देश के विरोधी दल आंतरिक विवादों में बुरी तरह बिखर रहे हैं. तृणमूल कांग्रेस की नेता ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल में सर्वेसर्वा होते हुए भी गोरखालैंड में लगाई गई आग को बुझाने में व्यस्त हैं. बिहार में नीतीश कुमार आयाराम गयाराम के चक्कर में लालू परिवार पर आर्थिक हेराफेरी के एक और दौर का लाभ उठाने की कोशिश कर रहे हैं. ओडिशा में नवीन पटनायक के बीजू जनता दल में आंतरिक विद्रोह की आवाजें उठ रही हैं.
तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक पार्टी में कोई नेता ही नहीं है पर फिर भी वह सरकार में हैं. केरल व कर्नाटक में गैरभाजपा सरकारें हैं पर उन की उपलब्धियों के समाचार कम हैं, उन के अपने विवादों के ज्यादा हैं.
अन्य राज्यों में भी भारतीय जनता पार्टी के शासन को चुनौती देने वाले विरोधी दल बिखर रहे हैं. गुजरात में विधानसभा चुनावों के पहले ही शंकर सिंह वाघेला ने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया. उत्तर प्रदेश में मायावती बहुजन समाज पार्टी को संभाल नहीं पा रहीं और समाजवादी पार्टी में बापबेटे के बीच घमासान जारी है.
इस सारे का पूरा फायदा भारतीय जनता पार्टी और नरेंद्र मोदी उसी तरह उठा रहे हैं जैसे इंदिरा गांधी कांग्रेस का आधिपत्य जमाने के लिए 1984 से पहले उठाती थीं.
विपक्षी पार्टियों की सक्रियता लोकतंत्र में बहुत जरूरी है. असल में वे सरकार का हिस्सा हैं, गाड़ी में ब्रेक का काम करती हैं, उस के बिना सरकार चलेगी ही नहीं. तानाशाही सरकारें वहीं चल पाती हैं जहां सरकार पर किसी और का अंकुश हो चाहे वह सरकार का हिस्सा दिखे. गवर्नैंस में विचारों की विभिन्नता का महत्त्व बहुत ज्यादा है और जो तानाशाह अपने चारों ओर केवल यसमैन जमा कर लेता है वह ज्यादा दिनों तक नहीं चल पाता.