साल 1991 में पूंजीवादी अर्थव्यवस्था को अपनाते समय देश के लोगों को यह विश्वास दिलाया गया था कि यह देशहित में होगा. आज 29 साल बाद पूंजीवाद के प्रभावों की दोबारा से समीक्षा की जानी चाहिए. उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों से इस देश में सब से ज्यादा प्रभावित तबका किसान और मजदूर तबका रहा है.
दरअसल, जिस की ज्यादा जरूरत होती?है, उस के लिए इस देश में नारे गढ़ लिए जाते हैं. 1965 में युद्ध के दौरान प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान’ का नारा दिया था. भुखमरी की कगार पर खड़े देश को किसानों की याद आई और हरित क्रांति के लिए ‘जय किसान’ का नारा दे दिया गया. परमाणु परीक्षण के बाद अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘जय विज्ञान’ का नारा दिया.
क्या जिस तरह बातों में जवान, किसान और विज्ञान को महत्त्व दिया गया?है, हकीकत में उस के हिसाब से इन को सहूलियतें दी गई हैं? आज हर तरफ नजर दौड़ा कर देख लीजिए, तीनों तबके परेशान नजर आएंगे.
सरकारें चाहे किसी की भी रही हों, लेकिन दिखावी नारों के बीच हमें गौर करना होगा कि आज किसान कहां खड़ा है?
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आजादी के समय जीडीपी में खेती का योगदान तकरीबन 53 फीसदी था और आज यह योगदान घट कर 12 फीसदी हो गया है. वाजपेयी मिशन 20-20 के हिसाब से साल 2020 तक इसे 76 फीसदी तक लाना है.
दिनोंदिन बढ़ रही आबादी, औद्योगीकरण और नगरीकरण की अंधाधुंध नीतियों तले किसानों की परेशानी और खेती की उपयोगिता को सरकारों द्वारा नजरअंदाज कर दिया गया. उद्योगों को बंजर भूमि के बजाय खेती की जमीनों पर लगा दिया गया. शहरी प्राधिकरणों ने खेती वाली जमीन का अधिग्रहण कर नगरीकरण को अंधाधुंध बढ़ावा दिया. औद्योगिक केंद्रों के विकेंद्रीकरण के अभाव में चंद बड़े शहरों में मानव के अधिभार में बेतहाशा बढ़ोतरी के कारण इन शहरों के आसपास की खेती वाली जमीन आवासीय कालोनियों में तबदील हो गई.
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