इस बार दिसंबर के चुनावों और उपचुनावों के नतीजों ने फिर साबित कर दिया है कि सरकार में बने रहने के लिए चुनावी कौशल ज्यादा जरूरी है बजाय चुनाव के बाद किसी सरकार को चलाने का कामकाज देखने के. नरेंद्र मोदी ने जिस तरह गुजरात में ताबड़तोड़ चुनावी सभाएं कीं उस से भारतीय जनता पार्टी को रिकौर्ड वोट भी मिले और रिकौर्ड सीटें भी. साफ है कि चुनाव जीतने का सही सरकार चलाने से कोई सीधा संबंध नहीं है.

दिल्ली के अरविंद केजरीवाल ने भी यही किया. उन्होंने भी अपना कामधाम छोड़ कर गुजरात और दिल्ली में चुनावी सभाएं कीं और गुजरात में चाहे सीटें 5 मिली हों, वोट इतने मिल गए कि प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचा.

कांग्रेस के 3 दिग्गज नेताओं में से सोनिया गांधी लगभग अस्वस्थ हैं. राहुल गांधी ‘भारत जोड़ों’ यात्रा में व्यस्त रहे और प्रियंका गांधी आधेअधूरे मन से हिमाचल गईं. दिल्ली म्यूनिसिपल कौर्पोरेशन के चुनाव में कोई बड़ा कांग्रेसी नेता हाथ डालने भी नहीं आया. गुजरात में जहां पिछली बार राहुल की मेहनत की वजह से कांग्रेस ने बहुत अच्छा प्रदर्शन किया था, इस बार वे नदारद थे जिस का नुकसान सामने है.

अब यह साफ दिख रहा है कि चुनाव जीतना और सही शासकीय नीतियां बनाना 2 अलग चीजें हैं. लोकतंत्र का मतलब अब अच्छी सरकार चलाना नहीं है, अच्छा चुनावप्रचार करना रह गया है. जो पार्टी जम कर प्रचार कर सके और दूसरी पार्टियों के आर्थिक स्रोत सुखा सके वह जीत सकती है उस की नीतियां चाहे कुछ भी हों. हिमाचल प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी को भ्रम था कि उस की नीतियों के कारण वह जीत जाएगी, इसलिए वहां के ढुलमुल मुख्यमंत्री और नरेंद्र मोदी का प्रचार फीका रहा और पार्टी हार गई.

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