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मैं उसी वक्त अपनी पैकिंग में लग गया. दरअसल, मैं ने कितनी ही गलतसही बातें उसे सुनाई हों लेकिन वह कभी भी अपनी जबान नहीं खोलती थी. आज पहली बार था जो मुझे बेहद नागवार गुजरा था. मुझे तैयार होता देख मांबेटी सकते में थीं. कुक्कू अब मुझ से काफी सहमी रहती और इस के लिए मैं पूरी तरह से प्रतीति को दोषी समझता था. पता नहीं क्यों कभी नहीं लगा कि मैं जो इतना उग्र हो जाता हूं उस का बच्ची पर कुछ तो असर होता होगा. कुक्कू किनारे खड़ी हो कर सुबकती हुई अनुनय करने लगी कि मैं न जाऊं.

प्रतीति के लिए यद्यपि ज्यादा मेरे करीब आना मुमकिन नहीं था फिर भी शारीरिक भाषा प्रखर करते हुए राह रोक कर खड़ी हो गई. मैं अपना बैग ले कर लगभग उसे धक्का देते हुए बाहर निकल गया.

आज सुबह से ही मेघों का बोलबाला कुछ ज्यादा था. कुहरे ने स्वस्थ, साफ आसमान को इस कदर ढक लिया था कि अगले कुछ पल बड़े असमंजस भरे थे. मैं बड़ा बेचैन था. मैं ने मोबाइल उठा लिया. सोचा, शहर में ही किसी परिचित को फोन लगाऊं. फिर मां को ही फोन घुमा दिया. मांपिताजी अभी भी उसी पुश्तैनी मकान में रह रहे हैं.

मां ने मेरा फोन पाते ही चिंतित स्वर में पूछा, ‘‘क्या हुआ, मलय? 10 दिनों से रोज तुम्हारे घर फोन कर रही हूं. प्रतीति एक ही बात कह रही है कि तू औफिस के काम से बाहर गया है, इधर तुझे फोन लगाती हूं तो बंद रहता है या उठाता नहीं.’’

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