मानव शरीर एक ही सांचे में कहां ढलता है. उस में तो हजारों तरह के मौडल हैं पर लगभग सभी मौडल एकजैसा काम करते हैं. बार्बी डौल बनाने वाले 57 साल से लगभग एक तरह का मौडल आदर्श शरीर की तरह पेश करते रहे हैं और बचपन से ही गुडि़याओं से खेलने वाले बच्चों के दिमाग में एक छवि बैठती रही है कि बार्बी कितनी अच्छी है. पर अब विविधता को भी जगह मिली है. दुनिया का लगभग हर देश अब विविधता को बढ़ावा दे रहा है. अमेरिका की सफलता के पीछे उस की यह विविधता रही है कि वहां हजारों तरह के लोग एक देश के नागरिक हैं और फक्र से अपने को अमेरिकी कहते हैं.

उस के मुकाबले सऊदी अरब जैसा कट्टर देश है जहां एक ही कबीले के, एक ही धर्म के, एक ही तरह की पोशाक पहने लोगों को पसंद किया जाता है. यदि सऊदी अरब के पास तेल न हो, जो उस ने खुद नहीं बनाया, तो मक्कामदीना के बावजूद उस की हालत भारत के अजमेर शहर से अच्छी नहीं होती जो टूटी सड़कों, संकरी गलियों, बदहाली, गरीबी का नमूना है. भारत में एक वर्ग देश को एक सांचे में ढालने की कोशिश कर रहा है और सांचे की डिजाइन के लिए बारबार रामायण, महाभारत, पुराणों और मनुस्मृति को खंगालता है. उस के लिए बुरा यह है कि भारत की विविधता का जोर इतना है कि उस की लाख कोशिशों के बावजूद भारत की बार्बी डौल एक सांचे वाली बन ही नहीं पा रही.

बार्बी डौल कंपनी ने विविधता को स्वीकार कर के मान लिया है कि अलगअलग तरह के लोग साथ रह कर काम कर सकते हैं और रोटीबेटी के संबंध बना सकते हैं. समाज तभी चलता है जब अलगअलग सोच के लोग साथ काम करते हैं और लकीर को नहीं पीटते. कई बार दुनिया आगे सिरफिरों के कारण ही बढ़ी है. अगर कोलंबस पर पश्चिम में पूर्व की खोज करने का पागलपन न सवार होता तो क्या वह कई जहाज ले कर अटलांटिक सागर पार करने की योजना बना पाता? अगर न्यूटन का दिमाग सेब को गिरते देख कर पगला न जाता तो क्या वह फिजिक्स के नए सिद्धांतों को खोज पाता, जिन पर आज की तकनीक टिकी है? घरघर में विविधता को जगह मिलनी चाहिए. बहू आप के नक्शेकदम पर चले, यह जोर न दें. बेटा वही करे जो पिता ने अपने बचपन में किया, यह जबरन न थोपें.

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