किसी भी औरत को अपनी मरजी के कपड़े पहनने का मौलिक अधिकार है. समाज ने कपड़े पहनना लगभग अनिवार्य कर दिया. इसे सभ्यता का विकास कहें या शरीर की मूलभूत आवश्यकता पर न पहनने का अधिकार पूरी तरह छिन जाए, यह भी गलत है. हरेक के साथ कुछ सामान्य व्यावहारिक नियम बंधे होते हैं और इसीलिए दफ्तर में बिकिनी पहन कर जाना गलत होगा और स्विमिंग पूल में साड़ी पहन कर कूद जाना भी गलत होगा. यूरोप में इस बात पर जंग छिड़ी है कि मुसलिम औरतों को समुद्री तटों पर बुरका और बिकिनी का सम्मिश्रण बुरकिनी पहनना, जिस में पूरा बदन स्किन टाइट ड्रैस से ढका होता है, उन के निजी अधिकारों में आता है या नहीं. फ्रांस के कई शहरों के मेयरों ने इस पर पाबंदी लगाई है और एक अदालत ने इसे अवैध भी कहा है. फिर भी पूरे यूरोप में बुरके को ले कर विवाद छिड़ा है.
बुरका पहनना अगर निजी अधिकार की बात होती तो शायद किसी को आपत्ति नहीं होती. बुरका इसलिए नहीं पहना जा रहा कि औरतों को लगता है कि वे उस में सुंदर लगती हैं या यह फैशन स्टेटमैंट है. बुरका तो इसलिए पहना जाता है, क्योंकि यह धार्मिक कानून है और मुसलिम औरतें आजाद फ्रांस में भी रह कर मुसलिम कानून को वरीयता देती हैं. बुरकिनी बिकिनी का पर्याय हो पर है यह औरतों पर धार्मिक बंदिश ही. इसे किसी भी तरह से औरतों के निजी अधिकारों की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. इसे न पहनने पर परिवार और समाज जम कर आपत्ति करता है जैसे भारत में आज भी परदा न करने पर औरतों को बुराभला कहा जाता है. एक युग था जब भारत के अनेक इलाकों में औरतों को जबरन ऊपरी वस्त्र पहनने से मनाही थी. केरल में इसे ले कर आंदोलन हुए. आज ऊपरी वस्त्र न पहन कर स्तन खुले दिखाने के हक पर पश्चिम में भी लड़ाई लड़ी जाती है.