सच पूछें, तो हमें आज तक नहीं पता चला कि यह ‘चार’ का चक्कर क्या है? जिधर जाओ चौक्का, बात ‘चार’ की. ‘चार’ से शुरू ‘चार’ पर खत्म.

दरअसल, हमारी अक्ल तो बहुत मोटी है या यों कहें कि हर वक्त घास चरने चली जाती है, इसलिए ‘चार’ दिन की जिंदगी का गहरा राज ‘चार’ दिन में कैसे समझें?

महंगाई ‘चारों’ खाने चित किए रहती है, इसलिए काजूबादामकिशमिश की बात तो छोडि़ए, आजकल तो आलूटमाटर खाने के भी लाले पड़े हैं. दालरोटी के लिए भी हमारी कलम को ‘चार’ गुना जद्दोजेहद करनी पड़ती है, ताकि शांति से जुगाड़ बैठता रहे, ‘चार’ पैसे कमाते रहें.

मुद्दे से न भटक कर दोबारा अपनी बात पर आते हैं. देश के हालात के फेर में पड़े, तो खो जाने का डर है.

हमारा लाख टके का सवाल ‘चार’ को ले कर है. आखिर क्या वजह है कि हर भारतीय ‘चार’ की ही बात करता है? हमें याद आता है कि अकसर हमारे पिताजी हमें समझाते हुए कहते थे, ‘बेटा, कभी कोई बुरा काम मत करना, वरना ‘चार’ लोग क्या कहेंगे.’

उस समय भी हम नादान थे, सो तुरंत निकल पड़ते थे कि आखिर वे ‘चार’ लोग कौन हैं, जो हर वक्त हम पर आंखें गड़ाए रहते हैं. न तो हम उस समय उन ‘चार’ की खोजखबर ले पाए और न ही आज तक उन के दर्शन मुमकिन हुए.

पिताजी कभी ऐसे भी डांटते थे, ‘चार’ किताबें क्या पढ़ लीं कि खुद को इतना बड़ा स्याना समझने लगे?’

हम हिसाब लगाते कि ‘चार’ किताबें तो दूसरीतीसरी जमात में ही पूरी हो गई थीं. अब तो तादाद 40 के पार पहुंच चुकी, फिर भी पिताजी ‘चार’ पर ही क्यों अटके रहते हैं?

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