लेखिका- डा. अर्चना देवी, वैज्ञानिक, पादप प्रजनन, डा. वीके सिंह, वैज्ञानिक, पशुपालन, डा. वीके विमल, वैज्ञानिक उद्यान, प्रो. डीके सिंह, प्रभारी, कृषि विज्ञान केंद्र,कोटवा

भारत सरकार के प्रस्ताव पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने 172 देशों के समर्थन से वर्ष 2023 को ‘अंतर्राष्ट्रीय मिलेट्स वर्ष’ के रूप में मनाने का निर्णय लिया है. हरित क्रांति के बाद जिस तरीके से गेहूंधान फसल प्रणाली को अपनाने पर जोर दिया गया, उस के परिणामस्वरूप हम सब ने अपना पारंपरिक मोटा अनाज फसलों को छोड़ कर केवल गेहूं और चावल से बने खाद्य पदार्थों के साथ ही प्रसंस्कृत खाद्य पदार्थों को अपने भोजन में प्रमुख रूप से स्थान दिया.

इस के परिणामस्वरूप गेहूंधान जैसी अत्यधिक पानी चाहने वाली फसल लगाने से फसलों की जलमांग बढ़ गई. गेहूंधान (120 से 140 सैंटीमीटर वर्षा की मांग) की तुलना में मोटा अनाज फसलों में (20 से 60 सैंटीमीटर वर्षा की मांग) बहुत ही कम मात्रा में पानी की आवश्यकता होती है. इस के साथ ही गेहूंधान की फसल को उगाने के लिए अंधाधुंध रासायनिक उर्वरकों, की टनाशकों, खरपतवारनाशकों के अत्यधिक प्रयोग से प्राकृतिक संसाधनों (जल, मिट्टी, वायु) में बहुत ही तेजी से प्रदूषण बढ़ा है.

जब हम मिलेट्स की बात करते हैं, तो सिरिधान्य (माइनर मिलेट्स) फसलों में कंगनी, सावा, कोदो, कुटकी, छोटी कंगनी प्रमुख रूप से धनात्मक (पौजिटिव) धान्य के रूप में आते हैं, जबकि बाजरा, रागी, ज्वार, मक्का, तटस्थ धान्य की श्रेणी में आते हैं. भारत में इन फसलों का उत्पादन अनादिकाल से ही होता आ रहा है. पूरे विश्व में ये फसलें आज 131 देशों में उगाई जाती हैं, जबकि एशिया और अफ्रीका महाद्वीप में परंपरागत रूप से 59 करोड़ लोगों का यह भोजन है. भारत मिलेट्स उत्पादन में एशिया का 80 फीसदी और पूरे विश्व का 20 परसेंट उत्पादन करता है.

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