चिंता अकेले एमआईएम के मुखिया असऊद्दीन ओवैसी की नहीं, बल्कि करोड़ों मुसलमानो की है, जो फिलवक्त रोजे से हैं इसलिए कई उसूलों के पाबंद भी हैं. इनमे से एक गुस्सा न करना भी है, पर तय है ईद के बाद सब ओवैसी की हां में हां मिलाते नजर आएंगे कि यूनिफ़ार्म सिविल कोड पर बहस भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने की मुहिम का एक हिस्सा है.
बक़ौल ओवैसी भाजपा आरएसएस के एजेंडे को लागू कर रही है, क्योंकि वह चुनावों के दौरान किए गए वादों को पूरा करने में नाकाम रही है. इस्लामिक स्टेट की भर्त्स्ना करते रहने बाले ओवैसी दरअसल में उतने ही कट्टर मुसलमान हैं, जितना संघ से जुड़ा कोई भी व्यक्ति कट्टर हिन्दू होता है. ये दोनों ही तरह के लोग नहीं चाहते कि पंडे मौलवियों का रोजगार बंद हो और समाज से कर्मकांड बंद हों, लोग जागरूक हों व अपना भला बुरा खुद समझते अपने विवेक से फैसले लें. इस लिहाज से ओवैसी की प्रतिक्रिया अनअपेक्षित नहीं थी, जिनका काम मुसलमानो को हिन्दू राष्ट्र के होव्वे से उसी तरह डराते रहना है जिस तरह कट्टर हिन्दू वादी हिंदुओं को यह कहते डराते रहते हैं कि अगर मुसलमानो की आबादी इसी रफ्तार से बढ़ती रही तो वह दिन दूर नहीं जब वे तुम पर हुकूमत कर रहे होंगे.
भारत माता की जय की संघ की पेशकश पर गर्दन कटा लेने की हद तक तिलमिलाने बाले ओवैसी की चिंता बावजूद मुसलमानो का हितेषी या शुभचिंतक ना होने के एक हद तक गंभीर प्रश्न है, जिससे साफ यह होता है कि अधिकतर लोग अभी भी पंडो और कठमुल्लाओं के इशारों पर नाच रहे हैं. सब के लिए एक सा कानून हो यह बात हर्ज की नहीं, पर वह कानून कैसा हो इसका फैसला कौन करेगा, यह बड़ी दिक्कत बाली बात होगी. यूनिफ़ार्म सिविल कोड की गेंद सुप्रीम कोर्ट से निकलकर विधि आयोग और सरकार के पाले में है, लेकिन आम लोग बजाय कानून के अपने अपने धार्मिक सिद्धांतों को लेकर चिंता में हैं. धर्म के जानकार आयतें रिचाएं खंगाल रहे हैं, ताकि वक्त रहते बताया जा सके कि देखो हमारे यहां तो फलां मसले पर ढिकानी जगह साफ साफ यह लिखा है और हम इससे कोई समझौता नहीं करेंगे.
विवादित उदाहरण तलाक का लिया जाए तो ट्रिपल तलाक का तरीका फिर चर्चाओं में है कि यह औरतों के साथ ज्यादती है. मुमकिन है हो, पर उलट इसके हिन्दू पुरुष तलाक की प्रक्रिया में कानूनी देरी को लेकर परेशान हैं, कई मामलों में तो दूसरी शादी कर घर गृहस्थी बसाने और बच्चे पैदा करने की उम्र गुजर गई और कई रूमानी ख्वाहिशें अदालत की चौखट पर दम तोड़ते मर गईं, पर तलाक नहीं मिला. यही हाल पैतृक संपत्ति विवादों का है, यानि कानून कोई पूर्ण नहीं है, इसलिए लोग उन्हे लेकर संतुष्ट या खुश भी नहीं हैं. फिर हल्ला क्या है? हल्ला धर्म और और उसके दुकानदार हैं जो अपने ग्राहकों को समान नागरिक संहिता के अज्ञात खतरों से डरा रहे हैं.
किसी अदालत में तलाक के लिए पेशियों पर चक्कर काट रहे किसी हिन्दू पति से पूछिए तो वह बड़ी दर्दीली आवाज में कहेगा कि काश एक दिन के लिए यह सहूलियत मुझे मिल जाए तो ज़िंदगी का एक भीषण तनाव दूर हो. फिल्म अभिनेता धर्मेन्द्र ने तो हेमामालिनी से शादी करने इस्लाम कुबूल कर लिया था. यही पीड़ा उस मुस्लिम महिला की भी है जिसे 3 दफा तलाक कहकर मर्द अपनी ज़िंदगी और घर से दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंकता है, मानो उसका कोई वजूद ही न हो. बी आर चोपड़ा निर्देशित फिल्म निकाह की नायिका सलमा आगा हर किसी को इसी वजह से याद है. जरूरत मौजूदा कानूनों की खामियों को सुधारने की है न कि यूनिफ़ार्म सिविल कोड की आड़ में धर्म के ढ़ोल नगाड़े बजाने और पीटने की.