ‘‘यार, यह क्या कर रहे हो?’’

‘‘रिश्वत लेने के बाद हाथ के जर्म्स साफ कर रहा हूं. कहते हैं कि हाथ न धोने से जर्म्स पेट में चले जाते हैं, और फिर पेट से दिमाग में. और जो एक बार ये जर्म्स दिमाग में चले गए तो समझो... सरकार कितना ही डराधमका ले, क्या मजाल जो ये मर जाएं. और...मैं नहीं चाहता कि रिश्वत लेते हुए मैं बीमार हो जाऊं.’’

मैं ने यह कहा तो वे मेरे हाथ से सेनिटाइजर छुड़ाते बोले, ‘‘तू रह जाएगा यहां हाथ साफ करता. चल, जल्दी कर, बहती गंगा में हम भी लगेहाथ हाथ साफ कर लेते हैं.’’

‘‘पर हमारे वैज्ञानिक तो वैज्ञानिक, चारचार पढ़ेलिखे भी सीना ठोंकठोंक कर चेतावनी दे रहे हैं कि गंगा इत्ती मैली है कि वहां नहाने के बाद जो घर में न नहाए, तो भक्त बीमार हो जाए. इतनी चेतावनियों के बाद भी गंगा में हाथ कम से कम मुझ जैसा समझदार तो नहीं धोएगा. और बहती गंगा में तो बिलकुल भी नहीं. मुझे तो ठहरे हुए पानी और इस कुरसी से बेहद लगाव है. यह कुरसी मुझे कितना कुछ देती है. सच कहूं, बहते हुए पानी और बहती जिंदगी से बहुत डर लगता है,’’ मैं ने यह कहा तो उन्होंने अपना सिर धुन लिया. शुक्र है, मेरा नहीं धुना. वरना बड़े लाड़प्यार से संभाल कर सहेजे सिर के चार बाल भी आज उखड़ जाते.

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